घड़ी (सामान्य और परमाण्वीय) घड़ी वह यंत्र है जो संपूर्ण अहर्निश को समय की समान अवधियों में स्वयंचालित प्रणाली द्वारा विभक्त करता है और इस प्रकार कालक्षेप के सही सही व्यक्त करता है। अधिकतर घड़ियों में नियमित रूप से आवर्तक (recurring) क्रियाएँ उत्पन्न करने की स्वयंचालित व्यवस्था होती है, जैसे लोलक का दोलन, सर्पिल कमानियों (spiral springs) तथा संतुलन चक्रों (balancewheels) को दोलन, दाबविद्युत् मणिभों (piezo-electric crystals) का दोलन, अथवा उच्च आवृत्तिवाले संकेतों की परमाणुओं की मूलअवस्था की अतिसूक्ष्म संरचना (hyperfine structure) से तुलना इत्यादि। प्राचीन काल में धूप के कारण पड़नेवाली किसी वृक्ष अथवा अन्य स्थिर वस्तु की छाया के द्वारा समय के अनुमान किया जाता था। ऐसी धूपधड़ियों का प्रचलन अत्यंत प्राचीन काल से होता आ रहा है जिनमें आकाश में सूर्य के भ्रमण के करण किसी पत्थर या लोहे के स्थिर टुकड़े की परछाई की गति में होनेवाले परिवर्तन के द्वारा 'घड़ी' या 'प्रहर' का अनुमान किया जाता था। बदली के दिनों में, अथवा रात में, समय जानने के लिय जल घड़ी का आविष्कार चीन देशवासियों ने लगभग तीन हजार वर्ष पहले किया था। कालांतर में यह विधि मिस्रियों, यूनानियों एवं रोमनों को भी ज्ञात हुई। जलघड़ी में दो पात्रों का प्रयोग होता था। एक पात्र में पानी भर दिया जाता या और उसकी तली में छेद कर दिया जाता था। उसमें से थोड़ा थोड़ा जल नियंत्रित बूँदों के रूप में नीचे रखे हुए दूसरे पात्र में गिरता था। इस पात्र में एकत्र जल की मात्रा नाप कर समय अनुमान किया जाता था। बाद में पानी के स्थान पर बालू का प्रयोग होने लगा। इंग्लैंड के ऐल्फ्रडे महान् ने मोमबत्ती द्वारा समय का ज्ञान करने की विधि आविष्कृत की। उसने एक मोमबत्ती पर, लंबाई की ओर समान दूरियों पर च्ह्रि अंकित कर दिए थे। प्रत्येक च्ह्रि तक मोमबत्ती के जलने पर निश्चित समय व्यतीत होने का ज्ञान होता था।

आजकल प्रयोग की जानेवाली घड़ियाँ यांत्रिक विधियों से संचालित होती हैं। इन यांत्रिक घड़ियों में अनेक पहिए होते हैं, जो किसी कमानी, लटकते हुए भार अथवा अन्य उपायों द्वारा चलाए जाते हैं। इन्हें किसी दोलनशील व्यवस्था द्वारा इस प्रकार निंयत्रित किया जाता है कि इनकी गति समांग (uniform) होती है। इनके साथ ही इसमें घंटी या घंटा (gong) भी होता है, जो निश्चित अवधियों पर स्वयं ही बज उठता है और समय की सूचना देता है।

पहली घड़ी सन् ९९६ में पोप सिलवेस्टर द्वितीय ने बनाई थी। यूरोप में घड़ियों का प्रयोग १३वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में होने लगा था। इंग्लैंड के वेस्टमिंस्टर के घंटाघर में सन् १२८८ में तथा सेंट अल्बांस में सन् १३२६ में घड़ियाँ लगाई गई थीं। डोवर कैसिल में सन् १३४८ में लगाई गई घड़ी जब सन् १८७६ ई. विज्ञान प्रदर्शनी में प्रदर्शित की गई थी, तो उस समय भी काम कर रही थी। सन् १३०० में हेनरी डी विक (Henry de Vick) ने पहिया (चक्र), अंकपृष्ठ (डायल) तथा घंटा निर्देशक सूईयुक्त पहली घड़ी बनाई थी, जिसमें सन् १७०० ई. तक मिनट और सेकंड की सूइयाँ तथा दोलक लगा दिए गए थे। आजकल की घड़ियाँ इसी शृंखला की संशोधित, संवर्धित एवं विकसित कड़ियाँ हैं।

यांत्रिक घड़ी के मुख्य भाग- यांत्रिक घड़ी की आवर्तक क्रिया किसी दोलक, अथवा संतुलन चक्र और संतुलन कमानी, अथवा बालकमानी, के दोलन पर निर्भर

करती है। इन यंत्रों की आवर्त गति अत्यंत नियमित क्रम से होती है। इनके साथ अनेक दाँतेदार पहियों का संबंध होता है। दोलन प्रणाली का एक दोलन पूरा होने पर इन पहियों के एक या एक से अधिक दाँते धूमते हैं। इस प्रकार ये पहिए दोलनों की गणना करते हैं। इन पहियों से घड़ी की सूइयाँ जुड़ी होती हैं, जो डायल (dial) पर घूमती हैं और डायल पर अंकित समयविभाग की सहायता से समय बतलाती हैं। अंकपृष्ठ घंटों, मिनटों और सेकेंडों में विभक्त रहता है। दोलक एवं गणकयंत्र प्रणालियों को निरंतर चलाते रहने के लिये वांछित ऊर्जा कमानी या भार द्वारा प्राप्त होती है। साधारण तौर पर दोलक प्रणाली को गणक प्रणाली से ऊर्जा एक विशेष यांत्रिक व्यवस्था द्वारा प्राप्त होती है, जिसे पलायन तंत्र कहते हैं।

दोलक (Pendulum)- यह धातु का एक गोल टुकड़ा होता है, जो धातु की एक छड़ द्वारा लटकाया हुआ रहता है। जब दोलक का दोलन विस्तार या आयाम (amplitude) बहुत अधिक नहीं होता, तो दोलक का दोलनकाल प्राय: एक समान होता है। इसका दोलनकाल, का (T), जिसे आवर्तकाल भी कहते हैं, निम्नलिखित सूत्र द्वारा व्यक्त किया जा सकता है :

श्

श्

जहाँ ल (१) उस दोलक के निलंबन बिंदु से दोलक के गुरुत्व केंद्र की दूरी है, जिसे 'दोलक की लंबाई' भी कहते हैं। त्व (g) प्रयोगशाला में गुरुत्वजनित त्वरण व्यक्त करता है। यह देखा गया है कि ३९.१४ इंच लंबाईवाले दोलक की छड़ में ०.००१ इंच का परिवर्तन कर देने पर घड़ी के समय में १ सेकेंड प्रति दिन का अंतर पड़ जाता है। इसी प्रकार दोलनविस्तार यदि ३ इंच से अधिक बढ़ाया जाय, तो प्रत्यक ०.१ इंच वृद्धि होने पर घड़ी के समय में १ सेकंड का अंतर आ जाता है। इससे स्पष्ट है कि ताप में परिवर्तन से दोलक की लंबाई में होनेवाले परिवर्तनों के कारण घड़ी के समय में अक्सर त्रुटि आ जाती है। इस दोष को दूर करने के लिये छड़ को इस्पात-मिश्र-धातु या 'इनवार' (Invar) का बनाया जाता है, जो शीत ताप के प्रभाव से साधारण इस्पात की अपेक्षा केवल दसवां भाग ही बदलता है। हैरिसन का ग्रिडइस्पात दोलक ऐस ही दोलक क व्यावहारिक रूप है।

िचत्र १. लंगर का प्रतिक्षेप मोचन व्यवस्था

मोचन व्यवस्था (Escapenments)- यह ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें एक घूमते हुए चक्र या पहिए के द्वारा दोलक को क्षणिक आवर्तक आवेग (periodic impulses) प्रदान किए जाते हैं और साथ ही, दोलक का एक कंपन पूरा होने की अवधि भर उस चक्र की गति रुकी रहती है। इस प्रकार यह व्यवस्था दोलन की गणना करने, दोलन को नियमित रखने तथा दोलन आयाम को नियंत्रित करने का कार्य करती है। सर्वोत्तम पलायनतंत्र वह है जिसमें नियमित अवधि के अनंतर एक हल्का सा भार दोलक पर गिर कर उसे एकरूप आवेग उस क्षण प्रदान करता है जब दोलक अपनी मध्यमान स्थिति से गुजर रहा होता है। यह व्यवस्था कई प्रकार से संपन्न की जा सकती है, जिनमें निम्नलिखित मुख्य है :

  1. लंगर या प्रतिक्षेप (recoil) मोचन व्यवस्था- इसमें एक लंगर होता है जो केंद्र के चारों ओर दोलन करता है। से एक दोलक नीचे की ओर लटका होता है। दोलक के अर्धदोलन (midswing) के पश्चात् पहिया (चक्र) का एक दाँत लंगर के दोनों सिरों पर लगे पैलेटों (pallets) में से एक (मान लिया ) को पार करता होता है। इस प्रकार वह उस पैलेट को एक हलका सा धक्का देता है जिससे वह पैलेट ऊपर उठ जाता है और दूसरा पैलेट अपने नीचे वाले पहिए पर गिरकर उसे पीछे की ओर हल्का सा झटका देता है। किंतु इस पैलेट की वक्रता कुछ ऐसी होती है कि इस झटके की प्रतिक्रिया स्वरूप यह दाँत इस पैलेट को उठाकर इसके नीचे से पार हो जाता है। इस प्रकार यह पहिया निरंतर चलता रहता है और लंगर का दोलन कराता रहता है।
  2. मृतस्पंद (deadbeat) मोचन व्यवस्था- इस पलायनतंत्र के चक्र में दाँतों की नोकें पूर्वोक्त प्रतिक्षेप पलायनतंत्र के दाँतों की नोकों की विपरीत दिशा में बैठाई गई होती हैं। जैसा चित्र २. में दिखलाया गया है, बाईं ओर के पैलेट का फलक अ ब तथा दाहिनी ओर के पैलेट का फलक द य मृत फलक (dead faces) तथा फलक अ स और द फ आवेग-फलक (impulse faces) कहलाते हैं। दोनों मृत-फलक एककेंद्रित (concentric) वृत्तों के चाप होते हैं, जिनका केंद्र पर होता है। चित्र से स्पष्ट है कि बाईं ओर के पैलेट के मृतफलक पर जो दाँत इस समय रुका हुआ है वह दोलक के बाईं ओर दोलन करने के साथ ही, पैलेट के ऊपर उठने के कारण, आवेगफलक अ स पर फिसलेगा और इस प्रकार दोलक को आगे की दिशा में एक आवेग प्रदान करेगा। साथ ही, दाहिनी ओर का फलक नीचे की ओर उतरेगा और अगले दाँत को आगे बढ़ने से रोक लेगा ; किंतु जब दोलक पुन: दाहिनी ओर दोलन करेग तो फलक ऊपर उठेगा और दाँत पुन: आवेगफलक द फ पर फिसलता हुआ आगे बढ़ जायगा। इससे दोलक को पुन: आवेग प्राप्त होगा। इस प्रकार दोनों पैलेटों के आवेग फलक बारी बारी से दोलक को आवेग प्रदान किया करते हैं, जिससे वह एकरूप गति से दोलन क्रिया करता है।

चित्र २. मृतस्पंद मोचन व्यवस्था

उपर्युक्त दोनों पलायनतंत्र प्रारंभिक कोटि के हैं। इनमें उत्तरोत्तर सुधार करके अनेक नए प्रकार के पलायनतंत्रों का निर्माण किया गया है। आजकल प्रयुक्त होनेवाले पलायनतंत्रों में ऐसी व्यवस्था होती है कि पलयानचक्र (escape-wheel), अर्थात् उपर्युक्त दाँतेदार पहिया, ज्यों ही अपना आवेग दोलक को प्रदान कर चुकता है, उसका संबंध दोलक से भंग हो जाता है। पुन: क्षणिक संबंध तभी स्थापित होता है जब दोलन अपने दोलन की मध्य स्थिति में दुबारा लौटकर आता है। ऐसे पलायन तंत्र को वियुक्त (detached) पलायनतंत्र कहते हैं। आधुनिक घड़ियों में लगे हुए क्रोनोमीटर, या कालमापी, ऐसे ही वियुक्त पलायनचक्र होते हैं। वस्तुत: इसी पर घड़ी की परिशुद्धता और यथार्थता निर्भर करती है।

घड़ी की चक्रप्रणाली (wheel system)- घड़ी में अनेक पहिए लगे होते हैं, जो किसी पतनशील भार या कमानी द्वारा प्रदत्त ऊर्जा से चलते हैं। पतनशील भार द्वारा चलनेवाली घड़ियाँ आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व बनाई गई थीं। इनमें एक बड़े से ढोल (drum) के चारों ओर लिपटे हुए लंबे धागे के छोर से एक भार लटकता हुआ होता था, जो स्वयं नीचे उतरते हुए ढोल को भी घुमाता जाता था। ढोल एक छोटे पहिए से जुड़ा रहता था। यह पहिया स्वयं घूमकर एक बड़े पहिए को अपने दाँतों के सहारे घुमाता था। बड़े पहिए के साथ एक छोटा पहिया घूमता था, जो एक अन्य बड़े पहिए को घुमाता था। यह बड़ा पहिया एक पलायन तंत्र से संबंधित था, जो भार के पतन की गति को नियंत्रित करता था। पलायन चक्र को एक दोलक की सहायता से नियमित गति से घुमाया जाता था। दोलक के दाहिनी ओर से बाईं ओर दोलन के साथ पलायनचक्र क एक दाँत आगे बढ़ता था। इन पहियों में से एक के साथ घंटे की, दूसरे के साथ मिनट की और तीसरे के साथ सेकंड की सूई जुड़ी रहती थी। ये सूइयाँ एक अंकपृष्ठ (डायल) पर घूमती थीं। छोटे पहिए के छ: दांते थे और यह मिनट क सूई से संबंधित था। बड़े पहए में ७२ दाँते थे। इससे घंटे की सूई संबंद्ध थी। इस प्रकर जब छोटा पहिया १२ चक्कर पूरा करता था तब बड़ा पहिया एक चक्कर घूमता था।

चित्र ३. आघात संचालन सहित दीवार घड़ी

(संमुल दर्शन का चित्र।)

आधुनिक घड़ियों में भार और ढोल के स्थान पर फौलाद की एक छोटी सी कमानी लगाई जाती है। कमानी कस दी जाती है। पहियों के घूमने के लिये आवश्यक ऊर्जा इस कमानी के धीरे धीरे खुलने की क्रिया से प्राप्त होती है। छोटी घड़ियों में दोलक के स्थान पर संतुलनचक्र (balance wheel) लगा होता है, जो दाएँ बाएँ घूर्णन करता है। इस घूर्णन को नियंत्रित करने के लिये एक केशकमानी (hair spring) लगी होती है। जब संतुलनचक्र एक दिशा में घूम जाता है तो केशकमानी में ऐंठन उत्पन्न हो जाती है, जो उसे पुन: विपरीत दिशा में वापस लाकर घूर्णन की क्रिया कराती है। घड़ी को निरंतर गतिशील रखने के लिये फौलाद की कमानी को नियत अवधि के बाद पुन: कसकर लपेट दिया जाता है, जिसके लिये एक चाभी होती है। घंटाध्वनि उत्पन्न करनेवाली घड़ियों तथा निश्चित समय पर घंटी की घनघनाहट उत्पन्न करनेवाली सचेतक घड़ियों, अथवा टाइमपीस (alarm timepieces), में घंटाध्वनि उत्पन्न करने की पृथक् व्यवस्था होती है। ऐसी घड़ी के भीतर एक घंटी लगी होती है, जिसपर एक हथौड़े (hammer) की चोट पड़ने पर ध्वनि उत्पन्न होती है। यह हथौड़ा एक भार या कमानी से जुड़ा रहता है, जो इसे निश्चित अवधि पर चलाती है।

विद्युच्चालित घड़ियाँ- ये घड़ियाँ सामान्य यांत्रिक घड़ियों से केवल इस बात से भिन्न हैं कि इनकी कमानियों (या भारों) को पुन: लपेटने के लिये विद्युद्विधि का प्रयोग किया जाता है। विद्युत् द्वारा लपेटने की यह क्रिया या तो लोलक के प्रत्येक दोलन पर, या निश्चित अवधियों के अंतर पर, होती रहती है। छोटी घड़ियाँ विद्युत् बैटरियों की सहायता से चलाई जा सकती है और बड़ी धड़ियाँ विद्युत् मुख्यतार (mains) से जोड़ दी जाती हैं। सरल धारा में ता यह कार्य कठिन नहीं होता, किंतु प्रत्यावर्ती धारा (A. C.) जहाँ होती है वहां विभवपरिवर्तक, या ट्रांसफार्मर, या टेलिक्रॉन (Telchron) का प्रयोग करना पड़ता है। इनके द्वारा प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धारा में परिवर्तित कर दिया जाता है।

परमाण्वीय घड़ियाँ (Atomic Clocks)- विद्युत् घड़ियों के परिष्कृत एवं उत्कृष्ट रूप दाब-विद्युत्-मणिभों (piezzo-electric crystals) के कंपन द्वारा चलनेवाली घड़ियाँ हैं। इनमें स्फटिक के मणिभ को प्रत्यावर्ती धारा (A. C.) द्वारा दोलित कराया जाता है और इन्ही दोलनों के द्वारा घड़ी चलती है।

सन् १९४८ में संयुक्त राज्य, अमरीका, के ब्यूरो ऑव स्टैंडड्सं की ओर से परमाण्वीय घड़ियों का प्रारूप निर्धारित करने की घोषण हुई। ये घड़ियाँ भी दाब-विद्युत्-मणिभयुक्त सामान्य विद्युत् घड़ियों की भाँति होती हैं। अंतर केवल इतना होता है कि इनकी नियंत्रक आवृत्ति (regulating frequency) प्रत्यावर्ती विद्युतद्धारा के बदले उत्तेजित अणुओं या परमाणुओं के स्वाभाविक-अनुस्पंदन-आवृत्ति (natural resonance frequency) द्वारा प्रदान की जाती है। ये आवृत्तियाँ प्राय: १०१० चक्र (cycles) प्रति सेकंड की कोटि की होती हैं। ऐसी परमाण्वीय घड़ियाँ अत्यंत सुग्राही एवं यथार्थ होती हैं और वर्ष में ०.०१ सेकंड तक की भी त्रुटि इनमें नहीं आने पाती।

परमाण्वीय घड़ियों में वांछित अनुस्पंदन आवृत्ति प्राप्त करने के लिये अभी तक तीन उपायों पर विचार किया गया है: (१) परमाणु सीजियम की मूल (अर्थात् निम्नतम ऊर्जा की) अवस्था की अति सूक्ष्म संरचना द्वारा। यह संरचना नाभिक के चुंबकीय घूर्ण के कारण वर्णक्रम रेखाओं के खंडन से प्राप्त होती है। इसकी आवृत्ति लगभग ९,१९२ मेगासाइकिल प्रति सेकंड (Mc/s) होती है। (२) रुबीडियम धातु की मूल अवस्था की अति सूक्ष्म संरचना द्वारा, जिसकी आवृत्ति ६,८३५ मे.सा./से. होती है; और (३) एमोनिया-परमाणु की उत्क्रमण आवृत्ति (inversion frequency) के द्वारा, जिसकी आवृत्ति २३,८७० मे.सा./से. होती है।

उपर्युक्त आवृत्तियों द्वारा स्फटिक मणिभ की आवृत्ति का नियंत्रण किया जाता है। स्फटिक मणिभ का दोलन कुछ किलो-साइकिल (प्राय: लगभग १०० किलो-साइकिल) मात्र होता है। उसे किसी आवृत्तिवर्धक शृंखला द्वारा बढ़ाकर अत्यंत उच्च आवृत्तिवाले संकेतों में परिवर्तित कर लिया जाता है। यह आवृत्ति प्राय: उसी कोटि की होती है जिस कोटि की नियंत्रक आवृत्ति होती है। यदि स्फटिक मणिभ की दोलन आवृत्ति नियंत्रक आवृत्ति की तुलना में काफी कम होती है, तो उसे नियंत्रक आवृत्ति की कोटि तक पहुँचने के लिये ऐसी घड़ियों में एक स्वयंचालित व्यवस्था होती है, जिसे त्रुटिसंकेतक (error signal) कहते हैं। यह व्यवस्था त्रुटिपरिमार्जक का भी कार्य करती है। भिन्न भिन्न होता है।

अभी तक परमाण्वीय घड़ियों का स्थूल रूप समाने नहीं आ सका है, किंतु इसमें संदेह नहीं कि साकार होने पर यह कालमापन का सर्वोत्कृष्ट उपकरण होगा।

(सुरेश चंद गौड़ै.)