गुप्त (वंश) (२६०-५४० ई.) भारत का एक प्रख्यात राजवंश। इसके इतिहास का परिचय इस वंश के सम्राटों के अभिलेखों, उनकी मुद्राओं एवं उपलब्ध साहित्यिक ग्रंथों-पुराण, कौमुदीमहोत्सव, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प तथा फाह्यान के यात्राविवरण आदि-से प्राप्त होता है।
इस वंश के राजाओं के नामांत गुप्त एवं धर्मशास्त्रादि ग्रंथों में यत्रतत्र प्रतिपादित ‘गुप्त’, नामांतक वैश्य-उपाधि-सिद्धांत के अनुसार कुछ विद्वानों ने इस वंश के वैश्य होने का अनुमान किया है। कुछ लोग उनके ‘धारण’ गोत्र के आधार पर उनके वैश्य होने की बात कहते हैं। काशीप्रसाद जायसवाल ने उनके शूद्र होने की बात कही है। कौमुदीमहोत्सव नामक नाटक में चंडसेन को ‘कारस्कर’ कहा गया है। ‘कारस्कर’ शब्द बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार निम्न जाति का सूचक है। कौमुदीमहोत्सव के चंडसेन का वैवाहिक संबंध लिच्छवियों से था। अत: उन्होंने चंडसेन और चंद्रगुप्त प्रथम की एकता स्थापित करने की चेष्टा की है। साथ ही उन्हें शूद्र सिद्ध करने के लिये उन्होंने वाकाटक साम्राज्ञी प्रभावती गुप्ता के पूना ताम्रलेख से गुप्तों के उल्लिखित ‘धारण’ गोत्र का समीकरण पंजाब के जाटों के धरणी गोत्र से किया हैं। विद्वानों का एक वर्ग उन्हें ब्राह्मण समझता है किंतु वे संभवत: क्षत्रिय थे। चंद्रगुपत प्रथम की रानी श्रीकुमारदेवी लिच्छविकुमारी थी। उनके पुत्र तथा उत्तराधिकारी समुद्रगुपत को गुप्तलेखों में ‘लिच्छविदौहित्र’ कहा गया है और लिच्छवी क्षत्रिय थे। किंतु केवल वैवाहिक संबंधों के आधार पर गुप्तों की जाति का निश्चय तर्कसंगत नहीं है। गुप्तों ने नागों, वाकाटकों तथा कदंबों से भी वैवाहिक संबंध किए थे। वाकाटक और कदंब दोनों ही ब्राह्मण राजवंश थे। एक परवर्ती गुप्त शासक महाशिवगुप्त की सिरपुर, (रायपुर मध्यप्रदेश) प्रशस्ति से गुप्त चंद्रवंशी क्षत्रिय प्रतीत होते है। कुंतल प्रदेश के कुछ सम्राट अपने को उज्जयिनी के सोमवंशी क्षत्रिय शासक विक्रमादित्य से उद्भूत मानते थे। इसके अतिरिक्त पंचोभ ताम्रलेख में गुप्तवंश की उत्पत्ति अर्जुन से बताई गई है। मंजुश्रीमूलकल्प से भी गुप्त क्षत्रिय प्रतीत होते हैं।
जाति के समान ही गुप्त सम्राटों के मूल स्थान के संबंध में भी मतभेद है। चीनी यात्री इत्सिंग ने कोरियन यात्री हुई-लुन के कथन के आधार पर महाराज श्रीगुप्त (चे-लि-के-तो) द्वारा नालंदा में चीनी यात्रियों की सुविधा के लिये लगभग ५०० वर्ष पूर्व, एक मंदिर निर्माण कराने का उल्लेख किया है। यह मंदिर, मि-लि-किया-सि-किया-पो-नो (मृगशिखावन), नालंदा के पूर्व बताया गया है। मृगशिखावन के संबंध में विद्वानों की विभिन्न मान्यताएँ हैं। साधारणतया गुप्तों का मूलस्थान मगध ही युक्तिसंगत है।
महाराज गुप्त अथवा श्रीगुप्त (ल. २६०-२८० ई.) एवं उनके उत्तराधिकारी महाराज घटोत्कच गुप्त, (ल० १८०-३०० ई.) इस वंश के प्रथम नरेश हैं। दोनों ही संभवत: किसी सार्वभौम सत्ता के अधीन सामंत या छोटे किंतु स्वाधीन शासक थे।
इस वंश की स्वतंत्र सार्वभौम सत्ता का आरंभ चंद्रगुप्त प्रथम (ल. ३००-३३० ई.) से होता है। इन्होंने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया था। गुप्तवंश के प्रभावविस्तार की दृष्टि से यह संबंध पर्याप्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इसी से संभवत: चंद्रगुप्त ने इस विवाहसंबंध की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य से अपने एवं अपनी साम्राज्ञी के नाम एवं आकृति युक्त स्वर्णमुद्राओं का प्रचलन किया। पुराणों के अनुसार उनके साम्राज्य में साकेत, प्रयाग तथा मगध के प्रदेश संमिलित थे। समुद्रगुप्त की विजयों को दृष्टि में रखते हुए, कह सकते हैं कि इन्होंने प्राय: संपूर्ण बिहार, बंगाल तथा अवध के कुछ प्रदेशों पर शासन किया। उन्होंने ३२० ई. से आरंभ होनेवाले गुप्त संवत् की स्थापना की तथा अपनी शक्ति एवं प्रभुताज्ञापन के उद्देश्य से ‘महाराजाधिराज’ विरुद धारण किया।
चंद्रगुप्त ने समुद्रगुप्त (ल. ३३०-३७५ ई.) को अपना उत्तराधिकारी अपने जीवनकाल में ही मनोनीत कर दिया था। समुद्रगुप्त को अभिलेखों में ‘समरशतविजयी’ कहा गया है। उनके द्वारा पराजित राजाओं एवं गणों की तालिका प्रयाग प्रशस्ति में दी गई है। उससे लगता है कि उनका प्राय: संपूर्ण जीवन युद्धक्षेत्र में ही बीता होगा। उन्होंने प्राय: सम्पूर्ण उत्तर भारत को जीता और सुदूर दक्षिण में कांची तथा कलिंग तक आक्रमण किए। अनेक सीमाप्रांतीय शासक उनकी अधीनता में थे। लंका के शासक मेघवर्ण ने अपना एक दूत उनके दरबार में भेजा था तथा लंका से भारत आनेवाले यात्रियों के निमित्त, बोधगया में एक बौद्ध विहार के निर्माण की अनुमति प्राप्त की थी। समुद्रगुप्त के उपरांत उनके द्वारा मनोनीत चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (ल० ३७५-४१४-१५ ई.) गुप्त सम्राट् हुए। किंतु विशाखदत्त कृत ‘देवीचंद्रगुप्तम’ नाटक से प्रतीत होता है कि रामगुप्त समुद्रगुप्त का उत्तराधिकरी था। सम्राट चंद्रगुप्त (द्वितीय) ने ४०९ ई. के लगभग सौराष्ट्र के क्षत्रपों को पराजित किया। दिल्ली में कुतुबमीनार के समीप स्थित लौहस्तंभ पर अंकित चंद्र की प्रशस्ति यदि चंद्रगुप्त द्वितीय की मानी जाय तो स्पष्टत: चंद्रगुप्त विक्रमादित्य वंग, सप्तसिंधु एवं वाह्लीक प्रदेशों के विजेता सिद्ध होंगे। इनका साम्राज्य सुविस्तृत था। सौराष्ट्रविजय से उन्होंने इसे और विस्तार प्रदान किया। इन्होंने वाकाटकों, नागों एवं कदंबों से विवाहसंबंध कर साम्राज्य की नींव दृढ़ की।
कुमारगुप्त (प्रथम) महेंद्रादित्य सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे। कुमारगुप्त (ल. ४१५-४५५ ई.) का राज्यकाल सुदीर्घ भी था। उन्होंने कोई विजय की यह ज्ञात नहीं है किंतु उन्होंने दो अश्वमेध किए थे। शासन के अंतिम वर्षों में पुष्यमित्रों के आक्रमण से राज्य की शांति भंग हो गई। कुमार स्कंदगुप्त ने इस आक्रमण को विफल कर दिया। इसी बीच सम्राट कुमारगुप्त की मृत्यु हो गई।
कुमारगुप्त (प्रथम) के उपरांत स्कंदगुप्त विक्रमादित्य (ल. ४५५-४६७ ई.) गुप्त सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुए। उनके राज्यकाल में उत्तरपश्चिम से हूण आक्रमण हुआ, जिसको उन्होंने अंशत: विफल किया। संभवत: इनका अधिकतर समय युद्धों में ही बीता।
स्कंदगुप्त के बाद का गुप्त इतिहास अस्पष्ट है। इनके उत्तराधिकारी अत्यंत दुर्बल थे। और उनके काल में वंशमर्यादा एवं सीमा का निरंतर ्ह्रास होता गया। स्कंदगुप्त के उपरांत पुरूगुप्त सम्राट हुए। इनके उत्तराधिकरी क्रम से कुमार गुप्त (द्वितीय), बुधगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त (तृतीय) और विष्णुगुप्त हुए। इन राजाओं के राज्यकाल, संभवत: उत्तराधिकार के युद्धों के कारण, संक्षिप्त थे। (अवध काोिर नारायण.;जयप्रकााश्)