गुहिलोत एक राजवंश। गुहिलपुत्र शब्द का अपभ्रष्ट रूप। कुछ विद्वान उन्हें मूलत: ब्राह्मण मानते हैं, किंतु वे स्वयं अपने को सूर्यवंशी कहते हैं जिसकी पुष्टि पृथ्वीराज विजय काव्य से होती है। मेवाड़ के दक्षिणी पश्चिमी भाग से उनके सबसे प्राचीन अभिलेख मिले है। अत: वही से मेवाड़ के अन्य भागों में उनकी विस्तार हुआ होगा। गुह के बाद भोज, महेंद्रनाथ, शील ओर अपराजित गद्दी पर बैठे। कई विद्वान शील या शीलादित्य को ही बप्प मानते हैं। अपराजित के बाद महेंद्रभट और उसके बाद कालभोज राजा हुए। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने कालभोज को चित्तौड़ दुर्ग का विजेता बप्प माना है। किंतु यह निश्चित करना कठिन है। कि वास्तव में बप्प कौन था। कालभोज के पुत्र खोम्माण के समय अरब मेवाड़ तक पहुंचे। अरब आक्रांताओं को पीछे हटानेवाले इन राजा को देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर ने बप्प मानने का सुझाव दिया।

कुछ समय तक चित्तौड़ प्रतिहारों के अधिकार में रहा और गुहिलोत उनके अधीन रहे। भर्तृ पट्ट द्वितीय के समय गुहिलोत फिर सशक्त हुए और उनके पुत्र अल्लट (वि. सं. १०२४) ने राजा देवपाल को हराया जो डा. ओझा के मतानुसार इसी नाम का प्रतिहार सम्राट रहा होगा। सारणेश्वर के शिलालेख से सिद्ध है कि मेवाड़ राज्य इसके समय में खूब समृद्ध था। इसका प्रपौत्र शक्तिकुमार संवत १०३४ में वर्तमान था। इसका अंतिम राजा अंबाप्रसाद साँभर के चौहान राजा वाक्पति द्वितीय के हाथों मारा गया और कुछ समय के लिए मेवाड़ में कुछ अराजकता सी रही।

सन् १११६ में विजयसिंह गद्दी पर वर्तमान था। उसने मालवराज उदयादित्य की लड़की से शादी की और अपनी लड़की अल्हणदेवी का विवाह कलचुरि राजा गयकर्ण से किया। उससे तीन पीढ़ी बाद रणसिंह हुआ जिसके एक पुत्र क्षेमसिंह के वंशज रावल और दूसरे पुत्र राहप के वंशज राणा कहलाए। क्षेमसिंह के ज्येष्ठ पुत्र सामंतसिंह ने गुजरात के राजा अजयपाल को हराया, किंतु कुछ समय के बाद सामंतों के विरोध और कीर्तिपाल चौहान के आक्रमणों के कारण उसे मेवाड़ छोड़ना पड़ा। उसके छोटे भाई कुमारसिंह ने कीर्तिपाल को मेवाड़ से निकालकर अपने राज्य का पुनरुद्वार किया। कुमारसिंह का प्रपौत्र जैत्रसिंह भी अच्छा राजा था। इसके समय इल्तुत्मिश ने नागदा नगर को ध्वस्त किया किंतु अन्यत्र सब जगह उसे सफलता मिली। उसने गुजरात के चालुक्यों, नाडोल के चौहानों और मालवे के परमारों को युद्ध में हराया, और सन् १२४८ में दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन के विरुद्ध उसके भाई जलालुद्दीन को शरण दी। जैत्रसिंह का देहांत संवत १३१७ के आसपास हुआ।

जैत्रसिंह के पौत्र रत्नसिंह के समय अलाउद्दीन खल्जी ने २६ अगस्त, सन् १३०३ को चित्तोड़ का किला फतह किया। प्रचलित कथानकों में यही राणा पद्मिनी का पति था। पद्मिनी की कथा में इधर उधर की जोड़ तोड़ पर्याप्त है। किंतु अब निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वह जायसी के दिमाग की उपज नहीं है जैसा कि अनेक विद्वान मानते हैं।

सन् १३२५ तक चित्तौड़ पहले खल्जियों और फिर मालदेव सोनिगर के हाथों में रहा। मालदेव के पुत्र जैसा के समय छल या बल से राणा शाखा के हम्मीर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। हम्मीर सीसोदे का जागीरदार था। इसलिए उसके वंशज सीसोदिए कहलाए।

हम्मीर के पुत्र क्षेत्रसिंह (खेता) के समय भी मेवाड़ की शक्ति खूब बढ़ी। लाखा और मोकल के समय यह स्थिर रही और महाराणा कुंभा के समय फिर तीव्र गति से बढ़ी। उसने मालवे और गुजरात के सुल्तानों को हराया, और जो स्थान धीरे धीरे मुसलमानों के हाथों में जा रहे थे उन्हें स्वयं हस्तगत कर रक्षित किया। बूँदी, मांडलगढ़, शागरोन, सारंगपुर, चाटसू, रणथंभौर, खाटू, अजमेर, नागोर आदि पर उसने अधिकार किया और अनेक नए दुर्ग बनाकर देश को सुरक्षित किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ उसकी अमरकीर्ति है। वह अनेक शास्त्रों और कलाओं का ज्ञाता, संगीतराज, रसिकप्रियादि ग्रंथों का निर्माता और मंडन सूत्रधार तथा महेश कवि जैसे विद्वानों का आदर करनेवाला था।

इसी महाराणा का यशस्वी पौत्र महाराणा संग्राम या साँगा था, जिसने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फ़र और दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को बढ़ने से रोका और मालवे के सुल्तान महमूद को हराकर तीन महीने तक चित्तौड़ में कैद रखा। राजस्थान के प्राय: सभी राणा साँगा का प्रभुत्व स्वीकार करते थे। बाबर से यह १३ मार्च, १५२७ को खानुवा के युद्ध में परास्त और बुरी तरह से घायल हुआ। इस पराजय से राजपूतों का प्रताप, जो महाराणा कुंभा के समय बहुत बढ़ा और इस समय तक अपने शिखर पर पहुँच चुका था, एकदम कम हो गया। सन् १५२८ में महाराणा की मृत्यु हुई। मीराबाई राणा साँगा की पुत्रवधू थी।

सन् १५४० में साँगा का छोटा पुत्र उदयसिंह अपने पैतृक राज्य का स्वामी बना। उदयपुर को सैनिक दृष्टि से अधिक निरापद स्थान समझ कर वहीं पर उसने अपनी राजधानी बसाई। सन् १५६७ में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। भोजन की कमी पड़ने पर उदयसिंह के दुर्गपाल जयमल मेड़तिए ने जौहर कर दुर्ग का द्वार खोल दिया। मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार सुरंग में बारूद भरकर किले की एक दीवार कुछ उड़ा दी गई। तदनंतर धावा करके मुगल सेना किले में घुस पड़ी। राजपूतों ने भयंकर युद्ध कर सदा के लिए अपने वीरत्व की कथा अमर कर दी। रणथंभौर के दुर्ग को सुर्जन हाडा ने अकबर को दे डाला। २८ फरवरी, सन् १५७२ को महाराणा का देहांत हुआ और महाराणा प्रताप सभी सामंतों की सम्मति से सिंहासन पर बैठे। सन् १५७६ में हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप, अकबर की विशाल सेना से परास्त हुए, किंतु मुगल सेना भी इतनी क्षत विक्षत हुई कि उसे आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई। स्वतंत्रता को धन और ऐश्वर्य से कहीं अधिक समझनेवाले महाराणा ने घोर संकट सहकर भी अकबर के विरुद्ध युद्ध जारी रखा और सन् १५८६ तक मांडलगढ़ और चित्तौड़ को छोड़कर समस्त मेवाड़ पर फिर अधिकार कर लिया। सन् १५९७ में महाराणा का स्वर्गवास हुआ।

सिसोदियों को महाराणा की मृत्यु के बाद किसी अंश में दिल्ली की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी, किंतु उन्होंने अपना सम्मान और अपनी कुलीनता बनाए रखी। समय पड़ने पर औरगंजेब जैसे विरोधी राजाओं से उन्होंने युद्ध भी किया। सन् १८१८ में मेवाड़ ने ब्रिटिश राज्य की अधीनता स्वीकार की और अब मेवाड़ राजस्थान राज्य का अंग है।

डूंगरपुर का राज्य रावल सामंतसिंह ने स्थापित किया था। बाँसवाडा और प्रतापगढ़ के राजा भी इसी राजवंश के थे। नेपाल के राजा भी अपने को सिसोदिया मानते, और शिवाजी के वंशज भी मेवाड़ से अपना संबंध मानते हैं। प्रतिहार काल में चारसू (राजस्थान) में गुहिलों का अच्छा राज्य था। सौराष्ट्र में गुहिलों के अनेक राज्य और ठिकाने थे। गुहिलों की अनेक शाखाएँ हैं जो मुख्यत: सौराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में वर्तमान है।

सं. ग्रं.-ओझा, गौरीशंकर हीराचंद : राजस्थान का इतिहास। (दशरथ शर्मा)