गुब्बारा वायु अथवा गैस से भरा आवरण जिसका उपयोग आकाश विचरण के लिये किया जाता है। यह रेशम या तत्सदृश किसी मजबूत पदार्थ का बना होता है, जिसपर वार्निश पुता हुआ रहता है, ताकि इसके अंदर से बाहर अथवा बाहर से अंदर की ओर वायु अथवा गैस का विसरण (diffusion) न हो सके। इसके अंदर वायु से कम घनत्ववाली गैस भरी जाती है, जिससे यह अपने से अधिक भार की वायु को विस्थापित करती है। परिणामस्वरूप वायु की उछाल अधिक हो जाती है और यह ऊपर उठने लगता है यह तब तक लगातार ऊपर उठता रहता है जब तक इतनी ऊँचाई तक नहीं पहुंच जाता जहाँ विस्थापित वायु का भार इसके भार से बराबर होता है। गुब्बारे के साथ (नीचे की ओर) टोकरीनुमा एक बड़ा सा प्रकोष्ठ लगा होता है। जिसमें यात्री, विभिन्न प्रकार के यंत्र एवं उपकरण तथा सामान रखते हैं।फ्रांसिस्को डि लाना (Fransisco de lana) नामक एक जेस्युइट पुरोहित ने सन् १६७० में यह विचार किया कि यदि किसी पात्र में वायु का घनत्व बाहरी वायु के घनत्व की अपेक्षा बहुत कम कर दिया जाए तो वह पात्र आर्किमिडीज़ के सिद्धांत के अनुसार वायु में ऊपर उठने लगेगा, जब तक वह इतना ऊपर नहीं उठ जायगा जहाँ, विरलता के कारण, वायु का घनत्व पात्र के अंदर की वायु के घनत्व के लगभग बराबर हो जाए। उसने नौका के आकार का एक यान बनाया और उसमें ताम्र के अत्यंत पतले चद्दर से बने हुए खोखले गोले लगाए। उसका विचार था कि उन गोलों में काफी सीमा तक निर्वात उत्पन्न कर देने से यान समेत ऊपर उठने लगेंगे। किंतु उसका प्रयत्न सफल नहीं हो सका; गोलों को वायुशून्य करने पर वे वायुमंडलीय दाब के कारण नष्ट हो गए। इसके बाद लाना ने उन गोलों में गरम वायु भरने का विचार किया, किंतु उसने यह विचार इसलिए त्याग दिया कि ऐसा करने से उसे ईश्वर से रुष्ट होने का भय जान पड़ा।
लाना की उपर्युक्त धारणा को कार्यरूप में फ्रांस के लियॉन्स प्रांत के माँगाल्फ्ये बंधुओं, ज़ोज़ेफ़ मिचिल माँगाल्फ्ये (१७४०-१८१०) तथा जैक्विस एटिएन माँगाल्फ्ये (१७४५-९९), ने परिणत किया। उन्होंने सिल्क का एक बड़ा थैला बनाया जिसका मुँह नीचे की ओर खुला रखा और उसके नीचे कागज इत्यादि जलाकर धुएँ को उस थैले में भरते रहने की व्यवस्था की। अपने इस प्रयोग को उन्होंने ५ जून, १७८३ को अपनी जन्मभूमि एन्नोने (Annony) में विशाल जनसमूह के समक्ष प्रदर्शित किया। धुँआ भरते ही यह थैला अत्यंत द्रुत गति से ऊपर उठने लगा। चूँकि इस गुब्बारे में अंदर की वायु को निरंतर गरम रखने के लिए कोई प्रबंध नहीं था, इसलिए जब अंदर की वायु ठंड़ी होने लगी तो गुब्बारा नीचे उतर गया। इस प्रकार काफी ऊँचाई तक जाने के बाद गुब्बारा पुन: धरती पर लगभग १ १/२ मील दूर सकुशल उतर आया।
माँगाक्ल्फ्ये बंधुओं की इस सफलता ने समस्त विश्व का ध्यान इस दिशा की ओर मोड़ दिया। लगभग १७ वर्ष पूर्व सन् १७६६ में हेनरी कैवेंडिश वायु से हलकी हाइड्रोजन गैस का पता लगा चुके थे। गुब्बारे में इस गैस का प्रयोग करने की ओर भी लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ। हाइड्रोजन भरे हुए गुब्बारे की उड़ान सर्वप्रथम फ्रांस के रॉबर्ट बंधुओं तथा चार्ल्स के संमिलित प्रयास से २७ अगस्त, सन १७८३ को शैप डि मार्स (Champ de Mars) के मैदान में लाखों दर्शकों के समक्ष सफलतापूर्वक प्रदर्शित की गई। गुब्बारा छोड़ने के उपरांत भीषण वर्षा भी प्रारंभ हो गई, किंतु दर्शक उससे रंचमात्र भी प्रभावित हुए बिना ही, मंत्रमुग्ध होकर, गुब्बारे का व्योमारोहण देखते रहे। बड़ी द्रुत गति से वह लगभग ३,००० फुट ऊँचा चला गया और पौन घंटे तक आकाश की सैर करने के उपरांत लगभग १५ मील दूर तक खेत में गिरा।
१९ सिंतबर, १७८३ को ज़ोज़ेफ़ मॉगाल्फ्ये ने अपने पुराने प्रयोग को धुएँ के स्थान पर गुब्बारे में हाइड्रोजन गैस भरकर दुहराया और वारसाई में सम्राट, लुई १६वें, सम्राज्ञी, सभासदों एवं दर्शकों के विशाल जनसमूह के सामने उसे उड़ाया। इसके नीचे एक बड़ा सा टोकरीनुमा प्रकोष्ठ था, जिसमें एक भेड़, एक मुर्गा और एक बतख थे। गुब्बारे को अत्यंत कलापूर्ण ढंग से रँगा और चित्रादि से सुसज्जित किया गया था। यह गुब्बारा प्राय: आठ मिनट तक वायु में लगभग १,५०० फुट की ऊँचाई पर भ्रमण करने के उपरांत लगभग दो मील दूर एक जंगल में सकुशल उतर आया। उसके तीनों प्राणी सकुशल थे, केवल भेड़ ने मुर्गे को लत्ती मारकर दाहिने डैने में चोट पहुँचा दी थी। ये ही तीन प्राणी संभवत: प्रथम आकाश यात्री थे।
इसके बाद तो गुब्बारों पर मनुष्य को बैठाकर उड़ाने के प्रयोगों की धूम मच गई। १५ अक्टूबर, १७८३ को मेटज़ (फ्रांस) निवासी जीन रोज़ियर ने पृथ्वी से डोरियों द्वारा बंधे हुए गुब्बारों पर उड़ान भरी और सकुशल पृथ्वी पर वापस आ गए। २१ नवंबर को वे पुन: आलैंण्डीज़ के मार्क्विस के साथ एक गुब्बारे में बैठकर उड़े, जिसमें नीचे लटकते हुए पात्र में अग्नि रखी हुई थी। उस अग्नि से गुब्बारे की वायु गर्म होती रहती थी। इस प्रकार यह गुब्बारा ३,००० फुट की ऊँचाई से उड़ता हुआ लगभग साढ़े पाँच मील की यात्रा २०-२५ मिनट में पूरी कर सकुशल भूमि पर उतर आया। यह मानव की प्रथम वायुयात्रा थी। इसके दस दिन बाद, १ दिसंबर को, रॉबर्ट् बंधुओं के परामर्शदाता, जे. ए. सी. चार्ल्स, पैरिस के ट्वीलरीज़ (Tuileries) उद्यान से एक हाइड्रोजन भरे गुब्बारे में सवार होकर उड़े। दो घंटे तक २,००० फुट की ऊँचाई पर निरापद गगनयात्रा करने के उपरांत वे पैरिस से २७ मील दूर नेस्ली (Nesle) नामक कस्बे के पास सकुशल उतर आए। हाइड्रोजन गुब्बारे पर यह प्रथम मानवीय उड़ान थी। इसके बाद चार्ल्स पुन: अकेले उड़े और उनका गुब्बारा बड़े वेग से ९,००० फुट की ऊँचाई तक पहुँच गया।
इसके बाद गुब्बारों में उड़ने के कार्यक्रम बड़े जोर शोर से सारे यूरोप में बनने लगे। लंदन में १५ सितंबर, १७८४ ई. को विंसेंट लुनार्दी ने पतवार लगे हुए हाइड्रोजन गुब्बारे में उड़ान भरी। पतवारों की सहायता से उन्होंने गुब्बारे को एक बार भूमि पर उतारा और फिर उड़ाया। इस प्रकार तीन घंटे तक आकाशभ्रमण करने के उपरांत वे २४ मील दूर वेयर (Ware) नामक स्थान पर एक खेत में उतरे। इसके बाद उन्होंने कई और उड़ाने कीं जिनमें से एक में उन्होंने १०० मील से भी अधिक लंबी यात्रा संपन्न की।
सबसे प्रमुख ऐतिहासिक यात्रा जीन पियरे एफ़. ब्लैंकार्ड तथा डा. जफ्रेीज ने की थी। ७ जनवरी, सन् १७८५ को उन दोनों ने एक विशाल गुब्बारे में बैठकर इंग्लिश चैनल पार किया। यात्रावधि में कई बार उन्हें गुब्बारा नीचे उतरता हुआ प्रतीत हुआ तो उन्होंने उसपर से बहुत सा सामान नीचे समुद्र में फेंक दिया। यहाँ तक कि उन्हें पहने हुए कई कपड़े उतारकर फेंकने पड़े। तब कहीं जाकर वे पार उतर सके। इन यात्राओं की उड़ान के प्रत्युत्तर में रोज़ियर और रोमेन ने गुब्बारे पर सवार होकर फ्रांस से इंग्लैंड की ओर इंग्लिश चैनल पार करने की चेष्टा की, किंतु गुब्बारे में आग लग गई और दोनों पृथ्वी पर गिरकर मर गए।
१९वीं शताब्दी में गुब्बारे की एक महत्वपूर्ण उड़ान ७ नवंबर, १८३६ ई. को लगभग डेढ़ बजे दिन में लंदन के वॉक्सहाल उद्यान से प्रारंभ हुई थी। इसके आरोही तीन प्रमुख व्यक्ति थे। संसत्सदस्य राबर्ट हॉलैंड, मॉडक मेसॉन तथा चार्ल्स ग्रीन। रात भर की निरापद यात्रा के उपरांत दूसरे दिन यह गुब्बारा लगभग ५०० मील दूर नासू (Nassau) प्रांत के वेलबर्ग नामक स्थान पर सकुशल उतरा। इसलिए कालांतर में यह गुब्बारा नासू गुब्बारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह बहुत विशाल था और लगभग ८४,००० घन फुट गैस इसमें भरी गई थी। इसके २७ वर्षों के बाद नाडार नामक फोटोग्राफर ने लगभग २,००,००० घ. फु. धारितावाला एक विशाल गुब्बारा बनाया और उसमें १३ व्यक्तियों ने बैठकर सफलतापूर्वक व्योमभ्रमण किया।
इसके बाद से गुब्बारों की आकृति, आकार एवं रूप में अनेक परिवर्तन हुए और परीक्षणात्मक उड़ानों के अतिरिक्त वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं सैनिक कायों में भी इनका प्रयोग किया जाने लगा।
गुब्बारों का उपयोग-वायुमंडल के उच्चस्तरों का अध्ययन करने तथा उनके संबंध में विशद जानकारी प्राप्त करने के हेतु गुब्बारों का प्रयोग डा. जफ्रेीज द्वारा सन् १७८४ में आंरभ किया गया था। ऊँचाई के साथ वायु की आर्द्रता, घनत्व, ताप में परिवर्तन एवं विभिन्न गैसों के मात्रानुपातिक संमिश्रण आदि के बारे में आँकड़े एकत्र किए गए, जिनसे अंतरिक्ष यात्रा के अभिनव प्रयासों की बड़ी प्रेरणा एवं सहायता मिली है। गेलुसाक (Gay Lusaac) तथा बायो (Biot) आदि के अनुसंधानों के परिणामों से यह प्रमाणित हो गया कि पृथ्वीतल से ऊँचाई में वृद्धि के साथ वायुमंडलीय ताप का नियमित क्रम से पतन होता है। इसकी पुष्टि कालांतर में क्यू (Kew) वेधशाला की ओर से आयोजित तथा जॉन वेल्श द्वारा जुलाई, सन् १८५२ में किए गए उड़ानों द्वारा भी हुई।
सन् १९३१ में २७ तथा २८ मई को बेलजियम के ऑगस्ट पिकार्ड (Auguste Piccard) तथा कीफ़र (Keipfer) गुब्बारे में सवार होकर लगभग ५३,१७२ फुट की ऊँचाई तक गए और वायुमंडलीय दशाओं तथा अंतरिक्ष किरणों (cosmic rays) का पता लगाने की चेष्टा की। इसके बाद अनेक अन्य वैज्ञानिकों ने भी अधिकाधिक ऊँचाई तक जाकर जानकारी में वृद्धि करने के प्रयास किए। ११ नवंबर, सन् १९३५ को संयुक्त राज्य, अमरीका के सेनाधिकारियों, कैप्टेन स्टीवेंस तथा ऑरविल ऐंडरसन, ने ७२, ३९५ फुट (लगभग १४ मील) की ऊँचाई तक उड़ान भरी।
आजकल मौसम विज्ञान संबंधी वेधशालाओं की ओर से विशेष प्रकार के यंत्रसज्जित गुब्बारे आकाश में ऋतु तथा मौसम संबंधी परिवर्तनों की जानकारी के हेतु भेजे जाते हैं। ऐसे गुब्बारों को मौसम सूचक गुब्बारे (sounding balloons) कहते हैं इनमें स्वयं चालित रडियो यंत्र, स्वयं अभिलेखी यंत्र आदि रखे रहते हैं, जो नीचे पृथ्वी पर स्थित मौसम केंद्रों को सूचनाएँ प्रेषित करते रहते हैं। निश्चित ऊँचाई तक पहुँचकर ये गुब्बारे फट जाते हैं और यंत्रों का प्रकोष्ठ पेराशूट के सहारे सकुशल नीचे उतर आता है। वायुयान के स्टेशनों से बहुधा छोटे छोटे गुब्बारे हवा में छोड़े जाते हैं जिनके द्वारा विभिन्न ऊँचाइयाँ पर पवन की दशा तथा वेग का पता चलता है। अंतरिक्ष किरणों का अध्ययन करने के लिए भी गुब्बारे भेजे जाते हैं।
युद्ध में गुब्बारों का उपयोग-सबसे पहले युद्ध में गुब्बारों का प्रयोग फ्रांसीसी क्रांति के समय, १७९४ ई. में हुआ। फ्रांसीसियों ने ३० फुट व्यास का एक विशाल गुब्बारा बनाकर उसे शत्रुपक्ष की हालचाल की जानकारी के लिए उड़ाया। यह गुब्बारा डच और आस्ट्रियाई सेना के ऊपर १,८०० फुट की ऊँचाई पर उड़ा। शत्रुपक्ष को भ्रम हो गया कि फ्रांसीसी उसकी सारी गतिविधि जान गए हैं। शत्रुपक्ष हतोत्साह हो गया और फ्रांसीसियों की विजय हुई।
अमरीका के गृहयुद्ध (सन् १८६१-६५) में, गुब्बारों के प्रयोग से संघीय सेना ने विद्रोहियों की सैनिक गतिविधि का ज्ञान प्राप्त किया। इस गुब्बारे में तार द्वारा समाचार भेजने की व्यवस्था थी। संघीय सेना की विजय में गुब्बारों के योगदान महत्व का था।
फ्रैंको प्रशियन युद्ध (सन् १८७०-७१) जब प्रशियनों ने पैरिस नगर को घेरकर बाह्यजगत से उसका संबंध ही तोड़ डाला था, फ्रांसीसी गुब्बारों से समाचार भेजते और बाहर आते जाते थे।
विगत प्रथम विश्वयुद्ध (सन् १९१४-१८) में सभी बड़े राष्ट्रों ने गुब्बारों में विकास में अधिकाधिक ध्यान दिया। जर्मनी ने बेलनाकार गुब्बारा बनाया जो ५० मील प्रति घंटे चाल की हवा में भी ठीक प्रकार से काम करता था, जबकि गोलाकार गुब्बारे हवा की रफ्तार २० मील प्रति घंटे होने पर ही बेकार हो जाते थे। लेकिन इनमें त्रुटि यह थी कि इन्हें झुकाव पर उड़ाना पड़ता था जिसके कारण ये ऊँचाई पर पहुंचकर झटका खाने लगते थे। इसमें सुधार किया फ्रांसीसी कप्तान केकाट ने। उसने ऐसा गुब्बारा बनाया जो ६,००० फुट ऊँचा उड़ सकता था।
सन् १९३९ के यूरोपीय युद्ध में लंदन शहर की सुरक्षा में गुब्बारों का उपयोग हुआ। गुब्बारों को भारी संख्या में उड़ाया जाता था। ये विध्वंसक वायुपोतों के मार्ग में व्यवधान उत्पन्न करते थे। ब्रिटेन की जलसेना भी शत्रु की पनडुब्बियों की टोह लेने के लिए गुब्बारे छोड़ती थी।
गैस भरे गुब्बारों की बनावट में रेशम या सूत, अथवा दोनों का ही, प्रयोग किया जाता है, लेकिन गुब्बारा उद्योग में रबर लगा सूत ही अधिकतर काम आता है, रेशम नहीं। अमरीका के बँधुआ गुब्बारों का आवरण कपड़े की दो ऐसी ही परतों का होता है। इन परतों में भीतरी सीधी और बाहरी तिरछी होती है। इस कपड़े का भार ८.६ आैंस प्रति गज और तनाव क्षमता ५० पौंड प्रति वर्ग इंच होती है। (सुरेशचंद्र गौड़ै.)