गृह मानव ने अपने निवास के लिए घर बनाना कब और कैसे प्रारंभ किया, इसकी कल्पना मात्र की जा सकती है। गृह मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है, अत: मानव सभ्यता का इतिहास ही घर की कहानी है और सभ्यता के विभिन्न सोपानों पर स्थित विभिन्न जातियों के गृहों को देखकर उन सभी अवस्थाओं का अनुमान किया जा सकता है जिनसे उस स्थान की कोई अन्य जाति पार हो चुकी होगी। स्पष्ट है कि पाषाणकाल में, कम से कम समशीतोष्ण प्रदेशों में तो अवश्य, मनुष्य प्राकृतिक गुफाओं में ही रहता था। उस समय भी उसने उन्हें सजाने के प्रयत्न किए होंगे, जैसा कि फ्रांस और उत्तरी स्पेन में कहीं कहीं पाई जानेवाली गुफाओं के भित्तिचित्रों से प्रकट होता है। यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वन्य जातियों ने गर्म देशों में झोपड़ी जैसी कोई चीज जरूर बनाई होगी। कुछ आदिम जातियाँ अब भी झोपड़ियाँ बनाती हैं। अमरीका की इंडियन जाति गुंबदनुमा ढाँचे पर चमड़ा लगाकर अपनी विगवाम नामक झोपड़ी बनाती है। दक्षिणी भारत के टोडा आदिवासियों की बाँस और सरपत की लंबी गुंबदनुमा झोपड़ी का भी प्राय: यही रूप होता है।

धीरे-धीरे गुफावासियों ने अनुभव किया होगा कि गुफा के आगे कुछ पत्थर (दीवार की भाँति) रखकर और मध्यवर्ती स्थान पर लकड़ी या चमड़े की छत सी बनाकर गुफा को और बड़ी तथा आरामदेह बनाया जा सकता है। संसार के विभिन्न भागों में ऐसी विकसित गुफाओं में धीरे धीरे और भी सुधार होते रहे। इस प्रकार झोपड़ियों में आज के लकड़ी के मकान का तथा गुफाओं में आधुनिक पक्के मकानों का बीजरूप मिलता है। प्रारंभ में शायद एक ही कमरा होता था, किंतु जैसे जैसे सभ्यता फैली जीवन जटिलतर होता गया, निवास के और भाग विभाग होने लगे। इसके लिए अनेक गोल झोपड़ियों को पास पास एक ही घेरे के भीतर बनाया जाने लगा। ऐसी ही झोपड़ियों के, जो शायद घास फूस और कभी कभी कच्ची ईटों की भी हुआ करती थीं, फर्श और नीवों के अवशेष अनेक स्थानों पर मिले हैं, जिन्हें उत्तर पाषाणयुगीन बताया जाता है।

ऐसी अवस्था संसार के विभिन्न भागों में भिन्न भिन्न समयों पर थी। यूनान, मिस्र और रोम में सभ्यता का उदय सबसे पहले हुआ माना जाता है। वहाँ पाषाणकाल २०वीं ३०वीं शती ई. पू. कूता जाता है। पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार भारत में १०वीं १५वीं शती ई. पू. में आर्यों ने आक्रमण किया। उस समय वे उत्तरपाषाण काल से गुजर रहे थे। तथा झोपड़ियों या गुफागृहों में रहते थे। किंतु हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में प्राप्त सुनिविष्ट विशाल नगरों के अवशेषों ने उन्हें यह मानने को बाध्य कर दिया है कि भारत में भी २०वीं ३०वीं (या ४०वीं) शती ई. पू. में उत्कृष्ट कोटि की सभ्यता विद्यमान थी।

हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और सिंधुघाटी की अन्य पुराकालीन नगरियाँ बड़े बड़े व्यापारियों की बस्तियाँ थीं, जो नागरिक जीवन और भौतिक सुविधाओं के प्रति जागरूक रहते हुए उच्च कोटि की सामाजिकता का निर्वाह करते थे। उनके सादे और प्रयोजनात्मक भवन प्राय: निवास, गोदाम, स्नानागार, या कुएँ होते थे। बड़े महल या मंदिर होने के कोई चिह्न नहीं मिलते। नालियों की व्यवस्था ऐसी उच्च कोटि की थी, जैसी अनेक आधुनिक भारतीय शहरों में भी नहीं पाई जाती। दीवारों में से ईटों के निकास बढ़ा बढ़ाकर डाटें बनाई जाती थीं। भारत के अन्य भागों में भी शायद उस समय पत्थर के बड़े बड़े खंभों पर बड़ी बड़ी शिलाएँ रखकर कृत्रिम गुफागृह बनाए जाते थे; और यह भी माना जा सकता है कि स्थानीय लकड़ी की, आदिकालीन स्वरूप की वास्तुकला भी विद्यमान थी।

वैदिक साहित्य में वर्णित प्रसंगों से स्पष्ट है कि उस समय ईटं, पत्थर, और लकड़ी का प्रयोग सामान्य तथा कलापूर्ण भवननिर्माण के लिए होता था। बौद्ध धर्म का प्रसार जब उत्तर पश्चिम (गांधार) की ओर हुआ तो तद्देशीय उत्तर-पुरा-कालीन संस्कृति के संपर्क में आने से धार्मिक तथा अन्य भवनों के निर्माण पर पश्चिमी प्रभाव पड़ा, जिसकी छाप कश्मीर की मध्यकालीन वास्तुकला पर भी दिखाई पड़ती है। यूनानी (डोरिक) पद्धति की प्रतीक चतुर्मखी तोरणावली और स्तंभशीर्ष प्रयुक्त होने लगे। संधिबंध के लिए मसाला (गारा या चूना) तथा डावेलों (खूंटियों या कीलों) का प्रयोग भी आरंभ हुआ। इससे पहले की भारतीय निर्माणकला परंपरागत, सूखी चिनाई तक ही सीमित थी, जहाँ सभी रद्दे एक दूसरे पर बिना मसाले के ही रखे जाते थे और भार सीधे नीचे की ओर ही पड़ता था।

गुप्तकाल (३२०-६०० ई.) में देश भर में निर्माणशक्ति के अनेक स्रोत फूट निकले और भारतीय वास्तुकला, जिसका चरम विकास गुफागृहों (अजंता, इलोरा आदि) या स्तूपों (साँची आदि) के निर्माण में पहुँच चुका था, सुंदर स्तंभों से अलंकृत चिपटी छतोंवाले चौकोर मंदिरों को रूप देने लगी। कभी कभी छत के ऊपर एक छोटी कोठरी भी बनाई जाने लगी। जो बाद में दक्षिण के मंदिरों में शिखर के रूप में विकसित हुई।

१०-१३ शती ई. के मंदिरनिर्माण के महायुग की यूरोप के समसामयिक रोमनेस्क और गॉथिक युगों से तुलना की जा सकती है। उत्तरी या आर्य-पद्धति का जोर ऊँचाई की ओर था, जिससे खजुराहो (मध्यप्रदेश) और भुवनेश्वर (उड़ीसा) की प्रभावशाली कृतियाँ प्रकट हुई। दक्षिणी या द्रविड़ पद्धति का जोर क्षैतिज विस्तार की ओर था, जिससे मुख्य मंदिरों में स्तंभबहुल मंडप तथा अनेक गोपुरों से युक्त विशाल घेरोंवाले प्रांगण सम्मिलित किए गए। गृहनिर्माण के लिए विकसित निर्माणकला का प्रयोग राजपूताना के राजमहलों और सांमतों के निवासों में मिलता है, जहाँ विशाल भवन भीतर बाहर से बिलकुल सादे हैं, किंतु खिड़कियों, द्वारों, छज्जों, गवाक्षों और शिखरों में सुंदर कारीगरी की हुई है। घरों के मुखभाग को नीचे से ऊपर तक अलंकृत करनेवाला अहमदाबाद का लकड़ी की खुदाई का काम गुजराती कला की विशिष्टता है।

तोरण और गुंबद (द्रं. गुंबद) का प्रयोग मुसलमानी कला की देन है, जिसने हिंदू कला को अपने साँचे में ढाल लिया। अकबर ने दोनों के एकीकरण का महाप्रयास किया। जहाँगीर काल में लाल पत्थर और संगमरमर का सम्मिलित प्रयोग हुआ, जो शाहजहाँ (१६२७-५८ ई.) के लाल किला (दिल्ली) और ताजमहल (आगरा) के रूप में मानो परी महल ही धरती पर उतार लाया। मुसलमानी कला की विशेषता विशाल उद्यान, जालशय, जलसूत्र (जो महलों के बीच में लहराते थे) और ऊँचे दरवाजे हैं।

यूनान, मिस्र और रोम की सभ्यता भी तद्देशीय निर्माणपद्धति को प्रभावित करती हुई विकसित हुई। नासास में १५वीं शती ई. पू. के महलों के खंडहर मिले हैं, जिनमें लकड़ी का प्रयोग हुआ प्रतीत होता है। मिस्र के देर-अल्-बाहरी के मंदिर तथा बेनी हसन के मकबरे ३० वीं शती ई. पू. के बने कूते जाते हैं। तेल-अस-सुल्तान में प्राप्त घरों और मंदिरों के अवशेष जेरिको नामक नगर के माने जाते हैं, जिसे इसराइलियों ने संभवत: १४ वीं शती ई. पू. के आक्रमण करके नष्ट कर दिया था। मरा सागर के उत्तर में जॉर्डन घाटी में एक नगर का पता लगा है, जो पूर्व-ताम्र-काल (२५ वीं से १९ वीं शती ई. पू.) का समझा जाता है। अलजीरिया में रोमन सेनानियों को बसाने के लिए लगभग पहली शती ई. में परंपरागत रोमन शैली में निर्मित घरों के अवशेष मिलते हैं। ईरान की राजधानी तेजीफन में, जो सन् ६३७ ई. में बुरी तरह नष्ट हो गई थी, ऊँची और चौड़ी डाटदार छतें भी बनने लगी थीं। यूनानी शैली में एशियाई शैली की छाप भी स्पष्ट दिखाई देती है।

किंतु इन सबसे उन देशों के जनसाधारण के घरों पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता। संभवत: पश्चिम में भी कला का विकास गिरजाघरों और धनिकों के महलों तक ही हुआ। किंतु महान् औद्योगिक क्रांति के साथ साथ पाश्चात्य जगत में, विशेषकर कसबों और नगरों में, गृह निर्माण शैली में भी क्रांति आई। द्रुत गति से नए नगर बसे, द्रुततर गति से उनकी आबादी बढ़ी तथा जलसंभरण, शौचाल्य और प्रकाश संबंधी नवीन सुविधाओं के कारण जीवनस्तर भी उठा। इन सभी ने अपना प्रभाव दिखाया और आवास समस्या सामने आई। सरकारों ने योजनाएँ बनाईं, नियम बनाए और न्यूनतम स्तर निर्धारित किए। फलत: गगनचुंबी इमारतें, जिनमें जनसामान्य के आवास की भी व्यवस्था है, प्रकट हुई। बड़े बड़े महलों के स्थान पर सस्ते और छोटे, किंतु सुविधाओं से युक्त, घर बनने लगे।

भारत में अंग्रेजों के आने पर राजधानियों में विशाल महल और कार्यालय आदि बने, जिनमें पौर्वात्य और पाश्चात्य कला का सुंदर सम्मिश्रण मिलता है। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् सर्वतोमुखी औद्योगिक विकास के साथ सामान्य घर भी बनाए जाने लगे। ऊँची इमारतें बनीं तथा श्रमिकों और ग्रामीणों के लिए घर बनाने के सरकारी प्रयास होने लगे। प्रत्येक प्रांत में सरकार ने गृहनिर्माण के लिये ऋण योजना आरम्भ की है, जिसके अंतर्गत छोटी किस्तों में ऋणभुगतान की व्यवस्था है। थोड़ी आयवालों के लिए दो कमरों के एक आदर्श गृह का प्रारूप चित्र २ या ३ में दिखाया है।

एशिया में अब भी शताब्दियों पुरानी शैलियाँ अपनाई जा रही हैं। स्तंभों से घिरे आँगन और पटी छतवाला मोरक्को का आधुनिक गृह प्राचीन रोम और सीरिया की आँगनवाली शैली का ही वंशज है। बाहरी और भीतरी (हरम) दो भागों में घर का विभाजन रोम की प्राचीन परंपरा की अनुकृति है। मिस्र और टर्की में अलबत्ता खुले आँगन रखने की प्रथा उठती जा रही है, किंतु वहाँ के गठे हुए अभिकल्पवाले घरों में भी प्राय: केंद्र में एक बड़ा कक्ष होता है, जिसमें फव्वारा रखना पसंद किया जाता है। यह भी जलाशययुक्त खुले आँगन का प्रतिरूप ही लगता है।

प्रत्येक स्थान की गृह-निर्माण पद्धति स्थानीय परिस्थितियों, यथा प्राकृतिक दशा, जलवायु, उपलब्ध साधन सामग्री तथा निवासियों की आर्थिक क्षमता से निर्देंशित होती है। भूकंपों द्वारा हानि से बचने के लिए जापानी कागज का अधिक प्रयोग करते हैं। खिसकाई जा सकनेवाली अंतर्भित्तियाँ (पर्दे) और लकड़ी का अधिक प्रयोग इनकी विशेषता है। ये घर को सुघड़, सुखद, शानदार, और चित्ताकर्षक बनाते हैं। इसके विपरीत चीन में आँगन रखने की परिपाटी अब भी है। स्तंभों से युक्त दालान तथा तुलयदर्शी बड़े कक्ष प्राचीनता का वातावरण बनाए रखते हैं। आबादी घनी होने के कारण लोग नदियों और समुद्र में भी नावों पर घर बनाकर स्थायी रूप से रहते हैं। खिरगीज़ तथा रूसी स्टेपों में चरवाहे घास की खोज में इधर उधर घूमते रहते हैं, अत: अस्थायी डेरों में ही जीवन बिताते हैं। मंगोलियावाले भी प्राय: खाल के डेरों में ही रहते हैं, पूर्वी द्वीपसमूह में निरंतर वर्षा, सर्दी, सड़ी गर्मी, भाँति भाँति के मक्खी मच्छर, और विषुवतीय वनों के हिंसक जीवों से बचने के लिए पेड़ों पर ही झोपड़ियाँ बनाई जाती हैं। अरब के सभ्य लोग मरूद्यानों या नदियों के पास कच्चे घर बनाकर रहते हैं। अफ्रीका के घास के मैदानों के ज़ूलू लोग गोलार्ध के आकार की झोपड़ी बनाकर, ऊपर सिरे पर धुआँ निकलने के लिए छेद छोड़ देते हैं।

सं. ग्रं.-मानसार, वास्तुशास्त्र; समरांगण सूत्रधार (भोज); ए. ए. मैक्डॉनेल : इंडियाज़ पास्ट तथा पी. एम. आवरसेल : एंशिएंट इंडिया। (विश्वंभर प्रसाद गुप्त)