ग्रहण सधारणतया सूर्यग्रहण की तुलना में चंद्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, पर वास्तव में सूर्यग्रहण की संख्या चंद्रग्रहण से अधिक होती है। तीन चंद्रग्रहण पर चार सूर्यग्रहण लगते हैं।

इसका कारण यह है कि चंद्रग्रहण पृथ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पड़ते हैं जबकि सूर्यग्रहण पृथ्वी के बहुत थोड़े भाग में, एक सौ मील से कम चौड़े और दो से तीन हजार लंबे क्षेत्र में ही दिखलाई पड़ते हैं।

जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में आता है तब सूर्य की किरणें पृथ्वी के कुछ भागों पर पहुँचने में असमर्थ होती हैं और तब पृथ्वी के उन भागों पर सूर्यग्रहण लगता है। उस समय सूर्य पर दिखलाई देनेवाला काला मंडल स्वयं चंद्रमा का होता है।

जब सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी आ जाती है तथा चंद्रमा पृथ्वी की छाया में होकर निकलता है तभी चंद्रग्रहण लगता है। चंद्रग्रहण के समय जो काला मंडल चंद्रमा को ढकता हुआ दिखलाई पड़ता है वह पृथ्वी की छाया का होता है। चंद्रमा जब इस छाया में होकर जाता है, जैसा चित्र १ में दिखाया गया है, तब पृथ्वी के बाई ओर वाले आधे भाग पर रहनेवाले मनुष्यों को चंद्रग्रहण दिखाई देगा।

चित्र १. चंद्रग्रहण

पृथ्वी पृ. की परिक्रमा करता हुआ चंद्रमा चं. पृथ्वी की छाया में से होकर जाता है। प्र. प्रच्छाया; उ. उपच्छाया; प. चंद्रमा का पथ तथा सू. सूर्य।

पृथ्वी की जो परछाई चंद्रमा पर पड़ती है उसका स्वरूप ऐसा नहीं होता जैसा दीवार पर पड़नेवाली हमारी परछाई का होता है। यदि हम किसी लैंप और दीवार के बीच में खड़े हो जाँय तो दीवार पर हमारी जो परछाईं पड़ेगी वह तलाकार होगी, किंतु चंद्रग्रहण के समय पृथ्वी की परछाईं का रूप काले ठोस शंकु के समान होता है। आकाश में फैली हुई पृथ्वी की यह छाया लगभग ८,५७,००० मील लंबी होती है। इसकी लंबाई पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी के ऊपर निर्भर रहती है। यह दूरी घटती बढ़ती रहती है। इसी कारण यह परछाईं भी कभी ८,७१,००० मील और कभी केवल ८,४३,००० मील ही लंबी होती है। शंकु रूपी इस प्रच्छाया (umbra) के साथ ही साथ शंकु के रूप में उपच्छाया (penumbra) भी रहती है।

चंद्रग्रहण सर्वदा पूणिंमा की रात्रि में लगता है। इसका कारण यह है कि पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर तभी पड़ सकती है जब चंद्रमा, पृथ्वी तथा सूर्य तीनों एक ही सीध में हों, जैसा चित्र १. से विदित होगा। ऐसा केवल पूर्णिमा के समय ही हो सकता है। चंद्रमा अपने पथ का अनुसरण करता हुआ जब पृथ्वी की उपच्छाया के अंदर प्रविष्ट होता है उस समय कोई विशेष परिवर्तन होता नहीं दिखाई देता, परंतु जैसे ही वह पृथ्वी की प्रच्छाया के समीप आता है उसपर ग्रहण प्रतीत होने लगता है और जब उसका संपूर्ण भाग प्रच्छाया के भीतर आ जाता है तब पूर्ण ग्रहण अथवा पूर्णग्रास चंद्रग्रहण लग जाता है।

चित्र २. सूर्यग्रहण

चंद्रमा की छाया पृथ्वी पृ. पर पड़ती है। प्रच्छाया (घनी छाया) वाले भाग प्र. में पूर्ण ग्रहण, किंतु उपच्छाया वाले भाग उ. में अपूर्ण ग्रहण दिखाई देता है।

ग्रहण के समय भी चंद्रमा बिल्कुल अदृश्य नहीं हो जाता, वरन् कुछ लालिमा लिए हुए धुँधला ताँबे के रंग का दिखाई पड़ता है। ऐसा होने का कारण यह है, कि सूर्य की कुछ किरणें पृथ्वी के वायुमंडल द्वारा परावर्तित होकर मुड़ जाती हैं तथा चंद्रमा तक पहुँचने में समर्थ हो जाती हैं। इन्हीं किरणों के द्वारा हम पूर्णग्रहण के समय भी चंद्रमा को देख सकते हैं। ये किरणें जब पृथ्वी के वायुमंडल में होकर गुजरती हैं तब वायुमंडल इन किरणों के नीले भाग का शोषण कर लेता है, तथा जो किरणें शेष रहती हैं, वे लाल रंग की होती हैं। ये ही किरणें उस समय चंद्रमा पर पड़ती हैं, जिनके कारण वह पूर्णग्रास ग्रहण के समय लाल दिखाई पड़ता है।

ग्रहण की अवधि चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी के ऊपर निर्भर है। कभीपृथ्वी की छाया उस स्थान पर, जहाँ चंद्रमा उसे पार करता है, चंद्रमा के व्यास के तिगुने से भी अधिक होती है। छाया की चौड़ाई इस स्थान पर जितनी अधिक होती है उतने ही अधिक काल तक चंद्रग्रहण रहता है। पूर्णग्रहण की अवधि दो घंटे तक की हो सकती है तथा ग्रहण का पूरा काल चार घंटे तक का हो सकता है।

ग्रहण के समय चंद्रमा की गर्मी भी प्रकाश के साथ ही साथ कम होती है तथा जिस समय पूर्णग्रास हो चुकता है उस समय ९८ प्रतिशत से भी ज्यादा उष्मा अवरुद्ध हो चुकती है। शेष २ प्रतिशत उष्मा का भी आधा हिस्सा ग्रासकाल में लुप्त हो जाता है, किंतु जैसे ही चंद्रमा छाया के बाहर आता है वैसे ही उसकी उष्मा उतनी ही शीघ्रता से फिर बढ़ जाती है जितनी शीघ्रता से वह कम हुई थी। इससे सिद्ध होता है कि चंद्रमा की सतह उष्मा का शोषण करके उसे इकट्ठा करने में बिल्कुल असमर्थ है, जिसका विशेष कारण चंद्रमा पर वायुमंडल का न होना ही है।

वर्ष भर में चार सूर्यग्रहण तथा दो चंद्रग्रहण हो सकते हैं; किंतु बहुत समय के पश्चात्, लगभग दो शताब्दियों के कालांतर पर, कुल मिलाकर सात ग्रहण होना भी संभव है, जिनमें चार सूर्यग्रहण तथा तीन चंद्रग्रहण या पाँच सूर्यग्रहण तथा दो चंद्रग्रहण होंगे। कम स कम दो ग्रहण होना प्रति वर्ष अनिवार्य है। जिस वर्ष केवल दो ही ग्रहण होंगे उस वर्ष दोनों सूर्यग्रहण ही होंगे।

जिन लोगों को ग्रहण का वास्तविक कारण नहीं मालूम है, उनके हृदय में ग्रहण को देखकर भय का संचार होना स्वाभाविक है। सन् १५०४ ई. की घटना है, जब अमरीका को ढूँढ निकालनेवाला प्रसिद्ध जलयात्री कोलंबस भटकता पश्चिमी द्वीपसमूह में जा पहुँचा था। वहाँ के निवासियों ने उसको खाने के लिये कुछ भी देने से बिल्कुल इनकार कर दिया था। उसकी तथा उसके साथियों के भूखों मरने तक की नौबत आ गई। इस समय कोलंबस को एक अनोखी युक्ति सूझी। उसे यह ज्ञात था कि इस वर्ष १ मार्च को चंद्रग्रहण होगा। उसने इसी ज्ञान के बल पर वहाँ के वासियों को धमकी दी कि यदि वे उसको खाने के लिये कुछ न देंगे तो वह उन्हें चंद्रमा के प्रकाश से वंचित कर देगा। इस कथन पर उन्होंने कुछ ध्यान नहीं दिया, किंतु रात्रि को जब चंद्रमा के उदित होने के कुछ देर पश्चात् ग्रहण लगना आरंभ हो गया तब तो वहाँ के निवासी अत्यधिक भयभीत होकर दौड़े दौड़े आए और कोलबंस के पैरों पर गिरकर प्रार्थना करने लगे कि वे उसकी सब इच्छाएँ पूर्ण करने को तत्पर हैं। इस प्रकार कोलंबस अपने तथा अपने साथियों की प्राणरक्षा कर सका।

चित्र ३. बृहस्पति के उपग्रहों के ग्रहण

वृ. ग्रह बृहस्पति तथा उ., उ., उ.......इत्यादि इसकी परिक्रमा करनवाले एक उपग्रह की क्रमानुसार स्थितियाँ हैं। सू. सूर्य से आनेवाला प्रकाश बाई ओर से इस मंडल पर गिरता है, किंतु पृथ्वी पृ. की दिशा से यह ग्रह और उसके उपग्रह दिखाई पड़ते हैं।

ग्रहण लगना केवल चंद्रमा अथवा सूर्य तक ही सीमित नहीं है, वरन् ग्रहों और उपग्रहों में भी (चंद्रमा हमारी पृथ्वी का उपग्रह ही है) यह घटना घटित होती हुई देखी जा सती है। इसके लिये केवल दूरबीन का सहारा लेना होगा।

गणित द्वारा आगामी सहस्त्रों वर्षो में होनेवाले ग्रहणों की तिथि, अवधि और ठीक ठीक समय निकाला जा सकता है। वर्तमान विज्ञान के लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, परंतु हमारे पूर्वज आज से बहुत काल पहले ग्रहणों आदि का ठीक समय निकाल लिया करते थे। उनके लिये यह बड़े गौरव की बात है। (प्राणनाथ)