गुर्जर, गूजर १. पश्चिमी भारत की एक महत्वपूर्ण पशुपालक जाति। इस जाति के प्रमुख निवासी यमुना नदी के तट पर जगाधरी के निकट सहारनपुर जिला, बुंदेलखंड, ग्वालियर, गुजरात, खिड़ी और राजस्थान की अन्य रियासतों तथा दक्षिणी पंजाब में है। हिमाचल प्रदेश टेहरी गढ़वाल और जौंसारबावर के पहाड़ों पर गूजरों के दल अक्सर अपने पशुओं के साथ घूमते दिखाई पड़ते हैं।
शारीरिक लक्षणों और सामाजिक स्थिति के अनुसार जाट, गूजर और अहीर समान प्रतीत होते हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गूजर गुजरात के आदिनिवासी हैं पर यह भ्रांतिपूर्ण है। वस्तुत: उन्हीं के नाम पर गूजर अर्थात गुर्जर से गुजरात अथवा गुर्जरात्र नाम पड़ा है। परंतु शारीरिक रचना के आधार पर यह स्पष्ट है कि गूजर पंजाब और मध्य पश्चिमी एशिया की खानाबदोश जनजातियों से अधिक मिलते हैं।
गूजरों के कुछ समुदाय हिंदू हैं और कुछ मुसलमान, परंतु इनकी सामाजिक रीतियाँ और प्रथाएँ बहुत कुछ एक सी हैं। दोनों में ही बहिर्विवाही गोत्र पाए जाते हैं। अनेक गोत्रों के नाम राजपूतों जैसे हैं। (जैसे, तोमर, भट्टी, रावल, राठी)। ये गोत्र अपनी उत्पत्ति राजपूतों से मानते हैं जो किसी कारण भूतकाल में क्षत्रिय पद से भ्रष्ट हो गए। उत्तरी भारत के हिंदू वैवाहिक नियमों की भाँति ही इनमें मामा के गोत्र और सपिंड संबंधियों में विवाह करना वर्जित है। यद्यपि यह नियम सभी गूजर नहीं मानते। १९वीं शताब्दी तक गूजरों में शिशु कन्यावध और बहुपतित्व की परंपराएँ अनजानी न थीं, परंतु अब ये बंद हो गई हैं। बड़े भाई की विधवा से विवाह और संतानोत्पत्ति की प्रथा अभी भी प्रचलित है। ग्रामीण हिंदुओं की तरह गूजरों में भी विवाह कम आयु में होते हैं, कन्यामूल्य का जहाँ तहाँ प्रचलन है, विधवा विवाह और विवाहविच्छेद को सामाजिक मान्यता प्राप्त है। पहले विवाह की रीतियाँ जाति का मुखिया संपन्न करा देता था, अब हिंदू गूजर ब्राह्मण पुरोहित से यह कार्य कराते हैं। इसी प्रकार जन्म और मृत्यु संस्कारों में भी ब्राह्मण का पौरोहित्य बढ़ रहा है।
सामाजिक रीतियों में यह परिवर्तन गूजर जाति की बदलती हुई सामाजिक स्थिति के द्योतक हैं। इधर गूजर अपने को चंद्रवंशी क्षत्रिय कहने लगे हैं और क्षत्रियो के अनुसार अपने रीति रिवाज बदलते जा रहे हैं।
मुसलमान गूजर की अधिक जनसंख्या अवध और मेरठ प्रदेशों में है। कहा जाता है, तैमूर के आक्रमण के समय इनका धर्मपरिवर्तन हुआ था। इनका सामाजिक संगठन तथा प्रथाएँ अभी भी हिंदू गूजरों से मिलती हैं। अवध में इस समुदाय के लोग गाजी मियाँ की कब्र पर मलीदा चढ़ाते हैं, और साथ ही होली, नागपंचमी जैसे हिंदू त्योहार भी मनाते हैं। शुक्रवार को ये अपने पितरों को भोजनदान करते हैं। अपने दैनिक जीवन में ये हिंदू गूजरों जैसे ही छूआछूत मानते हैं। अधिकांश मुसलमान गूजर सुन्नी हैं जो शिया तथा नीचे तबके के मूसलमानों से रोटी बेटी के व्यवहार में परहेज रखते हैं।
गूजरों के मूल निवास के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। संभवत: वे भारत के उत्तर पश्चिमी मार्ग से ईसा की आरंभिक शताब्दियों में, अथवा उससे पूर्व कभी, इस देश में आए और अनेक स्थलों में बस कर क्षत्रियवत् उनका शासन पालन किया। इनकी प्रबल क्षत्रियपदीय जाति गुर्जर प्रतिहार कहलाई जिसने जोधपुर के समीप अपने केंद्र मंदौर से उठकर मालवा और कन्नौज की निकटवर्ती भूमि पर अधिकार कर लिया। कन्नौज का गुर्जर प्रतीहार राजवंश इनका ही था (देखिए, प्रतीहार)। गुर्जरों का भारतीय साहित्य में पहला उल्लेख सातवीं सदी के प्रारंभ में बाणभट्ट ने अपने ‘हर्षचरित’ में हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन की विजय के संदर्भ में हूणों के साथ साथ (हूण-हरिण-केसरी) गुर्जरों की नींद हर लेने वाला (गुर्जर प्रजागरो) कहकर किया है। (कृ. शं. मा.)
२. पश्चिमी भारत के प्रदेश का नाम जिसे गुर्जरात्र (गुर्जरात्रा) भी कहते हैं। गुर्जरवासी गुर्जर कहे जाते थे। प्रदेश का शासक गुर्जरेश्वर कहलाता था और उसका प्रधान स्वामी गुर्जरेश्वरपति। सातवीं शताब्दी के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह प्रदेश मालवा की सीमाओं से संलग्न था। ९वीं १०वीं शताब्दियों के लेखों से यह भी जान पड़ता है कि जोधपुर, जयपुर, अलवर और राजस्थान के अंतर्गत मेवाड़ का उत्तरी भाग गुर्जर प्रदेश में स्थित था। अलबरूनी (१०३० ई.) गुजरात का उल्लेख करता है, जिसमें उसके अनुसार, अलवर और जयपुर राज्यों के कुछ भाग सम्मिलित थे, और नहरवल (अनहिल्लपट्टन) पश्चिमी भारत के सुदूर दक्षिण में स्थित था। ११वीं शताब्दी तक पश्चिमी भारत का वर्तमान गुजरात गुर्जर या गुर्जरात्र नाम से प्रसिद्ध हो गया था। यद्यपि यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि राजपूताना का प्राचीन गुर्जर प्रदेश ११वीं शताब्दी के मध्य के पश्चात् भी उसी नाम से पुकारा जाता रहा। १८वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश का सहारनपुर जिला, गुजरात के नाम से अभिहित होता था, और अब ग्वालियर प्रदेश का एक जिला भी गुर्जरगढ़ कहलाता है। संप्रति गुजरात, गूजरखान और गुजरानवाला पंजाब में हैं। इस समय गुर्जर कृषक उत्तर-पश्चिमी, पश्चिमी और उत्तरी भारत में बसे हुए हैं, और यहां के मूल निवासियों से घुल मिल गए हैं। ऐसा अनुमान है कि उत्तर भारत में गुर्जरों का निरंतर स्थानपरिवर्तन मूल रूप से राजपूताना के गुर्जर प्रदेशों आरंभ हुआ था। ९वीं १०वीं शताब्दी के अरब भूगोल शास्त्रियों ने जुर्ज या जुज्र प्रदेश का उल्लेख किया है, जो स्पष्ट रूप से गुर्जर का अरबी नाम है।
छठी शताब्दी में राजपूताना के गुर्जर प्रदेश में कर्ण राजवंश का शासन था। उड्डनाम के राजकुमार ने दक्षिण गुर्जर में भड़ौच का राज्य स्थापित किया, जहां वह सामंत रूप में शासन करता था। उस राजा का नाम अज्ञात है। भड़ौच का कर्ण राजवंश अपने को गुर्जर नृपवंश का उत्तराधिकारी मानता है। ७वीं शताब्दी के मध्य भाग से दीर्घकाल तक गुहिल वंश जयपुर और उदयपुर के कुछ भागों पर शासन करता रहा जो भाग प्राचीन गुर्जर प्रदेश में स्थित थे। इस राजवंश के कुल बारह शासकों के नाम ज्ञात हैं, जिनमें प्रथम का भर्तृपट्ट और अंतिम का बालादित्य है। बालादित्य १०वीं शताब्दी के मध्य में हुआ। यह असंदिग्ध है कि उस काल के अभिलेखों में गुर्जरेश्वर और गर्जर शब्द इसी वंश के राजाओं के लिए प्रयुक्त हुए हैं। ८वीं शताब्दी के अंतिम भाग में गुहिलवंश ने मालवा के प्रतिहार वत्सराज का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। इसी कारण वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय का उल्लेख एक राष्ट्रकूट अभिलेख में गुर्जरेश्वर पति के रूप में मिलता है। गुहिलवंश के राजाओं ने प्रतिहारों के राज्यनिर्माण में बहुत सहायता की।
१०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रतिहार वंश की एक शाखा कन्नौज के प्रतिहारों के सामंत के रूप में प्राचीन गुर्जर प्रदेश के अलवर राज्य में शासन करती थी। एक अभिलेख में अलवर के राजा मथनदेव को गुर्जर प्रतिहारान्वय कहा गया है जिसका अर्थ है गुर्जर का प्रतिहार वंश। इस शब्द का उल्लेख अलवरवंश को उसके कान्यमुब्ज-प्रतिहार-प्रभुवंश से पृथक करने के लिए ही किया गया है।
प्रतिहार वंश की एक अन्य शाखा छठी शताब्दी के मध्य से ९वीं शताब्दी के मध्य तक जोधपुर में, जो प्राचीन गुर्जर देश में स्थित था, शासन करती रही।
ऊपर लिखा जा चुका है कि पश्चिम भारत का वर्तमान गुजरात ११वीं शताब्दी के मध्य भाग से, गुर्जर या गुर्जरात्र कहा जाता रहा है। सोल्काीं (चालुक्यवंशी) शासको ने वहां १३वीं शताब्दी तक शासन किया। तत्पश्चात् उसपर बघेलों का आधिपत्य होगया। १३वीं शताब्दी के अंतिम काल में मुसलमानों ने इसे बघेलों से छीनकर दिल्ली के राज्य में मिला लिया।
सं. ग्रं.-जे. कैंपबेल : द गुर्जराज, बांबे गज़ेटियर, खंड ९; डी. सी. गांगुली : हिस्ट्री ऑव द गुर्जर कंट्री, इंडियन हिस्टारिकल क्वार्टर्ली, खंड १०; आर. सी. मजूमदार: द गुर्जर प्रतिहाराज, जर्नल ऑव द डिपार्टमेंट ऑव लेटर्स, खंड १०। (धीरेंद्रचंद्र गांगुली.)