गुणनखंड १,२,....इत्यादि धन पूर्णसंख्या कहलाते हैं, जब ये ऋण हों तब इन्हें पूर्णसंख्या कहते हैं। पूर्णसंख्या ब को अ का गुणनखंड कहते हैं, यदि एक पूर्णसंख्या स इस प्रकार हो कि अ=xस। इसी प्रकार सम पूर्णसंख्या उसे कहते हैं, जिसका गुणनखंड २ हो। यदि पूर्णसंख्या के स्थान पर परिमेय, अभाज्य आदि रख दिए जायँ तो इसी प्रकार हम परिमेय, अभाज्य, संमिश्र, काल्पनिक, बहुपद गुणनखंडों की परिभाषा कर सकते हैं। परिमेय संख्याएँ दो पूर्ण संख्याओं का भजनफल होती हैं, यथा ५/२, ७/८ इत्यादि। को अभाज्य कहते हैं, यदि यह केवल ± अथवा ± से विभाज्य हो, यथा ३, ५ इत्यादि। = ± i को संमिश्र संख्या कहते हैं यदि , वास्तविक हों और i = Ö -1 काल्पनिक राशि हो। बहुपद से उसे व्यंजक का बोध होता है जो किसी चल घातों में हो यथा - १, -१ इत्यादि।

प्राकृतिक संख्याओं का गुणनखंड-यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रत्येक प्राकृतिक संख्या >१ अभाज्य गुणनखंडों के गुणनफल के रूप में एक और केवल एक ही रूप में व्यक्त की जा सकती है, गुणनखंडों के लिखने का क्रम चाहे एक सा न हो। इसे अद्वितीय गुणनखंड सिद्धांत कहते हैं। उदाहरणार्थ ६०=xxx५; ७२=xxxx३; २७=xx३। किसी प्राकृतिक संख्या को अभाज्य गुणनखंडों के गुणनफल में व्यक्त करने के लिये उसे जब तक संभव हो पुनरावृत्ति से २ से भाग दो, तत्पश्चात् अगली अभाज्य संख्या ३ से, इत्यादि। गुणनखंड में दो पद म. स. तथा ल. स. संबद्ध हैं। कई संख्याओं का महत्तम समापवर्तक (म. स.) वह सबसे बड़ी प्राकृतिक संख्या है जो सब निर्दिष्ट संख्या का गुणनखंड हो। इसे निर्दिष्ट संख्याओं के सब विभिन्न, सर्वनिष्ठ, अभाज्य गुणनखंडों के, जो इन संख्याओं में से किसी एक में सबसे कम बार आते हैं, गुणनफल को लेकर ज्ञात किया जाता है। यदि निर्दिष्ट संख्याओं में सर्वनिष्ट संख्याएँ अपेक्षाकृत अभाज्य कहलाती हैं। ६०=xxx५ तथा ७२=xxxx३ का म. स. २xxx१२ है तथा 1 =5x3 और 56=8x9 का म. स. १ है। कई संख्याओं का लघुतम समापवर्त्य (ल. स.) वह सबसे छोटी प्राकृतिक संख्या है जिसकी निर्दिष्ट संख्याओं में से प्रत्येक एक गुणनखंड है। इन सब संख्याओं में स्थित सब विभिन्न अभाज्य गुणनखंडों के, जिनमें प्रत्येक इन संख्याओं में से किसी एक में अधिकतम बार आते हैं, गुणनफल को लेकर इसे निकाल लिया जाता है। 60=2x2x3x5 तथा 72=2x2x2x3x3 का म. स. 2x2x2x3x3x5=360 है। यदि दो संख्याओं अ ब का ल. स. तथा म. स. हो तो x = x । इस प्रकार एक संख्या ज्ञात होने से दूसरी ज्ञात हो सकती है। और भिन्न संख्याएँ कहलाती (amicable numbers) हैं यदि प्रत्येक दूसरी के सब गुणनखंडों के, जिनमें दूसरी संख्या स्वत: न हो, योग के बराबर हो। इस प्रकार २२० तथा २८४ भिन्न हैं।

बहुपदों का गुणनखंड करना-बहुपद के गुणनखंड करने से अभिप्राय है उसे अन्य बहुपदों के गुणनफल के रूप में व्यक्त करना। वह बहुपद अभाज्य कहलाता है जिसका अपने धनात्मक या ऋणात्मक मान अथवा १ के अतिरिक्त कोई गुणनखंड न हो। किसी बहुपद या पूर्णतया गुणनखंड करने का अभिप्राय है उसे अभाज्य गुणनखंडों के गुणनफल के रूप में व्यक्त करना। प्रत्येक बहुपद () = + न-१+...। ( ¹ o) > 1 को एकघाती पदों () =o (-).....(-) के स्वरूप में व्यक्त किया जा सकता है और यह गुणनखंडन अद्वितीय है। संख्या ()=o का ज बहुलक मूल है यदि (-) ऊपर के गुणनखंड में बार आए। गुणन के लिये हमें दो गुणनखंड दिए रहते है और गुणनफल निकालने के लिये कहा जाता है। यथार्थ (exact) भाग में हमें गुणनफल तथा एक गुणनखंड दिया रहता है और हमें दूसरे गुणनखंड को ज्ञात करना होता है। दोनों स्थितियों में हमारे कार्य के संपादन के लिये निर्धारित प्रक्रिया होती है। गुणनखंड करने के लिए हमें गुणनफल दिया रहता है तथा उन गुणनखंड को पृथक् करना होता है जिनसे उसे संयुक्त किया गया है। परिणामस्वरूप गुणनखंड करना अथवा एकीकरण (unimultiplicity) दूसरी दोनों क्रियाओं से क्लिष्टतर है, जिस प्रकार फूटे अंडों के पूरे अंडे बनाना अंडों को तोड़ने की अपेक्षा अथवा किसी मिश्रण का रासायनिक विश्लेषण इसके अवयवी पदार्थों को मिलाकर मिश्रण बनाने की अपेक्षा कठिनतर होता है। वस्तुत: गुणनखंडों को पहचानने के लिये हमें गुणा करने के अनुभव से ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है और हम गुणनखंडों के लिये कोई व्यवस्थित कार्यविधि विकसित नहीं कर सकते।

गुणनखंडों के सरल रूप-ये ५ प्रकार के हैं : (१) एकपद सर्वनिष्ठ गुणनखंड, यथा अ ब-अ स + अ द-अ इ = (ब-स +द-इ) (२) दो वर्गों का अंतर, यथा - = (-) (+) (३) त्रिपद पूर्णवर्ग, यथा + ±अब = (±), (४) दो घनों का योग तथा अंतर, यथा ±= (±) (±अब + ) और (५) विभिन्न रूपों का संमिश्रण, यथा २ -= x (य+1) (य +१) (य-१) अर्थात् (१) तथा (२) का संमिश्रण।

समूहीकरण से गुणनखंड करना-पदों के समूहीकरण में पूर्वनिर्दिष्ट रूपों में से किसी एक का प्रयोग होता है, यथा + -अ र-ब र =(+) -(+) र = (+) (-)।

द्विवात त्रिपद यदि अभाज्य न हो तो परख द्वारा उसके गुणनखंड किए जाते हैं, यथा - + = (+) (+) कल्पना किया, तो + =-५, अ ब = ६, इस प्रकार = -२, = -३। इसके गुणनखंड शेषफल प्रमेय की सहायता से भी किए जाते हैं, जिसमें कहा गया है कि यदि (-), () = o का एक गुणनखंड हो तो ()= o। माना () = - +६, तो (-२) एक गुणनखंड मिल जाता है। भाग देने से दूसरा गुणनखंड (-३) प्राप्त होता है। यदि + ब य + द्विघात त्रिपद है तो इसके गुणनखंड की कसौटी यह है कि ब-अ स पूर्ण वर्ग होना चाहिए।

दो समान घातों का योग तथा अंतर-यदि एक धन पूर्ण संख्या है तो + एक का गुणनखंड - है, और धनात्मक सम पूर्णसंख्या है तो + गुणनखंड भी होगा। यदि विषम धन पूर्णसंख्या हो तो + का + गुणनखंड होगा। यदि न सम धनात्मक पूर्ण संख्या है तो + वा - में से कोई भी गुणनखंड न होगा। चक्रीय गुणनखंडों आदि में भी इसी प्रकार की क्रिया है। त्रिकोणमितीय फलनों को परिमित अथवा अनंत गुणनखंडों के गुणनफलों में लिखा जाता है। यथा

ज्या न ष =न-१ ज्या ष ज्या (ष + p/न) ज्या ( + p/)....

=

गुणनखंडों का समीकरण, मीमांसा, सारणिकों, आव्यूहों (matrices) तथा बीजगणित की अन्य शाखाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। (गोपालचंद शुक्ल)