गूँगे बहरों की शिक्षा प्राय: सभी सभ्य देशों में बहरों को शिक्षा का सुयोग प्राप्त है। उनके लिए चिकित्सा, भरणपोषण, पुस्तकें, लिखने-पढ़ने की सामग्री, साबुन आदि का सारा खर्च सरकार स्वयं उठाती है। कुछ सरकारों ने तो बहरों के स्कूल आने जाने का खर्च भी अपने ऊपर ले रखा है।
इस देश में गूँगे बहरों की समस्या समाज के सामने अत्यंत महत्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत है। समाज का कर्तव्य है कि इन वाणीविहीनों को वाणी प्रदान करें। मूक बधिर बालकों की शिक्षा के लिए समाजसेवियों ने कुछ कार्य भी किया है। मूक-बधिर बालक दो प्रकार के होते हैं। प्रथम श्रेणी में उनको रखा जा सकता है जो नितांत बधिर होते हैं। इनमें तनिक भी श्रवणशक्ति नहीं होती इसलिए शब्दों को न सुनने के कारण वे उच्चारण भी नहीं कर पाते क्योंकि भाषा का सीखना अनुकरण पर अधिक निर्भर होता है। दूसरे प्रकार के बधिर वे होते हैं जिनकी श्रवणशक्ति इतनी कमजोर होती है कि वे साधारण बातचीत नहीं सुन सकते किंतु श्रवणयंत्र की सहायता से सुन सकते हैं। अर्जित बधिरता के कुछ सामान्य कारण होते हैं। इसको समझने के लिए कानों की बनावट के विषय में जानना आवश्यक है सामान्य रूप से कानों के तीन भाग होते हें : १. बाह्यकर्ण २. मध्यकर्ण तथा ३. आंतरिक कर्ण। बाह्यकर्ण के कारण केवल एक प्रतिशत बधिर होते हैं जो खाज, फोड़े फुंसी या जलने के कारण केवल प्रभावित होता है। मध्यकर्ण की खराबी से उत्पन्न हुई बधिरता के मुख्य कारण हैं, कान बहना, स्कारलेट फीवर (लाल बुखार), चेचक, निमोनिया इत्यादि। मध्यकर्ण के कारण ४५ प्रतिशत बधिरता होती है। इन सबके अतिरिक्तकान के स्नायुतंतुओं की खराबी के कारण भी बधिरता होती है। इन स्नायुतंतुओं का हानि पहुँचानेवाले कारण गर्दनतोड़ बुखार, मियादी ज्वर होते हैं। कभी कभी चोट लगने से भी बहरापन हो जाता है।
शिक्षाप्रणाली-इस समय संसार में बधिरों की शिक्षा के लिए अनेक प्रणालियाँ हैं। सर्वोत्तम प्रणाली कौन सी है, इस विषय पर लोगों में मतभेद है। अमेरिकन ऐनल्ज़ ऑव द डेफ़ के अनुसार शिक्षा की विभिन्न प्रणालियाँ निम्नलिखित हैं :
उत्तर प्रदेश में इस समय प्रयाग का स्कूल ही मौखिक प्रणाली तथा होठों की हरकत को समझने की प्रणाली (ओरिकुलर मेथड) का प्रयोग करता है मौखिक प्रणाली तथा सुनने में सहायक यंत्रों की दृष्टि से बधिरों के लिए सर्वोत्तम स्कूल मैंचेस्टर (इंग्लैंड) का है। किंतु यहाँ लड़के उच्चतर शिक्षा के लिए आगे नहीं जा सकते। उनका भाषा का ज्ञान उतनी अच्छी तरह विकसित नहीं हो पाता जितना संयुक्त राज्य अमरीका में शिक्षा पानेवालों का।
सार्वजनिक जीवन में उचित स्थान ग्रहण करने के लिए बधिरों के लिए यह आवश्यक है कि अपनी वाणी का विकास करें, भाषा सीखें और होठों की हरकत समझें। अत: इन तीनों गुणों का विकास करने का अवसर प्रत्येक बधिर बच्चे को देना चाहिए।
यदि मौखिक प्रणाली तथा सुनने में सहायक यंत्रों के द्वारा विद्यार्थी उन्नति कर सकें तो उनकी शिक्षा के लिए संकेतों तथा हस्त प्रणाली का प्रयोग नहीं करना चाहिए। किंतु यदि विद्यार्थी की उससे कुछ उन्नति होती न दिखाई पड़े तो उसे अच्छा नागरिक बनाने के लिए संकेतों तथा हस्त वर्णमाला का उपयोग करना चाहिए।
अभी तक उच्च शिक्षा देने के लिए किसी भी स्कूल में मौलिक प्रणाली का उपयोग करने का प्रयत्न नहीं किया गया है। किंतु ४० प्रतिशत विद्यार्थी तो अवश्य ही इस प्रणाली से सफल हो सकते हैं। अध्यापकों का यह आवश्यक धर्म है कि भाषा ज्ञान तथा वाणी की शक्ति प्राप्त करने और होठों की हरकत समझने में विद्यार्थियों की प्रत्येक प्रकार से सहायता करें। बधिर बच्चों को बोलना अवश्य सिखाना चाहिए ताकि उनके फेफड़े अपना काम ठीक से कर सकें। फेफड़े शरीर के बहुत ही महत्वपूर्ण अवयव हैं। नीचे उनकी उपयोगिता तथा क्रिया पर प्रकाश डाला जाता है।
फेफड़ों की शक्ति-क्या बधिर बालक के फेफड़े की कार्यक्षमता सुनने की शक्ति रखनेवाले बच्चे के फेफड़े से कम होती है? क्या मौखिक प्रणाली के प्रभाव से फेफड़े मजबूत बन जाते हैं और स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाते हैं? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर स्वीकारात्मक दिया जाता है। ई. वाल्टर की राय में बधिरमूक बच्चों के फेफड़े बोलने की शक्ति के अभाव से पर्याप्त व्यायाम नहीं कर पाते जिससे यथेष्ट बल भी नहीं प्राप्त कर पाते। बर्लिन के अलबर्ट कुटामैन का कथन है कि चिकित्सा साहित्य इस बात पर उचित ही जोर देता है कि शिक्षा देने की पुरानी प्रणाली का विद्यार्थियों के स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। बोलना सिखा देने से बड़ा ही लाभ होता है। फेफड़े मजबूत बनकर स्वास्थ्य को लाभ पहुँचाते हैं। चूँकि बधिरमूकता के कारण फेफड़े आवश्यक व्यायाम नहीं कर पाते अत: वे इतने कमजोर हो जाते हैं कि साधारण सर्दी जुकाम भी आसानी से क्षय का रूप धारण कर लेता है। बोलना बधिरमूक के लिए स्वास्थ्यवर्धक व्यायाम है। इस प्रकार बोलना सिखाना बहरों के लिए महत्वपूर्ण है। अत: सभी बहरे बच्चों को मौखिक व्यायाम करना चाहिए। कमजोर दिमागवालों को यह सिखाना चाहिए, भले ही उनका शब्दभंडार बहुत सीमित रह जाए।
हैंबर्ग के श्री आल्फ्रडे शान ने अपने लेख में कुछ आँकड़े उपस्थित किए हैं जिनसे इस मत का खंडन होता है। हैंबर्ग मूक-बधिर पाठशाला के २५ विद्यार्थियों की नाप से उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि आठ नौ वर्ष के बधिर बच्चों के फेफड़ों की औसत क्षमता उसी वय के सुननेवाले बच्चों के फेफड़े से बहुत अधिक होती है। सयाने बधिर बच्चों में १० से १५ वर्ष की वय तक के फेफड़ों की क्षमता जिन्हें मौखिक प्रणाली की शिक्षा दी गई है, उसी अवस्था के सुननेवाले बच्चों की अपेक्षा बहुत कम होती है। जैसे जैसे शिक्षा का काम घटता है, अंतर भी वैसे ही साल साल बढ़ता जाता है। निम्नलिखित तालिका से यह स्पष्ट हो जाता है।
विद्यार्थियों
की संख्या
|
अवस्था
|
ऊँचाई
|
फेफड़े
की औसत शक्ति
|
सुननेवाले
बच्चों के फेफड़ों
की औसत क्षमतान
|
अंतर |
|
१३ १२ 10 १२ १२ ८ १० ८ |
१५ १४ १३ १२ ११ १० ९ ८ |
१.५६' १.५३' १.४६' १.४०' १.३७' १.३२' १.२७' १.२१' |
२२८० सी. एम २२४० सी. एम १६८० सी. एम १६४० सी. एम १५५. सी. एम १४१. सी. एम १४५. सी. एम १२४. सी. एम |
२४९० सी. एम३ २२८० सी. एम २०३० सी. एम १८२० सी. एम १६५० सी. एम १४५० सी. एम १२६० सी. एम १०३० सी. एम |
२१० सी. एम३ -४० सी. एम -१७० सी. एम -१४० सी. एम -१०० सी. एम -६० सी. एम -१९० सी. एम -२१० सी. एम |
श्
बधिर तथा सुननेवाले बच्चों का अतंर तथा शिक्षा के अग्रसर होने के साथ बधिर के फेफड़ों की क्षमता में क्रमिक ्ह्रास होना और भी अधिक आकर्षक ढंग से दिखाया जा सकता है, जबकि जाँच ऐसे बधिरों तक ही सीमित रखी जाए जो जन्म से बहरे हैं और जिन्हें स्कूल में आने के पूर्व बोलने का कुछ अभ्यास नहीं था। निम्नलिखित तालिका ऐसे जन्मजात बहरों के संबंध में है।
विद्यार्थियों
की संख्या
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अवस्था
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ऊँचाई
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फेफड़े
की औसत शक्ति
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सुननेवाले
बच्चों के फेफड़ों
की औसत क्षमतान
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अंतर |
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७ १० 3 १० ६ २ ७ ४ |
१५ १४ १३ १२ ११ १० ९ ८ |
१.५३' १.५३' १.४७' १.४०' १.३०' १.३३' १.२७' १.२१' |
१८६० सी. एम २२२० सी. एम १६०० सी. एम १७३० सी. एम १५८०. सी. एम १२००. सी. एम १५४०. सी. एम १२५०. सी. एम |
२२९० सी. एम३ २२८० सी. एम २०४० सी. एम १८२० सी. एम १६२० सी. एम १४४० सी. एम १२४० सी. एम १०९० सी. एम |
४३० सी. एम३ -६० � � � � � -१४० |
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बच्चों की संख्या इतनी कम है कि इस विषय पर कोई स्पष्ट परिणाम नहीं दिया जा सकता। आँकड़ों से यह प्रकट होता है कि बहरे बच्चे वजन में सुननेवाले बच्चों से कम होते हैं। यह एक साधारण नियम है कि जब किसी अवयव का उपयोग नहीं किया जाता तब कुछ समय के बाद वह बेकार हो जाता है, क्योंकि रक्त के दौरे की क्रिया बंद हो जाती है। भारत में अनेक साधु एक हाथ सदा ऊपर उठाए रहते हैं। इनका हाथ कुछ वर्षों बाद बेकार हो जाता है। यही बात बहरे बच्चों के संबंध में भी सही हो सकती है। वे कभी अपनी वाणी का उपयोग नहीं करते अत: उनके फेफड़े पर्याप्त उपयोग में नहीं आते। अत: यह बात हो सकती है कि बहरे लोग सुननेवालों की अपेक्षा जल्दी मरें क्योंकि उनके फेफड़े की क्रिया सीमित होती है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के शरीर में फेफड़े बड़ा ही महत्वपूर्ण काम करते हैं। वे रक्त को शुद्ध करते हैं और उसका संपूर्ण शरीर में समुचित रूप से संचार कराते हैं। शिक्षित बधिर अशिक्षित बधिरों की अपेक्षा अधिक दिन जीते हैं।
इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी उपाय से सभी मूकबधिरों को बोलना सिखा देना चाहिए। अधिक से अधिक जितनी बोलने की क्षमता उनमें हो उतना बोलना सिखाना लाभकर होगा। (शु. मि.)