घनास्रता और रक्तस्रोतरोधन (Thrombosis and Embolism) - जीवितावस्था में जब तक रक्तवाहिकाओं का अंत: कला (endothelium) स्वस्थ होती है तब तक भीतर बहनेवाला रक्त तरल रहता हैं, परंतु आघात (trauma), प्रदाह (inflammation), हृदयदौर्बल्य इत्यादि कारणों से वह विकृत हो जाता है। तब विकृत स्थान में रक्त जमता है, जिसको 'घनास्रता' कहते हैं। घमनियों की अपेक्षा शिराएँ चौड़ी तथा उनकी दीवार पतली होने से उनमें घनास्रता उत्पन्न होने की संभावना अधिक रहती है। जिस दिशा में रक्त का दाब कम होता जाता है उस दिशा में घनास्र (Thrombus) फैला करता है। यह वाहिका की समीपवर्ती शाखा तक अवश्य फैल जाता है। घनास्रता का परिमाण उसके स्थान पर, विस्तार पर, वाहिका के प्रकार पर तथा उसे पूतिदूषित, या अपूतिदूषित (septic or aseptic), होने पर निर्भर होता है। अति वृद्धावस्था में मस्तिष्क की तथा उसके आवरणों की शिराओं में घनास्रता होने की अधिक संभावना रहती है। वृद्धावस्था में होनेवली घनास्रता एक ही सप्ताह में प्राय: धातक हो जाती है। पूतिदूषित घनास्रता से फोड़े बनते हैं और आगे के दुष्परिणाम उसी के कारण होते हैं।
घनास्र वाहिका के एकाध स्थान पर चिपककर बाकी स्वतंत्र रहता है और आघात, स्थानपरिवर्तन, आकस्मिक गति इत्यादि से टूटकर, या अलग होकर, दूरवर्ती स्थानों में जा अटकता है। इसको 'रक्तस्रोत रोधन' कहते हैं। इसके दुष्परिणाम घनास्र के मूलस्थान, विस्तार तथा उसके पूतिदूषित या अपूतिक होने पर निर्भर होते हैं। शिराओं की, या दक्षिण हृदयार्ध की, घनास्रता का रक्तस्रोतरोधन फुफ्फुसों में जाकर अटकता है। यदि वह बड़ा हुआ तो फौफ्फुसिक धमनियों में मार्गविरोध करके घातक होता है। शल्यकर्म या प्रसव के पश्चात् होनेवाली आकस्मिक मृत्यु प्राय: इसी प्रकार से हुआ करती है। यदि वह छोटा रहा, तो फुफ्फुस का अल्पांश बेकार होकर थोड़ी सी बेचैनी उत्पन्न होती है, जो प्राय: अल्पकाल में ठीक हो जाती है। अंत:शल्य पूतिक होने से फोड़ा, कोथ या अंत:पूयता (empyema) उत्पन्न होती है। हृदय के वामार्ध की घनास्रता से शारीरिक धमनियों में रक्तस्रोतरोधन उत्पन्न होता है।
यद्यपि रक्तस्रोतरोधन का घटक साधारणतया रक्त का थक्का होता है, तथापि वसा और वायु के भी रक्तस्रोतरोधन बनते हैं। वसारक्तस्रोतरोधन (Fat embolus) अस्थिभंग में मज्जा से और वातरक्तस्रोतरोधन (Air embolus) शिरा में वायुप्रवेश से होते हैं।
(भास्कर गोविंद घाणेकर)