गुरखा, गोरखा नेपाल की प्रधान जाति। गोरखा गंडक नदी के पूर्वोत्तर भाग का नाम है, जिस प्रदेश में रहने के कारण इस जाति का नाम गोरखा या गुरखा पड़ा। जनसाधारण में गोरखा का अर्थ गोरक्ष या गाय का रक्षक प्रचलित है। कुछ लोगों के मत से गुरु गोरखनाथ के अनुयायी अथवा वंशज होने के नाते यह जाति गुरखा कहलाती है। गोरखनाथ को गुरखे अपना आध्यात्मिक पूर्वज मानते भी हैं।

इस प्रकार गुरखा शब्द का प्रयोग मुख्यत: उन सब वर्गों और जातियों के लिए होता है जो गोरखा प्रदेश की आदिवासी हैं। इनमें युद्धप्रियता की परंपरा है। ऐसी जातियों में प्रमुख हैं खस, गुरुंग और मांगर। इनमें कुछ कदाचित मंगोल प्रजाति के हैं। परंतु कई सदियों से हिंदुओं के बीच रहते हुए इनके रीतिरिवाज आदि बदल चुके हैं। मुसलमानों के आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए अजब नहीं जो स्थानीय ब्राह्मणों ने इन्हें क्षत्रिय बना लिया हो। अब इनकी गणना स्थानीय क्षत्रिय जातियों में की जाती है।

खस जाति अब पूर्णत: आर्यभाषाएँ बोलती हैं। कई सौ वर्षों से ब्राह्मणों से निकट संपर्क के कारण इनपर हिंदू प्रभाव प्रचुर मात्रा में प्रगट हैं। पूर्वकाल में इस जाति और ब्राह्मणों के बीच कुछ विवाह भी हुए। ये जातियाँ अपने को यज्ञोपवीत पहनने का अधिकारी मानती हैं। भारतीय सेना में गुरखा सैनिकों और अधिकारियों की संख्या बहुत है, अतएव परंपरागत सैनिक होने के नाते ये भी अपने को क्षत्रिय कहलाने के अधिकारी समझते हैं।

गुरुंग अभी भी लगभग पूर्णत: मंगोलायड हैं। इनका धर्म हिंदू बौद्ध हैं, परंतु इनकी धार्मिक रीतियों में आदिवासी जीववाद की झलक देखने को मिलती हैं। शायद बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद भी इन्होंने अपना आदिधर्म पूरी तौर से नहीं छोड़ा। इनमें नदियों, पहाड़ों की पूजा और पशु बलि प्रचलित हैं। बीमारी या पारिवारिक कष्टों के अवसरों पर ऐसी बलिपूजा का आयोजन किया जाता है जिसमें पहाड़ी ब्राह्मण पुरोहित का कार्य करता है। इसी प्रकार जन्म, विवाह या मृत्यु के अवसर पर भी ब्राह्मण पुरोहित द्वारा धार्मिक क्रियाएँ संपन्न कराई जाती हैं।

माँगर जाति की सामाजिक और धार्मिक रीतियाँ हिंदू धर्म और जीववाद का मिश्रण कही जा सकती हैं। ये पौराणिक हिंदू देवता पूजते हैं जिसके लिए ब्राह्मण पुजारी का कार्य करता हैं। आदिदेवता भी पूजे जाते हैं और इनकी पूजा घर या कबीले का मुखिया ही करता हैं।

इन सामाजिक धार्मिक अंतरों के बावजूद सैनिक गुरखे अपने को हिंदू मानते हैं और हिंदू के समान व्यवहार करते हैं। धार्मिक कृत्यों के लिए ब्राह्मणों को बुलाते हैं और हिंदुओं के साधारण त्योहार मनाते हैं। इनमें जेठ दशहरा अत्यंत प्रचलित है। इस दिन ये शस्त्रपूजा करते हैं और देवी को पशुबलि देते हैं। इसी प्रकार विजयादशमी का त्योहार इन्हें अति प्रिय है, क्योंकि उसमें भी सैनिक परंपरा की विजय परिलक्षित है।

हिंदू होते हुए भी गुरखों में छूआछूत के बंधन कठोर नहीं हैं। प्रत्येक गुरखा अपना दाल चावल स्वयं पकाकर अकेले खाता है, परंतु शेष प्रकार का भोजन सब गुरखे साथ बैठकर खा सकते हैं। ये मांसाहारी हैं, परंतु साधारण हिंदुओं की भांति ही गोमांस को अभोज्य मानते हैं। बकरी का मांस ये निकृष्टतम मानते हैं। और केवल निम्न वर्गों के लोग ही इसे खाते हैं। गुरखों को शिकार अत्यंत प्रिय है। वन्य पशुओं का मांस और मछली ये बड़े चाव से खाते हैं।

नेपाल का वह प्रदेश जिसमें गुरखा जाति के लोग रहते हैं पहाड़ी और ऊँचा नीचा है। समतल भूमि बहुत कम है। जहाँ कही समतल भूमि उपलब्ध है, लोग खेती करते हैं। पहाड़ की ढालों पर क्यारी बनाकर मोटे अनाज उगाए जाते हैं। अधिकतर एक ही फसल ये अपने खेतों में उगा पाते हैं जो वर्षारंभ पर बोई जाती है और शीत के पूर्व ही काट ली जाती है। निचले प्रदेशों और घाटियों में जाड़े की फसल भी उगाई जाती है। गुरखों का एक अन्य धंधा पशु और भेड़ पालना है। भेड़ के ऊन से मोटा वस्त्र और कंबल तैयार करते हैं जो अधिकतर अपने उपयोग में लाते हैं। कुछ गुरखे मजदूरी करते हैं और पर्वतारोही यात्रियों का बोझा ढोकर और उनका मार्गदर्शन कर अपनी जीविका प्राप्त करते हैं। परंतु सबसे महत्वपूर्ण सेना में वृत्ति है जिसके लिए गुरखे संसार भर में प्रसिद्ध हैं। ये विकट लड़ाके होते हैं। भारतीय सेनाओं में गुरखा रेजिमेंट का विशिष्ट स्थान है।

हिमालय की अन्य जातियों की भाँति गुरखों पर भी जातिप्रथा का प्रभाव उतना अधिक नहीं है जितना शेष भारत में। विवाह के विषय में जाति के बंधन इनमें कठोर नहीं है और ऐतिहासिक काल में ही इनमें नेपाल की अन्य जंगली जातियों से रक्तसंमिश्रण अधिक मात्रा में हुआ है। कुछ इतिहासज्ञों का विचार है कि निकट भूत में इस जाति में बहुपति प्रथा और कन्यावध की प्रथा प्रचलित थी। अधिकांश पुरुषों का घर छोड़कर सेनाओं में भर्ती के लिए जाना इन प्रथाओं का कारण हो सकता है।

गुरखा अपने को हिंदू कहते और मानते हैं, यद्यपि इनका धर्म विशुद्ध ब्राह्मणवाद से भिन्न है। इनमें कुछ वैदिक रीतियाँ हैं, कुछ पौराणिक और कुछ जिन्हें आदिवासी धर्म कहा जा सकता है। इनमें इंद्रपूजा प्रचलित है जिसे इंद्रजात्रा कहते हैं, परंतु यह पूजा रथयात्रा के साथ मनाई जाती है जो कुमारीदेवी का त्योहार माना जाता है। कदाचित यह अनार्य धर्म की उर्वराशक्ति पूजा का एक रूप है। अन्य नेपालियों के सदृश गुरखों के प्रधान देवता शिव हैं और शिवरात्रि इनका प्रधान त्योहार है। शिव को पशुपति भी कहते हैं, और इस रूप में पशुपति की प्रतिष्ठा नेपाल के राजधर्म और सिक्कों पर भी है। वैसे धार्मिक रीतियों में ये शाक्त धर्म के अधिक निकट लगते हैं। दुर्गापूजा के अवसर पर पशुबलि और संबंधित रीतियाँ इसका प्रमाण हैं। भूतप्रेतों की पूजा भी इनमें प्रचलित है। रोग का कारण ये भूतप्रेत का नाराज होना मानते हैं और इनके ओझा इससे छुटकारे के लिए जादूमंतर और बलि का सहारा लेते हैं।

नेपाल के दुर्गम पहाड़ों, घाटियों में रहनेवाली इस जाति में आधुनिकता का प्रभाव बहुत कम है, यद्यपि गुरखा पुरुषों का एक बड़ा भाग बाहर की दुनिया से खूब परिचित है। इनमें अभी भी स्वामिभक्ति सच्चाई और सरलता जैसे गुण देख पड़ते हैं। गुरखा राणाओं ने १७६८ ई. में नेपाल पर अधिकार कर लिया और यद्यपि हिंदू राजवंश बना रहा, सारा शासनाधिकार और प्रभुता गुरखा राणाओं के हाथ चली गई। उनके ब्रिटिश भारतीय सत्ता से भी अनेक युद्ध हुए। उनकी सत्ता नेपाल में प्राय: दो सौ साल तक बनी रही। (कपाांकर माथुर.)