गुलाल साहब प्रख्यात संत और बुल्ला साहब के शिष्य। आपका जन्म सत्रहवीं शती के अंतिम चरण में बसहरी (जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश) के एक क्षत्रिय जमींदार कुल में हुआ था। इनके गुरु बुल्ला साहब, बुलाकीराम कुर्मी के नाम से इनके परिवार का हल जोतने का काम करते थे। उनके आध्यात्मिक जीवन से प्रभावित होकर गुलाल साहब ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया था और उनके निधन के पश्चात उनकी गद्दी के अधिकारी हुए थे। ये ऊँचे दरजे के साधक थे। आपने निर्विकल्प मन की समावस्था की दिव्य अनुभूति का वर्णन अनेक रूपों में निरंतर अपनी रचनाओं में किया है। ‘ज्ञानगुष्टि’ और ‘रामसहस्रनाम’ आपकी वाणियों के संग्रह है। आपकी वाणी ‘गुलाल साहब की बानी’ नाम से भी प्रकाशित हुई है।
आपका निधन १७६० ई. में हुआ। (प. ला. गु.)
गुलिकार्ति क्षय रोग, तपेदिक या यक्ष्मा का एक नाम। यह मनुष्यों और पशुओं का रोग है। यह रोग गुलिका दंडाणु (tubercle ba illi) द्वारा होता है। बैक्टीरियाओं के अम्लस्थायी समूह के अंतगर्त ये दंडाणु आते हैं। इनमें कुछ दंडाणु मनुष्यों और पशुओं के लिये व्याधिजनक और कुछ अनुपघातक (i nocuous) होते हैं। सबसे अधिक महत्व के व्याधिजनक दंडाणु मनुष्य, गोजाति और पक्षियों को आक्रांत करते हैं। ये दंडाणु दंडाकार होते हैं और इनकी लंबाई ४ से ८ म्यू तक होती है। ‘जाइल नील्सेन’ (Ziehl-Neelsen) की विशेष तकनीक से ये लाल रंग में अभिरंजित हो जाते हैं। इन दंडाणुओं को विशेष माध्यम की सहायता से प्रयोगशालाओं में विकसित किया जा सकता है। चार से लेकर छ: सप्ताहों तक में इनकी वृद्धि देखी जा सकती है।
आक्रामक दंडाणुओं का किसी विशेष ऊतक पर आक्रमण होने से वहाँ प्रदाह होता है। मूलत: यह प्रदाह ही क्षयरोग है। अत: गुलिका दंडाणु अपेक्षया अल्पघातक होते हैं, अत: ऊतक अभिक्रिया अनुतीक्ष्ण और दीर्घकालिक होती है। अपवाद के रूप में ही यह तीक्ष्ण हो सकती है। गुलिका दंडाणुओं की ऊतक पर स्थानीय अभिक्रिया पहले पहल बहुरूप केंद्रक कोशिकाओं के समुदाय पर होती है। पीछे बृहत्केंद्रक श्वेताणु (monocytes) उस स्थल पर प्र्व्राजन करते हैं, गुलिका दंडाणुओं को घेर लेते हैं तथा उन्हें उदरस्थ करने की चेष्टा करते हैं, इस प्रक्रिया में दंडाणुओं के कुछ अपकर्षण (degeneration) उत्पाद उन्मुक्त हो बृहत्केंद्रक श्वेताणुओं को उपकला कल्प कोशिकाओं में, जिनमें फेनिल रक्त कोशिकासार (cytoplasm) अधिक मात्रा में होता है, परिवर्तित कर देते हैं। इनमें से कुछ कोशिकाओं के संयुक्त होने से वे भीमकाय (giant) कोशिकाएँ बनती हैं, जो बहुकेंद्रक होती हैं। परिधि पर इन कोशिकाओं के चतुर्दिक छोटी कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें लसीका कोशिकाएँ (lymphocytes) कहते हैं। इस प्रकार गुलिका स्थापित होती है। तत्पश्चात् गुलिकाओं से उत्पन्न जीवविषों के कारण धमनियों के अस्तर में विकृति उत्पन्न होती हैं। इसके तथा गुलिकार्ति से उत्पन्न विषैले अपकर्ष द्रव्यों के सीधे प्रभाव से केंद्रीय क्षेत्र का परिगलन हो जाता है इसे केसिएशन नेक्रोसिस (Caseation necrosis) अर्थात पनीर के समान अपकर्षवचाला परिगलन कहते हैं।
गुलिका पहले अति सूक्ष्म रहती है, किंतु पश्चात बड़ी हो जाती है और खाली आँखों से भी दिखाई पड़ने लगती है। गुलिका की आगे की क्रिया एक ओर तो गुलिकार्ति दंडाणुओं की संख्या तथा उसके घातक प्रभाव पर निर्भर होती है तथा दूसरी और रोगी की प्रतिरोधशक्ति पर। यदि दंडाणुओं की संख्या अधिक हुई अथवा उनका घातक प्रभाव अधिक हुआ और रोगी की प्रतिरोध शक्ति न्यून हुई तो अत्यधिक निस्रवण होता है, जिसके फलस्वरूप चतुर्दिकके ऊतक में शोफ (Cedema) हो जाता है, रोग फैल जाता है और फु फ्फुसीय प्रकार का क्षय उत्पन्न हो जाता है। यदि रोगी की प्रतिरोध शक्ति यथेष्ट हुई और गुलिकार्ति दंडाणुओं की संख्या तथा घातकता कम हुई तो प्रतिक्रिया का मुख्य लक्षण सुत्रण रोग (Fibrosis) होता है जिसे सूत्रणार्बद (fibroid) प्रकार की गुलिकार्ति कहते हें। इन दो चरम अवस्थाओं के मध्य में रोग की अवस्थाओं में अनेक प्रकार के भेद हो सकते हैं। जब एक गुलिका अच्छी हो जाती है तब उस स्थान पर या तो क्षतचिह्न का ऊतक रह जाता है, या कभी कभी, विशेषकर बालको में, कैलसियम का निक्षेपण होता है। असाधारण अवस्था मे पुरानी गुलिका के स्थान पर वास्तविक अस्थि का निर्माण होता है।
ऐलर्जी (Allergy) या प्रतिक्रियास्वरूप असहिष्णुता-इन शब्दों का प्रयोग गुलिकार्ति अथवा क्षय के संबंध में किया गया हैं। इनका अर्थ यह है कि ऐसी अवस्था उपस्थित है जिसमें जीवाणुओं के प्रति ऊतकों की प्रतिक्रिया परिवर्तित हो गई है। गुलिकार्ति (T.B.) के दंडाणुओं के आक्रमण के पश्चात् इस अवस्था का विकास होता है। कहा गया है कि गुलिकार्ति केंद्रों में प्रस्रवण का यही कारण है और इसी से दंडाणुओं का प्रसार होता है। रिच (Rich) का विश्वास है कि ऐलर्जी से रोगी की हानि होती है। इस क्षेत्र के अन्य कार्यकर्ताओं का विश्वास है कि ऐलर्जी की वास्तविक भूमिका सुरक्षा की है। यह गुलिकार्ति के चतुर्दिक प्रदाह रूपी प्रतिक्रिया को बढ़ाकर उनका प्रसरण रोकता है और उनके विनाश में सहायता पहुँचाता है। किंतु विज्ञ वैज्ञानिक अधिकतर प्रथम विचार से सहमत हैं।
इस प्रकार धीरे धीरे रोग की वृद्धि और दीर्घकाल तक जीवाणुओं के अज्ञात आक्रमण का अंत में फल यह होता है कि रोगी में गुलिकार्ति रोग प्रकट हो जाता है और लक्षणों से पहचाना जा सकता है। किंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि गुलिकार्ति से संक्रमित मनुष्यों की अधिकतर संख्या में गुलिकार्ति के लक्षणों का विकास नहीं हाता, क्योंकि इनकी प्रतिरोध शक्ति आक्रमणकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या और घातकता को रोकने के लिये यथेष्ट होती है। इसलिये मनुष्यों के दो समूहो में भेद करना आवश्यक है-प्रथम, संक्रमित किंतु क्षयरोगी नहीं, दूसरे संक्रमित और रोग के प्रामाणिक लक्षण प्रदर्शित करने वाले।
विश्व में व्याप्ति-क्षयरोग उन घने बसे हुए क्षेत्रों में पाया जाता है जिनका सक्रिय व्यापारिक तथा सामाजिक संबंध बाह्य संसार से बना हुआ है। विरल जनसंख्यावाले समाजों में यह नहीं मिलता। जलवायु, भूविज्ञान तथा जाति संबंधी बातों का प्रभाव भी इस रोग के प्रसार पर पड़ता है, किंतु ये गौण हैं। जातिगत बातों का कुछ अधिक विवेचन करना आवश्यक है, क्योंकि क्षयरोग पर जातिगत बातों के प्रभाव के संबंध में पहले आलोचना हो चुकी है। यह कहा गया था कि अफ्रीका के वे हब्शी, जो काम की तलाश में अमरीका जैसे सभ्य देशों में जाते थे, बड़ी सरलता से गुलिकार्ति रोग के शिकार हो जाता थे और एक बार उनमें क्षय उत्पन्न हो जाने पर उसका प्रसरण विस्फोट के समान होता था। किंतु प्रोफेसर कमिंज़ (Cummins) ने सन् १९३६ में यह सिद्ध किया कि इस अत्यधिक ग्रहणशीलता का कारण पूर्ण रूप में न सही, फिर भी आंशिक रूप में, इन सभ्य देशों में दरिद्र हब्शियों के जीवनयापन का निम्न स्तर था। यही बात जूता बनाने के उद्योग में लगे श्रमिकों के संबंध में भी सत्य है। इनके संबंध में पहले यह विचार किया गया था कि इनमें इस रोग की ग्रहणशीलता इनके कार्य के कारण है, परंतु अब यह प्रमाणित हो चुका है कि इसका कारण कारखाने में एक साथ अधिक लोगों का कार्य करना था। इन व्यक्तियों में एक भी व्यक्ति के रुग्ण होने पर यह रोग बड़ी सरलता से दूसरों को हो सकता था। इसके अतिरिक्त कार्य करते समय ये लोग लोहे की कीलें अपने मुंह में रख लिया करते थे और अंत में बची हुई सब कीलें एक ही पात्र में एकत्र रख दी जाती थीं। दूसरे दिन पुन: ये कीलें उन्हें मिलती थीं और वे पुन: उन्हें मुँह में रखते थे। इसी प्रकार सघन बस्ती में यदि कोई व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त होता था तो भी उसके साथ अन्य लोगों का संपर्क निर्बाध रूप से बना रहता था। यह भी यक्ष्मा के प्रसार का प्रमुख कारण मालूम होता है। इसके अतिरिक्त मजदूरी, व्यवसाय, जातीय रीतिरिवाज, जैसे मुसलमानों में परदा प्रथा आदि, यक्ष्मा के प्रसार में बहुत अधिक योग देते हैं, क्योंकि ये चीजें भी रोग का प्रतिरोध करने की क्षमता को क्षीण करती हैं।
क्षय रोग उन स्थानों पर बहुत ही अधिकता से होता है जहां लोग घने बसे औद्योगिक क्षेत्रों में रहते हैं। खानों में काम करनेवालों में होने वाले यक्षमा रोग के परीक्षण के आधार पर इस कथन की पुष्टि हो चुकी है। एकाध उद्योगों का वर्णन विशेष रूप से आवश्यक है। सिलिका (बालू) भी एक पुर: प्रवर्तक कारण है। प्रयोगों एवं रोगपरीक्षाओं, द्वारा यह प्रमाणित किया जा चुका है कि सिलिका के अणुओं के उच्छ्वास के कारण फुफ्फुस में होने वाला विशेष प्रकार का रोग, सिलिकोसिस (Silicosis), गुलाकार्ति की ओर पहले से ही व्यक्ति को इतना अधिक उन्मुख करता तथा उसके दंडाणुओं को बढ़ाता है कि क्षय-निरोध-टीका तक, जो पशुवर्गीय गुलिकार्ति के दंडाणुओं का अघातक प्रभेद है, सिलिका द्वारा पहले से ही दुर्बल हो गए ऊतकों में वर्धनशील रोग उत्पन्न कर देता है।
दूसरी ओर एकल तथा विरल बसे हुए देशों में न तो क्षय रोग ही सामान्यत: पाया जाता है। उदाहरणार्थ, बैरेट ने पता लगाया था कि प्रथम विश्वयुद्ध में यूरोप में बुलाए गए सेनेगैली सैनिकों में से केवल तीन प्रतिशत में टयुबर्कुलिन से प्रतिक्रिया हुई। अफ्रीकी तथा एशियाई देशों की असभ्य एवं पृथक बसी हुई वनजातियों में क्षय रोग के संक्रमण के परीक्षणों के फल भी इसी बात की पुष्टि करते हैं। यदि क्षय रोग का संक्रमण के प्राकृतिक परिपार्श्वा में बसे देशों में हो जाता है तो रोग भयंकर रूप से ऊतकों एवं समुदाय दोनों में दावानल की भाँति फैलता है। उपर्युक्त वर्णन से यह अत्यंत महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जहां रोग के संक्रमण का अवसर अत्यल्प या किंचिन्मात्र भी नहीं होता, वहां व्यक्ति क्षय रोग से बचने में पूर्णत: अक्षम रहते हें। परंतु जहां क्षय रोग के संक्रमण की घटना व्यापक होती है, वहां गुलिकार्ति दंडाणुओं के विकास के प्रतिरोध तथा रोग के संक्रमण के केंद्र को अप्रकट बनाए रखने की विपुल शक्ति होती है।
रोग का आविर्भाव-क्षय रोग की प्रारंभिक अभिव्यक्ति गुलिकार्ति दंडाणुओं के प्रवेशद्वारों के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। रोग से असंक्रमित व्यक्तियों में गुलिकार्ति दंडाणु श्वासरध्रं तथा अन्नपथ की श्लेष्मकलाओं पर कोई प्रभाव प्रचुर रूप से डाले बिना ही चले जाते हैं और लसीका वाहिनियों द्वारा होकर क्षेत्रीय लसीका ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं। दंडाणु इन ग्रंथनिस्यंदकों में छाने जाते हैं और यदि ये निकल नहीं पाते और रूक जाते हैं तो ग्रंथियों में रोगपूर्ण केंद्र स्थापित कर लेते हैं। इस प्रकार रोग से असंक्रमित व्यक्तियों में रोग के केंद्र दो स्थलों पर स्थापित होते हैं: एक, लसीका वाहिनियों के प्रवेशस्थान पर तथा दूसरे लसीकाग्रंथि के अंदर। इन दोनों के मिलने से तथाकथित ‘घोन’(Ghon) की प्राथमिक ग्रंथि बनती है। दूसरी ओर जब किसी ऐसे व्यक्ति को पुन: संक्रमण हो जाता है जिसे गुलिकार्ति का संक्रमण पहले भी हो चुका हो और जिसने इसके दंडाणुओं का प्रतिरोध करने में सफलता पाई हो, तो पूर्वसंक्रमण से प्राप्त प्रतिरोध शक्ति के कारण दंडाणु लसीकावाहिनी प्रणाली के ठीक प्रवेशद्वार पर ही, अर्थात फुफ्फुस या पाचकनाल की श्लेष्मकला पर ही, रोक लिए जाते है, और केवल उसी स्थान पर क्षय के केंद्र स्थापित करते हैं। अत्यल्प दंडाणु ही क्षेत्रीय लसीकाग्रंथियों में पहुँच पाते हैं। इस प्रकार पुन: संक्रमणवाले क्षयरोग का लक्षण यह होता है कि इसमें लसीकाग्रंथियों की तत्संबंधी वृद्धि नहीं होती।
रोग के गौण केंद्रों का बनना भी लसीका ग्रंथियों में बने प्रारंभिक केंद्रों के अन्य ऊतकों और अवयवों में गुलिकार्ति के फैलने पर निर्भर करता है। इस प्रकार गौण केंद्रों की उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि रक्त के बहाव के द्वारा रोग ने व्यापक रूप धारण कर लिया है। रोग का यह प्रसार उसके प्रति अधिक प्रतिरोध शक्ति रखनेवाले अथवा वृद्ध मनुष्यों की अपेक्षा उन लोगों में अधिक सरलता से हाता है जो ग्रहणशील या युवा है। इस प्रकार अस्थि तथा संधिगुलिकार्ति और गुलिकार्तिजनित तानिकाशोथ (Meningitis) का आक्रमण वयस्कों की अपेक्षा बालकों में अधिक होता है तथा यही बात उन जातियों के वयस्कों पर भी लागू होती है जो अन्य समाजों से दूर रहने के कारण इस रोग की छूत से बचे हुए हैं।
क्षय रोग के लक्षण-क्षय रोग के प्रारंभिक लक्षण मंद ज्वर, आलस्य, अग्निमांद्य, दौर्बल्य, कार्य में अरूचि, रात्रि को प्रस्वेदन तथा स्त्रियों में मासिक धर्म के अवसर पर अल्प रूधिरस्राव है। महत्व की बात तो यह है कि इसमें रोगी को प्रारंभ से ही तीव्र ज्वर, दुर्बलता लाने तथा थकानेवाली या अत्यधिक खाँसी नहीं आती। कभी कभी रोगी का ध्यान रोग की ओर खाँसी के साथ रक्तस्राव होने अथवा ऐसे ही अन्य भयंकर लक्षणें के कारण आकर्षित होता है।
क्षय रोग का निदान थूक की महीन परत में गुलिकार्ति के दंडाणुओं की प्राप्ति, थूक की प्रयोगशालाओं में विशेष माध्यमों में बोने तथा गिनीपिगों (guinea pigs) में थूक की अल्प मात्रा को सुई से डालकर और इनमें क्षय रोग का विकास अवलोकन करने से हो सकता है। किसी अन्य रोगी से क्षय का संक्रमण हो जाने की पुष्टि तथा उपचारगृह, ट्युबर्कुलिन और एक्स-रे परीक्षा से प्राप्त प्रमाण रोग के निदान के संपोषक होते है। इस रोग का श्वासनलीशोथ, फुफ्फुस की विद्रधि, ब्रॉन्किएक्टासिस (स्थायी रूप से फुफ्फुस का विस्तारित तथा रोगसंक्रमित होना) तथा अधिक आयु के पुरूषों में होनेवाले फुफ्फुस के कर्कट (कैंसर, cancer) के लक्षणों एवं इस रोग के लक्षणों में जो अंतर होता है उसे पहचानना आवश्यक है।
उपचार-क्षयरोग के उपचार की विचारधारा में स्ट्रेप्टोमाइसीन (Streptomycin) की खोज ने क्रांति ला दी है। क्षय रोग के उपचार में स्वच्छ वायु, पौष्टिक भोजन तथा विश्राम के अतिरिक्त अब रसायन चिकित्सा का भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है; यहां तक कि कुछ लोग तो बिना भीषण अवस्था हुए रोगी के लिए विश्राम भी आवश्यक नहीं समझते। अब आरोग्यनिवास उपचार के प्रधानाश्रय नहीं रह गए हैं। रोगियों के अभाव के कारण अमरीका एवं यूरोपीय देशों में बहुतेरे आरोग्यनिवास बंद तक हो गए हैं।
आजकल सामान्यतया प्रयुक्त होनेवाली तीन ओषधियाँ है: स्ट्रेप्टोमाइसीन, पी. ए. एस. (P.A.S) तथा आइ. एन. एच. (I.N.H)। इनमें से आइ. एन. एच. सर्वाधिक शक्तिशाली है। स्ट्रेप्टोमाइसीन का स्थान इसके पश्चात् आता है और पी. ए. एस.(P.A.S) का सबसे अंत में। परंतु प्रमुख बाधा यह है कि इन ओषधियों के, विशेषकर आइ. एन. एच. के प्रति रोगाणुओं में अतिशीघ्र प्रतिरोधशक्ति विकसित होती है। प्रतिरोध बचाने के उद्देश्य से एक ही समय पर कम से कम दो ओषधियों एक साथ दी जाती हैं। स्ट्रेप्टोमाइसीन अंत:पेशी सुइयों (I.M.Injection) द्वारा प्रति दिन एक ग्राम की मात्रा में दिया जाता है तथा आइ. एन. एच. प्रतिदिन १०० से ४०० मिलीग्राम तक की मात्रा में और पी. ए. एस. प्रति दिन १० ग्राम की मात्रा में खिलाया जाता है। कोई भी दो ओषधियों एक साथ दी जाती हें और यह संयोजन बहुधा तीन से लेकर छह माह तक के पश्चात परिवर्तित कर दिया जाता है। ओषधि द्वारा उपचार न्यूनातिन्यून एक वर्ष से लेकर १० मास तक अविराम रूप से अवश्य होना चाहिए। विशेष अवस्थाओं में रोगी पर अपसन्न उपचार (Collapse measures) का प्रयोग या उसके रूग्ण फुफ्फुसों का पुनर्छेद (resection) किया जा सकता है। जब रोग का प्रसार कम होता है, विशेषतया जब वह एक स्थान में सीमित होता है, तब अपसन्न उपचार किया जा सकता है। यह प्रतिवर्ती (reversible) हो सकता है, जैसे पी. पी. (P.P.) जिसमें वायु उदर में डाली जाती है, या ए. पी. (A.P.) जिसमें वायु छाती में प्रविष्ट की जाती है। अपसन्न उपचार अप्रतिवर्ती (irreversible) भी होता है, जैसे थोरैकोप्लास्टी (Thoracoplasty) में। इसमें ऊपर की पसलियाँ हटा दी जाती है और शेष वक्ष की भित्ति अपसन्न फुफ्फुस पर आच्छादित कर दी जाती है। यहाँ पर रोग फुफ्फुस के एक खंड तक, या एक फुफ्फुस तक, सीमित होता है, जहाँ पर उस फुफ्फुस को ही निकाल देते हैं। आक्रांत फुफ्फुस के पुनर्छेद के पश्चात् बचा हुआ फुफ्फुस शरीर की साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति सफलता के साथ कर लेता है।
निवारण-मनुष्यों में रोग का संसर्ग दो प्रमुख माध्यमों से होता है। प्रथम एवं अत्यधिक महत्वपूर्ण है रोगी मनुष्य से संक्रमण और द्वितीय है रोग से संक्रमित गाय के दूध का सेवन।
सभी रोकसंक्रमित्त व्यक्ति समान रूप से रोगसंचारी नहीं होते। दीर्घकालिक फुफ्फुस रोग से व्यथित रोगी, जिनके फुफ्फुस में गुहाएँ हो गई हैं, संभवत: सर्वाधिक घातक होते हें, क्योंकि ऐसे रोगी गुलिकार्ति के दंडाणुओं से भरे हुए थूक को खाँसकर प्रचुर मात्रा में निकालते रहते हैं। इनकी प्रतिरोधशक्ति अपेक्षया अधिक होती है, फलत: ये वर्षों तक जीवित रहते है और घर पर ही रहने में समर्थ होते हैं। इस रोग के ऐसे रोगी भी होते हैं जिनके लक्षण क्षय के लक्षणों से नहीं मिलते, अतएव ठीक निदान नहीं हो पाता। ऐसे रोगियों के प्रति कोई रक्षात्मक कार्रवाई नहीं की जाती। इसलिए वे अपने घरों, पास पड़ोस के स्थानों तथा अपने संबंधियों एवं परिचितों को रोगसंक्रमित करते रहते हैं।
ऐसे व्यक्तियों को पृथक् रखने के लिए चिकित्सालयों या आरोग्यशालाओं अथवा क्षयगृहों में भर्ती कर देना चाहिए। यदि वे वहाँ भरती नहीं किए जा सकते, तो उन्हें ऐसे पृथक कमरे में रखना चाहिए, जहां निस्संक्रमण का पूर्ण प्रबंध हो। उनका थूक अलग एकत्रित करते रहना चाहिए और अंत में उसे जला देना चाहिए। रोगी को पर्याप्त पोषक आहार मिलना चाहिए और उसका उपचार भी पर्याप्त रूप से होना चाहिए। ग्राँशे (Grancher) ने क्षय के रोगियों के घरों से शिशुओं को पृथक रखने तथा उन्हें अन्य पालकों के साथ रखने का आग्रह किया है।