चक्र अनेकार्थक शब्दविशेष, जिसका प्रयोग बहुधा समूह, मंडल, वृत्त, गोलाकार चिन्ह या वस्तु, समयक्रम, सेना आदि के लिये किया गया है। रथ के पहिये के लिये ऋग्वेद (२. ११.१४, ४.१.३) तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में इसका लाक्षणिक ढंग से प्रयोग मिलता है। इसी अर्थ में सूर्य के आकार तथा उसकी गति की दृष्टि से वैदिक साहित्य में इसकी प्रतीकात्मक योजना भी है। याज्ञवल्क्य स्मृति (१.२६५) तथा महाभारत (१.१३) आदि में सत्ताधारी सम्राट् के रथ के लिये इसका व्यवहार हुआ है। शतपथ ब्राह्मण (११.८.१.१) में सर्व प्रथम कुम्हार के चक्के के लिये चक्र शब्द आया है। पुराणों में वर्णित विष्णु के प्रसिद्ध गोल आयुध को यही संज्ञा दी गई है।

शुभाशुभ निर्णय के लिये स्वर तथा सर्वतोभद्रादि ८४ चक्रों का उल्लेख मिलता है। गणित ज्योतिष के राशिचक्रों और सामुद्रिक में वर्णित हथेली, तलवे तथा उँगलियों के विशेष गोलाकार 'चक्रों' के आधार पर फलाफल के अनेक विधान एव परिणाम प्रस्तुत होते हैं। योगशास्त्र में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध तथा आज्ञाख्य आदि षट्चक्रों का प्रतीकात्मक वर्णन है जिसका भेदन कर कुंडलिनी सहस्त्रार की ओर उन्मुख होती है। मंत्र के शुभाशुभ विचार के लिये भी कुछ चक्रों का व्यवहार होता है। तंत्रग्रंथों में चक्रों का विशेष प्रयोग मिलता है (दे. तंत्र साहित्य)। चक्रव्यूह के लिये भी इस शब्द का व्यवहार किया जाता है (दे. चक्रव्यूह)। (श्याम तिवारी)