गृह्यसूत्र प्राचीन वैदिक साहित्य की विशाल परंपरा में अंतिम कड़ी सूत्रग्रंथ हैं। यह सूत्र साहित्य तीन प्रकार का है: श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र। अधिकांश प्रमुख सूत्रग्रंथों की रचना गौतम बुद्ध के समकालिक युग में हुई जान पड़ती है, विद्वानों ने उनके पूर्ण विकास का समय ८वीं सदी ई. पू. और तीसरी सदी ई. पू. के बीच माना है। श्रौतसूत्रों के वर्ण्य विषय यज्ञों के विधि विधान और धार्मिक प्रक्रियाओं से संबंधित हैं। साधारण समाज के लिए उनका विशेष महत्व न था। गृह्य और धर्मसूत्रों की रचना का उद्देश्य सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक और विधि संबंधी नियमों का निरूपण है। तत्संबंधी प्राचीन भारतीय अवस्थाओं की जानकारी में उनका बहुत बड़ा ऐतिहासिक मूल्य है। गृह्यसूत्रों में मुख्य हैं: कात्यायन, आपस्तंब, बौधायन, गोभिल, खादिर और शांखायन। इनके अलग अलग सिद्धांत संप्रदाय थे परंतु कभी कभी उन सबमें वर्णित नियम समान हैं। संभव हैं, उनके भेद स्थानीय और भौगोलिक कारणों से रहे हों और इस दृष्टि उन्हें समसामयिक भारत के अन्यान्य प्रदेशों का प्रतिनिधि माना जा सकता है। गृह्यसूत्र श्रौत (अपौरूषेय अथवा ब्रह्म) न माने जाकर स्मार्त समझे जाते हैं और वे पारिवारिक तथा सामाजिक नियमों की परंपरा को व्यक्त करते हैं। गृह्य सूत्रों में पारिवारिक जीवन से संबंधित संस्कारों का विवेचन है और वे कैसे किए जाने चाहिए, इसके पूर्ण विधि विधान दिए गए हैं। गर्भाधान से आरंभ कर अंत्येष्टि तक सोलह संस्कारों का विधान गृह्यसूत्रों के युग से ही अपने पूर्ण विकसित रूप में भारतीय जीवन का अंग बन गया तथा उन संस्कारों की धार्मिक और दार्शनिक भावनाओं का विकास हुआ। आज भी ये संस्कार, जिनमें मुख्य जातकर्म उपनयन, विवाह और अंत्येष्टि (श्राद्धसहित) माने जा सकते हैं, हिंदू जीवन में बड़ा स्थान रखते हैं। पर इन संस्कार व्यवस्थाओं के साथ ही गृह्यसूत्रों में कभी अंधविश्वासों को भी शामिल कर लिया गया है गृहस्थ जीवन से संबंधित कुछ अन्य धार्मिक कर्तव्यों की भी उनमें चर्चा है। (विशुद्धानंद पाठक.)