ग्लाइडिंग का अर्थ है 'मँडराना'। वायु से भारी, वायुयान सदृश, किंतु इंजन रहित, एक यान (craft) ऊपर से छोड़ दिए जाने पर वायु में मँडराता हुआ धीरे धीरे धरती की ओर जाता है। इस यान का 'ग्लाइडर और इसकी अवरोहण क्रिया को ग्लाइडिंग कहते हैं। सामान्यतया ग्लाइडिंग क्रिया के दो भाग होते हैं : प्रथम, ग्लाइडर को ऊपर उठती हुई पवनधाराओं के सहारे ऊपर उठाना और दूसरा उसे वायु में धीरे धीरे तैराते हुए पृथ्वी की ओर ले आना। पहली क्रिया को सोरिंग (soaring) उड़ान और दूसरी को ग्लाइडिंग उड़ान कहते हैं। वायुयान के आविष्कर के क्रम में ग्लाइडर का आविष्कार ही प्रथम चरण था।
चित्र १. लीलिएंथाल का ग्लाइडर
यह आद्य यंत्र सन् १८८९ में बनाया गया। चालक सहित उड़ते समय यह बड़े फतिंगे सदृश दिखाई पड़ता था।
प्रथम महत्वपूर्ण ग्लाइडिंग उड़ान १८९१ ई. में ओटो लिलिएंथाल ने संपन्न करने का प्रयत्न किया। अपनी दोनों भुजाओं में डैने बाँध, कर उसने पक्षियों की भाँति उड़ने का प्रायोग किया। ऊँचाई से वह डैने फड़फड़ाते हुए उड़ तो चला, किंतु अपने शरीर का संतुलन बनाए न रख सकने के कारण कुछ दूर तक उड़ने के उपरात भूमि पर गिर पड़ा। उसे सांघातिक चोट आई और अंत में वह मर गया। उसके बाद इंग्लैड के परसी पिचर ने क्षैतिज डैने लगाकर लिलिएंथाल के प्रयोग को दुहराया, किंतु वह भी अंत में उसी गति को प्राप्त हुआ।
१८९६ ई. में अमरीका के ऑक्टेव शेन्यूट (Octave Chanute) ने नए प्रकार क ग्लाइडर बनाया। इसमें चालक के बैठने के लिये स्थान बना हुआ था और ग्लाइडर के निंयत्रण के लिये पतवार (rudder) तथा जुड़वाँ (articulated) डैने लगे हुए थे। ये डैने इस प्रकार बने हुए थे कि इन्हें ऊपर, नीचे और आगे पीछे इच्छानुसार दोलन कराया जा सकता था, ठीक उसी प्रकार जैसे उड़ते समय पक्षी अपने डैने चलाते हैं। यह ग्लाइडर इतना स्थायी एवं संतुलित था कि उसपर शेन्यूट ने दो हजार उड़ानें बिना किसी प्रकार की दुघर्टना के पूरी कीं।
१८८३ और १८९४ ई. के बीच अमरीका के एक अन्य उड़ाके, मांटगोमरी, ने ग्लाइडर में ऐसे डैन लगाए जिन्हें वायु के प्रवाह की तीव्रता या मंदता में संतुलित रखने के लिये मोड़ा या फैलाया जा सकता था। इस ग्लाइडर पर उसने कई प्रयोगात्मक उड़ानें भरीं और उसमें यथावश्यक सुधार भी करता रहा। अंत में उसने अत्यंत उत्कृष्ट कोटि का ग्लाइडर बनाया, जिसकी सफल एवं ऐतिहासिक उड़ान २९ अप्रैल, १९०५, को संपन्न हुई। पहले वह इस ग्लाइडर को गरम वायु से भरे गुब्बारे के सहारे आकाश में लगभग ४,००० फुट की ऊँचाई तक ले गया। फिर गुब्बारे से उसे वियुक्त कर दिया। लगभग २० मिनट तक पवनाभिसार करने के उपरांत वह ग्लाइडर सकुशल भूमि पर उतर आया।
चित्र २. राइट बंधुओं द्वारा निर्मित प्राथमिक ग्लाइडर
विश्वविश्रुत वैमानिक, राइट बंधुओं ने भी १९२० ई. में एक अत्यंत उत्तम ग्लाइडर का निर्माण किया, जिसमें क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर दो पतवार लगे हुए थे। इन्हें मनचाहे ढंग से घुमाया तथा नियंत्रित किया जा सकता था। इसमें लगे हुए डैनों को ऐंठ (warp) करके ग्लाइडर को उड़ान के समय अवश्यकतानुसार नियंत्रित किया जा सकता था। इस ग्लाइडर से उन्होंने सहस्रों सफल एव निर्विघ्न उड़ानें भीं। यही ग्लाइडर आगे चलकर शक्तिचालित वायुयानों की भूमिका बना।
ग्लाइडर की उड़ान - वायु में ग्लाइडर का अवतरण (Iaunching) तीन प्रकार से किया जाता है :
चित्र ३. धातु से बने ग्लाइडर की उड़ान का आरंभ।
ग्लाइडर के अवतरित करने के लिये ऐसा स्थल चुना जाता है जहाँ पवन की ऊर्ध्वधाराएँ (upward currents) चलती हों। शांत वायुमंडल में, अथवा जहाँ वायु के क्षैतिज प्रवाह क गति समरूप होती है वहाँ ग्लाइडर के अवरोहण की गति प्राय: दो या तीन फुट प्रति सेकंड होती है। यदि वायु का ऊर्ध्व वेग इससे अधिक होता है, ता ग्लाइडर काफी ऊँचाई तक जा सकता है। ऊँचे स्थान से छोड़े जाने पर ग्लाइडर नीचे उतरने की ओर प्रवृत्त होता है, किंतु गरम वायुसमूह में पड़ने पर वह उस वायु के साथ उपर चढ़ने लगता है। यह वायु तप्त धरती, या चट्टानों, अथवा हरे भरे खेतों से गरम होकर ऊपर उठती है। इसलिये उष्ण वायुसमूह ग्लाइडिंग के लिये अनुकूल होता है। ग्लाइडर चालक (pilot) वैरियोमापी (Variometer) नामक यंत्र द्वारा यह पता लगाता रहता है कि उसका ग्लाइडर उष्ण वायुसमूह में पहुंचा या नहीं और जब वह पहँुच जाता है ते उसके साथ ग्लाइडर को ऊपर चढ़ाने के हेतु वह उस वायुसमूह का पूर्ण रूप से उपयोग करने का प्रयत्न करता है। इस उड़ान को उष्मीय उड़ान (thermal flight) कहते हैं। इस विधि से ग्लाइडर दीर्घ अवधि तक वायु में उड़ सकता है और एक उड़ान में ५०० मील या इससे भी अधिक दूरी पार कर सकता है।
चित्र ४. उड़ान भरता हुआ ग्लाइडर।
इस प्रकार ग्लाइडर के वायु में आरोहण की क्रिया का सोरिंग कहते हैं। इससे भी अधिक ऊँचाई तक ग्लाइडर शीतल वायुसमूहाग्र (cold wave front) के सहारे चढ़ जाते हैं। ऊपर उठती हुई उष्ण वायु की जब आगे बढ़ती हुई शीतल वायु समूहाग्र से मुठभेड़ हो जाती है, तो वह उष्ण वायु को ऊपर की ओर ठेलती है। इन दोनों की संधि पर ही क्युमुलस मेघों को सृष्टि होती है। इस स्थिति में आने पर उष्ण वायु के साथ ग्लाइडर अधिक ऊँचाई तक चढ़ जाता है। क्युमुलस मेघसमूह में पड़कर ग्लाइडर धीरे धीरे चक्कर काटता हुआ उष्ण वायु के साथ अंत्यत तीव्र वेग से (प्राय: २,००० फुट प्रति मिनट या इस से भी अधिक वेग से) ऊपर चढ़ता है। इस विधि से १९३८ ई. में ई. जिलर २८,००० फुट की ऊँचाई तक पहुंच गया था और साढ़े चार घंटे तक उसने व्योमाभिसार किया। सन् १९३९ में जी. एच. स्टीफेन्सन ने इंग्लिश चैनेल (English Channel) पार करने में सफलता प्राप्त की। इधर कुछ उड़ाकों ने इस विधि से ४४,००० फुट की ऊँचाई तक उड़ानें भरी हैं।
सफल ग्लाइडिंग उड़ानों की अर्हताएँ- सफल ग्लाइडिंग उड़ान के लिये तीन बातें आवश्यक हैं :
शांत वायु में आवश्यकता (१) पूरी करने के लिये ग्लाइडर का अवतरण (ग्लाइडिंग) कोण न्यूनतम होना चाहिए। यह कोण क्षितिज से २५ स १ के अनुपात से होना चाहिए, अर्थात् २५ फुट की ढाल पार करने पर ग्लाइडर का ऊर्ध्व आरोहण १ फुट होना चाहिए। आवश्यकता (२) की पूर्ति न्यूनतम अवरोहण गति (जो प्राय: २ या ३ फुट पति सेकेंड होती है) द्वारा की जाती है। न्यूनतम हो ता ग्लाइडर का क्षैतिज वेग लगभग ७५ फुट प्रति सेकेंड होगा।
ग्लाइडर की रचना - ग्लाइडर की आकृति लगभग वायुयान के सदृश हो होती है। यह प्राय: झाऊ (spruce) और प्लाई लकड़ियों से बनाया जाता है। इसके डैने सीधे होते हैं, जिसमें मँडराते समय उनपर वायु की दाब सर्वत्र समान पड़े। ये डैने सरलता से अलग निकल लिए जा सकते हैं, क्योंकि बहुधा उड़ानों का अंत दूरस्थित ऐसे स्थानों में होता है जहाँ से पुन: उड़ान आरंभ करना संभव नहीं होता। इसलिये डैने अलग कर लिए जात हैं और ग्लाइडर का पूरा ढांचा मोटर इत्यादि पर लादकर वापस लाया जा सकता है।
ग्लाइडर का उपयोग मुख्यत: वायुयान चालकों को प्रशिक्षण देने के हेतु किया जाता है, ताकि वे धरती के ऊपर उड़ते समय वायुमंडलीय दशाओं से पूर्णतया अभ्यस्त हो जायें और वायुयानों के नियंत्रणाकला से भी सुपरिचित हो जायें। इनका उपयोग सामरिक दृष्टि से युद्धकाल में किया जाता है। (सुरो चंद गौड़)