गुप्त, सियारामशरण (१८९५-१९६४ ई.) हिंदी के प्रख्यात कवि। आप राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के अनुज थे। कवि, कथाकार और निबंध लेखक के रूप में उनका विशिष्ट स्थान है। चिरगाँव (झाँसी) में बाल्यावस्था बीतने के कारण बुंदेलखंड की वीरता और प्रकृतिसुषमा के प्रति आपका प्रेम स्वभावगत था। घर के वैष्णव संस्कारों और गांधीवाद से आपका व्यक्तित्व विकसित हुआ। वे स्वयंशिक्षित कवि थे। मैथिलीशरणगुप्त की काव्यकला और उनका युगबोध उन्होंने यथावत अपनाया था अत: उनके सभी काव्य द्विवेदीयुगीन अभिधावादी कलारूप पर ही आधारित हैं। विचार की दृष्टि से भी वे ज्येष्ठबंधु के सदृश गांधीवाद की परदु:खकातरता, राष्ट्रप्रेम, विश्वप्रेम, विश्वशांति, हृदयपरिवर्तनवाद, सत्य और अहिंसा से आजीवन प्रभावित रहे। उनके काव्य वस्तुत: गांधीवादी निष्ठा के साक्षात्कारक पद्यबद्ध प्रयत्न हैं।
उनकी रचनाएँ हैं-मौर्यविजय (१९१४ ई.), अनाथ (१९१७), दूर्वादल (१९१५-२४), विषाद (१९२५), आर्द्रा (१९२७), आत्मोत्सर्ग (१९३१), मृण्मयी (१९३६), बापू (१९३७), उन्मुक्त (१९४०), दैनिकी (१९४२), नकुल (१९४६), नोआखाली (१९४६), गीतासंवाद (१९४८) आदि। इन सभी रचनाओं में मानव प्रेम के कारण कवि का निजी दु:ख सामाजिक दु:ख के साथ एकाकार होता हुआ वर्णित हुआ है। विषाद में कवि ने अपने विधुर जीवन और आर्द्रा में अपनी पुत्री रमा की मृत्यु से उत्पन्न वेदना के वर्णन में जो भावोदगार प्रकट किए हैं, वे अत्यंत मार्मिक हैं। इसी प्रकार जनता की दरिद्रता, कुरीतियों के विरु द्ध आक्रोश, विश्वशांति जैसे विषयों पर उनकी रचनाएँ उनकी प्रगतिवादिता को व्यक्त करती हैं। जीवन के प्रति करुणा का भाव जिस सहज और प्रत्यक्ष रूप से उनकी रचनाओं में व्यक्त हुआ है उससे उनका एक विशिष्ट स्थान बन गया है।
काव्यरूपों की दृष्टि से उन्मुक्त नृत्यनाट्य के अतिरिक्त उन्होंने पुण्यपर्व (नाटक) (१९३२), झूठा सच (निबंधसंग्रह) (१९३७), गोद, आकांक्षा और नारी (उपन्यास) तथा लघुकथाओं (मानुषी) की भी रचना की थी। उनके गद्यसाहित्य में भी उनका मानवप्रेम ही व्यक्त हुआ है। कथा साहित्य की शिल्पविधि में नवीनता न होने पर भी नारी और दलित वर्ग के प्रति उनका दयाभाव देखते ही बनता है।
आपका निधन मार्च, १९६४ में हुआ। (परमेश्वरीलाल गुप्त)