गुलिकार्ति के दंडाणुओं से गाय बैलों में रोगसंक्रमण की समस्या अत्यंत महत्वपूर्ण है। २० वर्ष पूर्व रोगसंक्रमित गौओं का दूध पीने से बालको में गुलिकार्ति दंडागुओ द्वारा रोग का संक्रमण स्काटलैंड में अत्यंत उग्र हो उठा था, परंतु अब दक्ष पास्चुरीकरण (Pasteurisation) तथा रोगी गायों के पृथक्करण से बालकों में पशुओं द्वारा रोगसंक्रमण अत्यल्प हो गया है। भारत में ऐसी गायों को पृथक् कर गोसदनों में रखा जाता है। यहां वे आजीवन अन्य पशुओं से रक्षित रहती हैं।

टीका, द्वारा रक्षा की विधि-क्षयनिरोधक टीके (B.C.G.) का सर्वप्रथम प्रयोग १९१२ में वाइल हेली (Weil Helle) द्वारा किया गया था। अब वह समस्त विश्व में क्षयनाश का सार्थक साधन माना जाता है। टीके का वैक्सीन गाय बैलों की गुलिकार्ति के दंडाणुओं का तनु प्रभेद है। यह यक्ष्मा उत्पन्न करने में असमर्थ होता है। यह उन्हीं लोगों को दिया जा सकता है जिनका गुलिकार्ति दंडाणुओं से रोगसंक्रमण नहीं हुआ है, क्योंकि हमारा ध्येय गुलिकार्ति दंडाणुओं के अनेक संभाव्य आपत्तियों से भरे प्राकृतिक संक्रमण के स्थान पर ऐसे बीजाणुओ का प्रवेश कराना है तो प्रतिरक्षा को तो विकसित होने देते हैं, किंतु कोई जटिलता नहीं उत्पन्न करते। अनेक राष्ट्रों, जैसे रूस, चेकोस्लोवेकिया, फिनलैंड तथा नॉर्वे में क्षयनिरोधक टीका लगवाना विधान द्वारा अनिवार्य कर दिया गया है। यह या तो शिशुओं को दूध में पिलाया जा सकता है या अंत: त्वचीय (intrautaneous) सुइयों द्वारा शरीर में प्रविष्ट किया जा सकता है। अंतिम विधि का प्रयोग अधिकतर होता है।

शाद्वलमूष दंडाणु वैक्सीन (Vole Bacillus Vaccine) के प्रयोग का प्रारंभ डा. ए. क्यू. वेल्स द्वारा किया गया था। इन्होंने सन् १९३७ में शाद्वलमूष दंडाणुओं का आविष्कार किया था। डा. वेल्स का दावा था कि शाद्वलमूष दंडाणु क्षयनिरोधक टीके से श्रेयस्कर है, क्योंकि क्षयनिरोधक टीके के विपरीत ये प्राकृतिक रूप में पाए जाते हैं और मनुष्यों को हानि नहीं पहँुचाते। किंतु अभी इंग्लैंड, अफ्रीका और प्राग में इनकी परीक्षा की जा रही है।

रसायनी रोगनिरोधन-नियमित अंतराल के पश्चात ओषधि की अल्प मात्राएँ लेते रहकर रोगसंक्रमण का निरोध करने की धारणा नवीन नहीं है। मलेरिया ज्वर का आना कुनैन (Quinine) इत्यादि ओषधियों की नियमित मात्रा के सेवन से रोका गया है। ब्लॉक (Bloch) एवं सेगल (सन् १९५५) तथा फार्बी एवं पामर (सन् १९५६) के अन्वेषणों ने इसी प्रकार के प्रतिकारकों का यक्ष्मा में भी प्रयोग करने की उत्तेजना दी है। संप्रति अमरीका, फ्रांस तथा स्कैंडिनेविया प्रदेशों में शिशुओं पर रसायनी रोगनिरोधन (chemo-prophylaxis) की परीक्षा की जा रही है। उन्हें नियमित अंतरालों के पश्चात् आइ. एन. एच. की अल्प मात्राएँ दी जाती हैं। ऐसा देखा गया है कि समान परिस्थितियों में रहनेवाले अन्य बालकां की अपेक्षा ऐसे शिशुओं में क्षय रोग के संक्रमण की घटनाएँ अत्यल्प संख्या में हुई।

सामान्य उपाय-क्षय अवश्यमेव सूचनीय रोग माना जाना चाहिए। मैक्डूगल (Mc Dougall) के अनुसार अधिसूचना संबंधी अधिनियम लगभग ५० देशों में बने हुए हैं। परंतु यह अत्यंत दु:ख की बात है कि इन नियमों के होते हुए भी बहुत से रोगियों की सूचना नहीं दी जाती। क्षय के किसी रोगी का पता चलने पर यह ज्ञात करना अनिवार्य हो जाना चाहिए कि उसे रोग का संक्रमण कहाँ से हुआ और स्वयं इस रोगी ने अन्य कितने लोगों को रोगसंक्रमित किया है। क्षयनिरोध के लिये संपर्कपरीक्षा विद्यालय के भिषगों (डाक्टरों) द्वारा विद्यालयों का निरीक्षण नियमित रूप से अवश्य करना चाहिए। दूध का भी पूर्वपरीक्षण किया जाना चाहिए। यदि दूध को उबालकर पीने के अभ्यास को सर्वमान्य किया जा सके तो यह अत्युत्तम होगा।

क्षय निरोध-योजना-१९वीं शताब्दी के अंत में सर रॉबर्ट फ़िलिप ने इंग्लैंड में निम्नलिखित क्षय-निरोध-योजना संगठित की है। संपूर्ण दल में निम्नलिखित अंश होते हैं: १. वक्ष निदानगृह, २. क्षय चिकित्सालय, ३. क्षय आरोग्यशाला, ४. पुन: स्थापना केंद्र तथा ५. क्षय शरणालय।

वक्ष निदानगृहों के कार्य: १. गृह की परिपार्श्विक अवस्थाओं का पर्यवेक्षण, २. आरब्धमान् रोगियो का अन्वेषण, ३. अन्य संस्थाओं के रोगियों का अन्वेषण, ४. वास्तविक रोगिगयों का उपचार, ५. संपर्कपरीक्षा तथा ६. क्षयनिरोधक टीके का देना।

क्षय अस्पताल : इनमें क्षय के केवल उन्हीं रोगियों को भर्ती किया जाता है जिनका रोग या तो निष्क्रिय किया जा सकता है, या रसायन चिकित्सा अथवा शल्य प्रणाली से दूर किया जा सकता है। प्रत्यक्ष है कि ऐसे अस्पतालों में आधुनिकतम शल्य प्रणाली का प्रयोग करने की सुविधाएँ होनी चाहिए। इन अस्पतालों में रोगियो का वासकाल न्यूनतम होना चाहिए जिससे अन्य रोगियों को भी चिकित्सा का अवसर प्राप्त हो सके।

क्षय आरोग्यशाला : ये निवासगृह ऐसी संस्थाएँ हैं जहाँ रोगियों का केवल उपचार ही नहीं होता वरन् उन्हें समाज और जीवन में स्वावलंबी होकर पुन: प्रतिस्थपित होने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।

प्ाुन: प्रतिस्थापन केंद्र : इनमें भूतपूर्व रोगियों को उद्योग की विभिन्न शाखाओं में प्रशिक्षित किया जाता है, जिससे वे अच्छी नौकरियाँ प्राप्त करने के योग्य हो जायँ।

क्षय शरणालय : इनमें क्षय के ऐसे रोगी रखे जाते हैं जो नीरोग नहीं किए जा सकते और जिन्हें अपने घरों में रहने देने से रोग अन्य लोगों को फैलता ही जाता है। इन रोगियों का न्यूनतम उपचार किया जाता है और ये मृत्युपर्यंत यहां रहते हैं।

प्राचीन भारत में क्षय रोग-वेदों के प्रकाश में आने के पहले से ही संभवत: भारत में क्षय रोग विद्यमान था, क्योंकि ऋग्वेद में क्षय का ही राजयक्ष्मा के नाम से वर्णन आता है। ऐसा विश्वास किया जाता था कि यह रोग देवताओं की ओर से उदासीन रहने के फलस्वरूप उनके प्रकोप का फल होता था।

आयुर्वेद के जनक सुश्रुत ने क्षय के लक्षणों के विषय में विस्तार से लिखा है। रोगलक्षण, फलानुमान तथा उपचार का उनके ग्रंथ में दिया गया परिशुद्ध वर्णन विस्मयकारी है। उनका विश्वास था कि यह रोग वायु पित्त तथा कफ के विक्षोभ के कारण होता है।

अर्वाचीन भारत में क्षयरोग-भारत आज संसार में इस रोग से सर्वाधिक पीड़ित राष्ट्र हैं। बील (सन् १९४७) के कथनानुसार इस रोग से होनेवाली मृत्यु तथा अस्वस्थता की अधिकता के निम्नलिखित कारण हैं :

  1. औसत आय प्रति व्यक्ति प्रति मास लगभग सात रूपए है।
  2. कुछ प्रकार के भोजनों पर धार्मिक प्रतिबंध होने के कारण आहार असंतुलित रहता है।
  3. नगर तथा बाजारों में अस्वास्थ्यकारी तथा अत्यधिक जनसंख्यावाली परिस्थितियाँ रोगसंक्रमण के प्रसार के लिए बड़ी अनुकूल हैं।
  4. जहां हो वहीं थूकने का विवेकशून्य सर्वव्यापी स्वभाव।
  5. दरिद्र गृह एवं वस्त्र, ऋतुओं के कष्ट तथा हानियों से, यथोचित रक्षा नहीं कर पाते।
  6. दुर्भिक्ष, बाढ़ तथा विकलांगकारी रोग, जैसे मलेरिया, आमातिसार, कालाआज़ार इत्यादि आक्रांत मनुष्यों की प्रतिरोधशक्ति को कम कर देते हें।

सन् १९५५ से भारतवर्ष में कुछ सर्वेक्षण किए जा रहे हैं। इनके अंतर्गत रोगियों का एक्स-रे परीक्षण तथा जिनके फुफ्फुसों में असाधारण तथा सार्थक प्रतिच्छायाएँ दिखाई दें उनकी जीवाणपरीक्षा भी सम्मिलित है। निदर्शन द्वारा समूहों का चुनाव किया गया था और न्यूनातिन्यून ९० से ९५ प्रतिशत समूह परीक्षण के लिए प्रस्तावित किए जाते हैं। सर्वेक्षण के लिए चुने गए नगरों में कलकत्ता, दिल्ली, हैदराबाद, मदनपल्ली, मद्रास, पटना तथा त्रिवेंद्रम सम्मिलित हैं। प्राप्त प्रयोगात्मक अंकों से प्रकट होता है कि इन क्षेत्रों में प्रति हजार व्यक्तियों में से सात से लेकर ३० व्यक्ति तक रोगग्रस्त हैं। पुरूषों की अपेक्षा नारियों की अस्वस्थता न्यून है तथा आयु के साथ साथ अस्वस्थता बराबर बढ़ती जाती है। पाँच से लेकर ३४ वर्ष तक की आयुवाले व्यक्तियों की अपेक्षा ३५ वर्ष तथा उससे अधिक आयुवाले व्यक्तियों में रोग अत्यधिक पाया गया। विभिन्न क्षेत्रों में प्रति हजार व्यक्तियों में से एक से लकर ११ व्यक्तियों तक के थूक क्षयरोग के जीवाणुओं से युक्त पाए गए हैं।

सं. ग्रं.-बील, जे. आर. : बुलेटिन, एन. ए. पी. टी. (१९४७), लंदन, पृष्ठ ९०; बेंजामिन, पी. वी. : इंडियन मेडिकल गज़ेट (१९३९), ७४, पृष्ठ ५१९; ब्लॉक एच. ऐंड सेगल, डब्ल्यू. : अमेरिकन रिव्यू ऑव ट्यूबर्क्युलोसिस, ७३-१, जी. हर्ट्ज़बर्ग ; एस. फिलिप, बी के. सिकंट तथा राजनारायण: प्रोसीडिंग्ज़ ऑव ट्युबर्क्युलोसिस वर्क्स कान्फरेंस (१९५२), लखनऊ, क्रमश: पृष्ठ १०४, पृष्ठ १२६, पृष्ठ ११३ तथा ११६; रिच, ए. आर : पैथोजेनेसिस ऑव ट्युबर्क्युलोसिस, सेकेंड एडिशन (१९५१), यू. एस. ए.। (आर. एन. टंडन.)