गुप्त (मागध अथवा मालव वंश) सम्राट आदित्यसेन के अपसड़ (जिला गया) एवं सम्राट जीवित गुप्त के देववरणार्क (जिला शाहाबाद) के लेखों से एक अन्य गुप्त राजवंश का पता लगता है जो उपर्युक्त गुप्तवंश के पतन के पश्चात् मालव और मगध में शासक बना। इस वंश के संस्थापक कृष्णगुप्त थे। इनके क्रम में श्रीहर्षगुप्त, जीवितगुप्त, कुमारगुप्त, दामोदरगुप्त, महासेनगुप्त, माधवगुप्त, आदित्यसेन, विष्णुगुप्त एवं जीवितगुप्त (द्वितीय) इस वंश के शासक हुए।
इस वंश का पूर्वकालिक गुप्तों से क्या संबंध था यह निश्चित नहीं है। पूर्वकालिक गुप्तों से पृथक् करने की दृष्टि से इन्हें माधवगुप्त या उत्तरकालीन गुप्त कहते हैं। इस नए गुप्तवंश का उत्पत्तिस्थल भी विवादग्रस्त है। हर्षचरित् में कुमारगुप्त और माधवगुप्त को ‘मालव राजपुत्र’ कहा है। महासेन गुप्त अनुमानत: मालवा के शासक थे भी। आदित्यसेन के पूर्ववर्ती किसी राजा का कोई लेख मगध प्रदेश से नहीं मिला। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कुछ विद्वानों ने कृष्णगुप्त के वंश का उत्पत्तिस्थल मालवा निश्चित किया। इसी आधार पर इन्हें मालवगुप्त कहते थे। किंतु अधिकांश विद्वान इन्हें मगध का ही मूल निवासी मानते हैं।
इस वंश के आरंभिक नरेश संभवत: गुप्त सम्राटों के अधीनस्थ सामंत थे। अपसड़ अभिलेख में कृष्णगुप्त को नृप कहा है एवं समानार्थक संज्ञाएँ इस वंश के परवर्ती शासकों के लिये भी प्रयुक्त हुई हैं। अपने वंश की स्वतंत्र सत्ता सर्वप्रथम इस वंश के किस शासक ने स्थापित की, यह अज्ञात है। कृष्णगुप्त के लिये अपसड़ लेख में केवल इतना ही कहा गया है कि वे कुलीन थे। उनकी भुजाओं ने शत्रुओं के हाथियों का शिरोच्छेद सिंह की तरह किया तथा अपने असंख्य शत्रुओं पर विजयी हुए। कृष्णगुप्त के समय में ही संभवत: कन्नौज में हरिवर्मन् ने मौखरिवंश की स्थापना की। कृषणगुप्त ने संभवत: अपनी पुत्री हर्षगुप्ता का विवाह हरिवर्म के पुत्र आदित्यवर्मन् से किया। कृष्णगुप्त के पुत्र एवं उत्तराधिकारी श्रीहर्षगुप्त (ल. ५०५-५२५ ई.) ने अनेक भयानक युद्धों में अपना शौर्य दिखाया और विजय प्राप्त की। इनके उत्तराधिकारी जीवितगुप्त (प्रथम) (ल. ५२५-५४५ ई.) को अपसड़ लेख में ‘क्षितीश-चूड़ामणि’ कहा गया है। उनके अतिमानवीय कार्यों को लोग विस्मय की दृष्टि से देखते थे। मागधगुप्तों के उत्तरकालीन सम्राटों के विषय में इस प्रकार की कोई बात ज्ञात नहीं होती। संभवत: राजनीतिक दृष्टि से आरंभिक माधवगुप्त अधिक महत्वपूर्ण भी नहीं थे, इसी से लेखों में उनकी पारंपरिक प्रशंसा ही की गई है।
कुमारगुप्त (ल. ५४०-५६० ई.) के विषय में पर्याप्त एवं निश्चित जानकारी प्राप्त होती है। कदाचित उनके समय में मागधगुप्तों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता की घोषण की होगी। कुमारगुप्त ने मौखरि नरेश ईशानवर्मन को पराजित किया। उनकी सफलता स्थायी थी। प्रयाग तक का प्रदेश उनके अधिकार में था। उन्होंने प्रयाग में प्राणोत्सर्ग किया। उनके पुत्र दामोदरगुप्त ने पुन: मौखरियों को युद्ध में पराजित किया, किंतु वे स्वयं युद्धक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुए। इसी काल में मागध पुत्री ने मालवा पर भी अपना अधिकार स्थापित किया। दामोदरगुप्त के उपरांत उनके पुत्र महासेनगुप्त (लं. ५६३ ई.) शासक हुए। मौखरियों के विरूद्ध, अपनी शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्होंने थानेश्वर के नरेश राज्यवर्धन के पुत्र आदित्यवर्धन से अपनी बहन महासेनगुप्ता का विवाह किया। हर्षचरित में उल्लिखित कुमारगुप्त एवं माधवगुप्त के पिता मालवराज संभवत: महासेनगुप्त ही थे। अपसड़ लेख के अनुसार इन्होंने लौहित्य (ब्रह्मपुत्र नदी) तक के प्रदेश पर आक्रमण किया, और असंभव नहीं कि उन्होंने मालवा से लेकर बंगाल तक के संपूर्ण प्रदेश पर कम से कम कुछ काल तक शासन किया हो। महासेनगुप्त ने मागध गुप्तों की स्थिति को दृढ़ किया, किंतु शीघ्र ही कलचुरिनरेश शंकरगण ने उज्जयिनी पर ५९५ ई. या इसके कुछ पहले अधिकार कर लिया। उधर वलभी के मैत्रक नरेश शीलादित्य (प्रथम) ने भी पश्चिमी मालव प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर दिया। इसी बीच किसी समय संभवत: महासेनगुप्त के सामंत शासक शशांक ने अपने को उत्तर एवं पश्चिम बंगाल में स्वतंत्र घोषित कर दिया। संभवत: मगध भी महासेन गुप्त के अधिकार में इसी समय निकल गया। महासेनगुप्त का अपना अंत ऐसी स्थिति में क्योंकर हुआ, ज्ञात नहीं होता। पर उनके दोनों पुत्रों कुमारगुप्त और माधवगुप्त ने थानेश्वर में सम्राट प्रभाकरवर्धन के दरबार में शरण ली।
इस अराजक स्थिति में किन्हीं देवगुप्त ने स्वयं को मालवा या उसके किसी प्रदेश का शासक घोषित कर दिया। इस देवगुप्त का कोई संबंध मागध गुप्तों के साथ था या नहीं, नहीं कहा जा सकता। हर्षवर्धन के अभिलेखों के अनुसार राज्यवर्धन ने देवगुप्त की बढ़ती हुई शक्ति को निरूद्ध किया था। हर्षचरित के अनुसार देवगुप्त ने गौड़ाधिप शशांक की सहायता से मौखरि राजा को पराजित कर उन्हें मार डाला तथा राज्यश्री को बंदी बना लिया। राज्यवर्धन ने देवगुप्त को पराजित किया। किंतु देवगुप्त आदि ने षड्यंत्र द्वारा उन्हें मार डाला। किंतु इसके बाद देवगुप्त भी पराजित हो गए और क्रमश: हर्षवर्धन ने प्राय: संपूर्ण उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित कर ली।
अपसड़ लेख से प्रतीत होता है कि माधवगुप्त ने मगध पर शासन किया और प्राय: अपना सारा जीवन हर्ष के सामीप्य एवं मैत्री में व्यतीत किया। हर्ष ने भी संभवत: माधवगुप्त को पूर्वसंबंधी एवं मित्र होने के नाते मगध का प्रांतपति नियुक्त किया होगा। माधवगुप्त ने हर्ष की मृत्यु के बाद ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की होगी। अपसड़ लेख में माधवगुप्त को वीर, यशस्वी और अनेक शत्रुओं को पराजित करनेवाला कहा गया है। इनके राज्य का आरंभ हर्ष की मृत्यु के शीघ्र बाद एवं उसका अंत भी संभवत: शीघ्र ही हो गया होगा। माधवगुप्त के पश्चात् उनके पुत्र आदित्यसेन मगध के शासक हुए। इनके समय के अनेक लेख प्राप्त हुए हैं। उनकी सार्वभौम स्थिति की परिचायिका उनकी ‘महाराजाधिराज’ उपाधि है। देवघर से प्राप्त एक लेख में आदित्यसेन की चोल प्रदेश की विजय एवं उनके द्वारा किए गए विभिन्न यज्ञों आदि का उल्लेख है। उन्होंने तीन अश्वमेध भी किए। उनके काल के कुछ अन्य जनकल्याण संबंधी निर्माण कार्यों का ज्ञान लेखों से होता है। आदित्यसेन ने अपनी पुत्री का विवाह मौखरि नरेश भोगवर्मन से किया और उनकी पौत्री, भोगवर्मन की पुत्री, वत्सदेवी का विवाह नेपाल के राजा शिवदेव के साथ हुआ। नेपाल के कुछ लेखों में आदित्यसेन का उल्लेख ‘मगधाधिपस्य महत: श्री आदित्यसेनरय’ करके हुआ है। इससे लगता है कि पूर्वी भारत में मागधगुप्तों का बड़ा संमान एवं दबदबा था। आदित्यसेन के राज्य का अंत ६७२ ई. के बाद शीघ्र ही कभी हुआ।
आदित्यसेन के उपरांत उनके पुत्र देवगुप्त (द्वितीय) मगध की गद्दी पर बैठे। ६८० ई. के लगभग वातापी के चालुक्य राजा विनयादित्य ने संभत: देवगुप्त को पराजित किया। इन्होंने ‘महाराजाधिराज’ उपाधि धारण की। देववरणार्क लेख से स्पष्ट है कि देवगुप्त के पश्चात उनके पुत्र विष्णुगुप्त मगध के शासक हुए। महाराजाधिराज उपाधि इनके लिये भी प्रयुक्त है। इन्होंने कम से कम १७ वर्ष तक अवश्य राज्य किया क्योंकि इनके राज्य के १७वें वर्ष का उल्लेख इनके एक लेख में हुआ है। इस वंश के अंतिम नरेश जीवितगुप्त (द्वितीय) थे। गोमती नदी के किनारे इनके विजयस्कंधावार की स्थिति का उल्लेख मिलता है। इससे अनुमान होता है कि इन्होंने गोमती के तीरस्थ किसी प्रदेश पर मौखरियों के विरुद्ध आक्रमण किया था।
जीवितगुप्त के पश्चात् इस वंश के किसी शासक का पता नहीं चलता। मागध गुप्तों का अंत भी अज्ञात है। गउडवहो से ज्ञात होता है कि ८वीं सदी के मध्य कन्नौज के शासक यशोवर्मन ने गौड़ के शासक को पराजित कर मार डाला। पराजित गौड़ाधिप को मगध का शासक भी कहा है इसलिये अनुमान है कि यशोवर्मन द्वारा पराजित राजा संभवत: जीवितगुप्त (द्वितीय) ही थे। असंभव नहीं कि गौड़ नरेश ने जीवितगुप्त को पराजितकर मगध उनसे छीन लिया हो और स्वयं गौड़ और मगध की स्थिति में यशोवर्मन के विरुद्ध युद्ध में मारा गया हो। (अवध किशोर नारायण; जयप्रकााश्)