गुलाब रोज़ेसी कुल (Rosaceae) की रोसा प्रजाति का सदाबहार पौधा है। इसके फूल सुगंध, रूप सौंदर्य और रंग में अद्वितीय हैं। इसका मूल स्थान भारत है। रोसा इंडिका (R. indica) और रोसा बेंगालेंसिस (R. bengalensis) इत्यादि वानस्पतिक नाम भी इस बात के द्योतक हैं। हिमालय की तराई और दक्षिणवर्ती इलाकों में यह नैसर्गिक रूप में पाया जाता है। रोसा प्रजाति के अंतर्गत इसके विशिष्ट गुणधर्म तथा आकार प्रकार का वैभिन्य इतना जटिल होता जा रहा है कि उसके आधार पर गुलाब के विभिन्न पौधों में पारस्परिक सामंजस्य स्थापित करना वनस्पतिज्ञों के लिए कठिन हो गया है। वनस्पतिज्ञों के बहुमतानुसार गुलाब की १०० से अधिक जातियाँ संभव हैं।

सुगंध और सौगंधिक तैल की दृष्टि से गिने चुने गुलाब ही महत्वपूर्ण हैं। संकर जातियों में से केवल निम्नलिखित तीन जातियों का उपयोग किया जाता है:

  1. रोसा डैमैसिना मिल्ल. रूपक ट्राइगिंटिपीटला डाइक (Rosa damascena Mill. forma trigintipetala Dieck) जिसे अंग्रेजी में पिंक डैमैस्क रोज़ (Pink damask rose) और हिंदी में चैती गुलाब कहते हैं। गंधांश अत्यधिक होने के कारण, इत्र और सौगंधिक तैल आसवन के लिए इसकी खेती की जाती है। भारत में अलीगढ़, जौनपुर, गाजीपुर, कन्नौज, अमृतसर तथा देवघर में इसकी खेती होती है। होली के लगभग इसकी मुख्य फसल प्रारंभ होकर एक मास में समाप्त हो जाती है। टर्की और बलगेरिया में भी इसकी खेती होती है। भारत में इन फूलों की वार्षिक खपत लगभग ४०० मीटरी टन कही जाती है।
  2. रोसा डैमैसिना मिल्ल. भेद आल्वा लिन्न. (R. damascena Mill. var alba Linn), जिसे अंग्रेजी में ह्वाइट कॉटेज रोज़ (White cottage rose) कहते हैं। यह सुगंध की दृष्टि से घटिया समझा जाता है। सहिष्णु होने के कारण शीतप्रधान इलाकों में और चैती गुलाब के खेतों के चारों ओर झाड़ियों के रूप में लगाया जाता है।
  3. रोसा सेंटिफोलिया लिन्न. (R. centifolia Linn), जिसे रोसा गैल्लिका भेद सैंटिफोलिया कहते हैं। इसका अंग्रेजी नाम कैबेज रोज़ (Cabbage rose) है। भारत में कानपुर और कन्नौज के आसपास, फ्रांस में ग्रासे तथा मोरक्को में मुख्यत: इसकी खेती होती है। इसका गुलाबजल तथा गुलकंद बनाने में उपयोग होता है। फ्रांस में इससे गंध सार तत्व बनाया जाता है। यह आसवन विधि से इत्र बनाने में उपयुक्त नहीं है।

उपर्युक्त तीनों किस्मों के पौधे होते हैं। क्रिमजन रैब्लर (Crimson rambler) नामक गुलाब की लता होती है।

गुलाब की खेती के लिए आसपास की भूमि से ऊँची भूमि उपयुक्त होती है। खेत के आसपास पेड़ और उनकी छाया नहीं होनी चाहिए। खेतों की मिट्टी दुमट होनी चाहिए और उसमें बुझे चूने तथा गोबर पत्ती की कंपोस्ट खाद का पर्याप्त अंश डालना चाहिए। यदि मिट्टी में पानी को सोखकर बहा देने की क्षमता न हो तो जमीन को एक डेढ़ मीटर की गइराई तक खोद कर डेढ़ सौ से दो सौ मिली. की गहराई तक कंकड़, ईटां, कोयला इत्यादि से भरकर पानी के बहने का प्रबन्ध करना चाहिए। क्यारियों में मिट्टी भरने से पूर्व हड्डियों का चूरा और ऊपर गोबर पत्ती की कंपोस्ट खाद अच्छी तरह मिला देनी चाहिए। गुलाब के लिए प्रात: कालीन शीतल वायु, ओस तथा दोपहर से पूर्व की धूप लाभदायक होती हैं। कारखानों के धुएँ से गुलाब को दूर रखना चाहिए। घोड़े और सूअर की लीद, कबूतर की बीट, मछली और खली का उपयोग खाद के लिए किया जाता है। किंतु ये सभी दो वर्ष की पुरानी और सड़ी होनी चाहिए। वार्षिक कटाई छँटाई के समय पौधे की जड़ों को नंगाकर सूर्यस्नान कराना स्वास्थ्यकर होता है। आवश्यकतानुसार नियमित रूप से जल देना चाहिए। गुलाब के रोपने और प्रसरण के लिए कमल तथा चश्मा बाँधने की विधियों का प्राय: उपयोग होता है।

कुछ कीड़े, जैसे झिनगा, दीमक, ग्रीन फ्लाई, लीफ रोलिंग, सॉ फ्लाई इत्यादि, कुछ रोग जैसे गेरूई, पत्तियों पर काले रंग के गोल दाग और मोर्चे से बचाने के लिए पौधों पर यथासमय रासायनिक द्रवों का छिड़काव करना चाहिए।

सं. गं.-गुंथर, ई. : दि एसेंशियल ऑएल, वॉल्यूम ५, पृ. ३-४८ (१९५२), डी. वान्नास्ट्रैंड कंपनी इंक., न्यूयार्क; नारायणस्वामी, वी. ऐंड विश्वास, के. : सर्वे ऑव रोज़ग्रो इंग सेंटस ऐंड रोज़ इंडस्ट्री इन इंडिया, काउंसिल ऑव साइंटिफ़िक ऐंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, नई दिल्ली (१९५७); सदगोपाल : हिस्ट्री ऑव रोज़, रोज़वाटर ऐंड अतर ऑव रोज (पार्ट ए), वॉल्यूम १४, नं. ११, पृ. २९५-३०२ (१९४९)। (सद्.)

गुलाब (आयुर्वेद में)-इसकी जातियाँ उद्यानज, गुलाबी, पीताभ अथवा श्वेतपुष्प लता सदृश फैलनेवाली तथा स्वावलंबी भेद से अनेक प्रकार की होती हैं। आयुर्वेद में इसके पौधे को तरुणी या शतपन्नी कहते हैं और इसके पुष्प कटुतिक्त, शीतवार्य, हृद्य, सारक, शुक्रल, पाचक, तीनों दोषों और रक्त के विकारों को दूर करनेवाले बतलाए गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आयुर्वेदीय साहित्य में इसका प्रवेश बाद में हुआ है। यूनानी चिकित्सा में इसका अधिक उपयोग बतलाया गया है। इसके अनुसार गुलाब पुष्प सौमन्यजनक, हृदय, मस्तिष्क, यकृत, आमाशय और आँतों को बलप्रद, अधिक प्रमाण में अथवा ताजा देने से रेचक, थोड़े प्रमाण में अथवा शुष्क देने से संग्राहक, पित्तशामक तथा स्वेद की दुर्गंध मिटाने और अधिक स्वेद के रोकनेवाले कहे गए हैं। लेप करने से गरम शोथ को विलीन करनेवाले और पीड़ाशामक होते हैं। गुलरोगन, गुलकंद तथा अर्क गुलाब आद गुलाब के पुष्प से ही तैयार किए जाते हैं। इसका सामान्य व्यवहार तथा चिकित्सा दोनों में उपयोग होता है। यूनानी चिकित्सा में गुलाबकेशर तथा फल का भी उपयोग बतलाया गया है।

सफेद गुलाब के फूल को सेवती गुलाब कहते हैं। संभवत: शतपत्री नाम से इसी का आयुर्वेद में उपयोग किया गया है। (ब. सिं.)