गुणस्थान दर्शन, मोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय के निमित्त से होनेवाले जीव के आंतरिक भावों को गुणस्थान कहते हैं (पंचसंग्रह, गाथा ३)। ये १४ हैं। चौथे कर्म मोहनीय को कर्मों का राजा कहा गया है। दर्शन और चरित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार के हैं। प्रथम दृष्टि या श्रद्धा को और दूसरा आचरण को विरूप देता है। तब जीवादि सात तत्वों और पुण्य पापादि में इस जीव का विश्वास नहीं होता और यह प्रथम (मिथ्यात्व) गुणस्थान में रहता है। दर्शन मोहनीय और अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ के उपशम या क्षम से सम्यकत्व (चौथा गुणस्थान) होता है। श्रद्धा के डिगने पर अस्पष्ट मिथ्यात्व रूप तीसरा (सासादन) और मिली श्रद्धा रूप तीसरा (मित्र) गुणस्थान होता है। सम्यक्त्व के साथ आंशिक त्याग होने पर पाँचवाँ (देशविरत) और पूर्ण त्याग होने पर भी प्रसाद रहने से छठा (प्रमत विरत) तथा प्रमाद हट जाने पर सातवाँ (अप्रमत्त विरत) होता है। संसारचक्र में अब तक न हुए शुभ भावों के होने से आठवाँ (अपूर्वकरण) तथा नौवाँ (अनिवृत्तिकरण) होते हैं। बहुत थोड़ी लोभ की छाया शेष रहने से दसवाँ (सूक्ष्मसांपराय) और मोह के उपशम अथवा क्षय से ११वाँ (उपरांत मोह) या १२वाँ (क्षीण मोह) होता है। कैवल्य के साथ योग रहने से १३वाँ (संयोग केवली) और योग भी समाप्त हो जाने से १४वाँ (अयोग केवली) होता है और क्षणों में ही मोक्ष चला जाता है। (खु. चं. गो.)