गुड़िया नारी या पुरुष रूपी खिलौना या पुतली। हिंदी में स्री खिलौनों को गुड़िया और पुरुष खिलौनों को गुड्डा कहते हैं। कुछ गुड़ियाँ खेलने के अतिरिक्त पूजने अथवा अन्य आशयों से भी बनाई जाती हैं। अंग्रेजी में गुड़िया को डॉल, बँगला में पुतुल और तेलुगु में बोम्मा कहते हैं।

गुड़िया का इतिहास उतना ही पुराना है जितना खिलौनों का, क्योंकि गुड़िया भी खिलौना है। खिलौनों का निर्माण मनुष्य के सभ्य होने के साथ शुरू हुआ होगा क्योंकि बच्चों में खेलने की प्रवत्ति जन्म से ही होती है। अत: तत्कालीन सभ्यता और देश की रुचि के अनुसार किसी न किसी प्रकार के खिलौने प्राचीने काल से ही बनते थे। इन खिलौनों में पशु आदि की आकृतियों के साथ गुडियाँ भी बनती रहीं।

देश विदेश के साहित्य, इतिहास और पुरातत्व के अध्ययन से खिलौनों और गुड़ियों की हमें काफी जानकारी मिलती है। इनसे समकालीन वेश भूषा और सभ्यता की एक झलक तो प्राप्त हो ही जाती है।

आदिम समाज में गुड़ियों को भाग्यवादी माना जाता था। कुछ गुड़ियों का प्रयोग तब दूसरे लोगों को डराने के लिए भी होता था और कुछ आरोग्यदायक मानी जाती थीं। १४वीं सदी में अनेक यूरोपीय देशों में गुड़ियों का प्रयोग मित्रभाव बढ़ाने के लिए होता था। फ्रांस इस बारे में अग्रणी था। मित्रभाव बढ़ाने के अलावा वे लोग अपने पहनावों का प्रचार भी गुड़ियों के माध्यम से करते थे। हालैंड के फ्लैंडर्स बेबीज नामी खिलौने सभी देशों में प्रिय रहे हैं। गुड़ियों के सुसज्जित घर हालैंड, इंग्लैंड तथा कुछ दूसरे यूरोपीय देशों में बनते थे। भारत में भी गुड़ियों के खेल के लिए उनके घरौंदे बड़े चाव से बनाए जाते रहे हैं। अनेक माता पिता अपनी बेटियों को बड़े सुंदर घरौंदे बनवाकर देते हैं। इसमें संदेह नहीं कि गुड़ियों का खेल बालकों को भी प्रिय था पर लड़कियाँ ही इसे अधिक खेलती थीं। बालक अन्य खिलौनों में अधिक रूचि रखते थे।

प्राचीन काल में गुड़ियाँ मिट्टी, लकड़ी, आटे अथवा लकड़ी की बनती थीं, उनमें गति लाने का कोई यंत्र नहीं होता था। पर अब लगभग १०० साल से तो जर्मनी, अमरीका, इंग्लैंड और जापान में खाती, पीती, रोती, गाती और सोती गुड़ियाँ बनने लगी हैं जो संसार भर में बालकों को प्रिय हैं। इन सभी क्रियाओं के लिए उनमें विभिन्न यंत्र भीतर ही लगे रहते हैं। स्प्रिंग और घड़ी के यंत्रों से युक्त फ्रांस और स्विटरजरलैंड की सोती जागती गुड़ियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं (चित्र १)। धीरे धीरे एक देश की गुड़ियों की नकल दूसरे देशों ने कर डाली है और अब बिना मार्का देखें उनके बनने का स्थान जानना कठिन है। गुड़ियों के पहनावों में तो समय के साथ परिवर्तन हुआ ही हैं, निर्माण के माध्यम भी बदल गए हैं। प्लास्टिक, रबर, पौलीथीन, प्लास्टर, चीनी और कांच की गुड़ियाँ भी अब भारी संख्या मे बनाई जाती हैं। हंगरी में कपड़े की गुड़ियों की आँखें जई से और नाक मक्का के दाने से बनाई जाती हैं, इसमें चीड़ के फूल, काही और पौधों के रेशे का प्रयोग होता है। चिली तथा ब्राजील में तार का धागा लपेटकर इन्हें बनाया जाता है। बरमुदा में केले के तने पर सुपारी से सिर बनाया जाता है और पेरू में लकड़ी की गुड़ियाँ बनाई जाती हैं। भारत तथा अन्य कुछ पूर्वी देशों में नवीनतम माध्यमों और रूपों की गुड़ियों के अलावा परंपरा से बनती हुई गुड़ियाँ आज भी प्रचलित हैं। इन देशों की विशालता और लोगों का विभिन्न सामाजिक स्तर इसका कारण है।

भारत में प्राचीनतम गुड़ियाँ मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा के अवशेषों से प्राप्त हुई हैं। इनका समय लगभग २५०० वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है। यहाँ के विभिन्न विषयक मिट्टी के खिलौनों में कुछ गुड़ियाँ भी प्राप्त हुई हैं। निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि ये गुड़ियाँ केवल खेलने के उद्देश्य से बनाई गई या केवल पूजा के लिये क्योंकि गुड़ियाँ प्राचीन काल से ही देखने और पूजने दोनों प्रयोजनों से निर्मित होती थीं और मोहन-जो-दड़ों तथा हड़प्पा की सभ्यता में खेलने और पूजने की गुड़ियों की निर्माणशैली में भेद नहीं था। आज भी अनेक भारतीय गाँवों में इनसे मिलती जुलती गुडियाँ बनतीं है। इन्हें हाथ से ही गढ़कर आकार प्रदान किया जाता है तथा शरीर के विभिन्न अंग मिट्टी को दबाकर, उभारकर अथवा चिपकाकर बनाए जाते हैं। राजघाट, कौशांबी, अहिच्छत्रा, पटना, मथुरा और नागार्जुनकोंडा आदि स्थानों में मौर्य, शुंग, कुषाण, सातवाहन तथा गुप्तकालीन मिट्टी की गुड़ियाँ प्राप्त हुई हैं। १७वीं सदी से प्राचीनतर लकड़ी की गुडियाँ कम से कम भारत में तो प्राप्त नहीं हुई हैं। मोहन-जो-दड़ो के बाद प्राचीनतम गुड़ियाँ मिस्र में नील घाटी से प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माण ईसा से १००० वर्ष पूर्व हुआ था। ये लकड़ी की बनी हैं और आकार में नाव के पतवार सरीखी हैं (चित्र २)। इनके बाल मिट्टी की गोलियाँ चिपकाकर बनाए गए हैं। मिस्री पिरामिडों में ममियों के साथ विभिन्न वेश भूषा और विभिन्न पेशे के लोगों की गुड़ियाँ मिली हैं। विदूषक, हजाम, रसोइया, परिचारिका और संगीतज्ञ इनमें खास हैं। इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में मिस्र में राजाओं के शवों के साथ परलोक में उनकी सेवा के आशय से विभिन्न चाकरों आदि को भेजने की प्रथा थी। इनके बाद चौथी-पाँचवी सदी ईसा पूर्व की बनी मिट्टी की यूनानी गुड़ियाँ है जिनके अंग-प्रत्यंग को धागों की सहायता से हिलाया डुलाया जा सकता था। भारत की भाँति यूनानी तथा रोमन लडकियाँ विवाह तक गुडियों से खेलती थीं। रोमन गुड़ियाँ यूनानियों से अधिक सुचारु रूप से बनी होती थीं। ब्रिटेन और रोम में रोमनों द्वारा बनी धातु की गुड़ियाँ और उनकी सज्जा प्राप्त हुई है। विवाह के पूर्व रोमन लड़कियाँ अपनी गुड़ियों को दियाना (आखेट की देवी) की समाधि पर भेंट कर आती; इसी प्रकार यूनानी लड़कियाँ उन्हें आर्तेमिस की समाधि पर चढ़ा देती थीं।

मध्यकाल में फ्रांस अपनी गुड़ियों के लिये सारे यूरोप में विख्यात रहा। सन् १३९० ई. में इंग्लैंड की सम्राज्ञी को विभिन्न पहनावों से सजी अनेक फ्रेंच गुड़ियाँ भेंट की गईं। बाद में इनका प्रयोग अन्य देशों में फैशन के प्रचार में भी सहायक हुआ। इंग्लैंड की सम्राज्ञी विक्टोरिया के पास गुड़ियों का बहुत बड़ा संग्रह था और इन्हें उन्होंने दरबार की खास-खास महिलाओं अथवा अभिनेत्रियों के नाम प्रदान किए थे। जर्मनी में १५०० ई. के पूर्व से ही नूरेमबर्ग अपनी गुड़ियों और उनके घरौंदों के लिए प्रसिद्ध था। हालैंड, जर्मनी और लंदन के कुछ संग्रहालयों में प्राचीन गुड़ियों और घरौंदों के सुंदर संग्रह है।

भारत में मिट्टी और धातु की कुछ गुड़ियों को छोड़कर अन्य प्रकार की प्राचीन गुड़ियाँ प्राप्त हुई हैं, हालाँ कि कपड़े और लकड़ी की गुड़ियाँ बनती जरूर थीं। साहित्य में खिलौनों और गुड़ियों का हवाला यदा कदा मिलता हैं जिनसे विभिन्न प्रकार के खेलों की जानकारी मिलती है, पर गुड़िया के संबंध में बहुत कम चर्चा हुई है। लेकिन इतना तो विश्वासपूर्वक कहा ही जा सकता है कि गुड़ियों का खेल भारतीय लड़कियों को विशेष प्रिय था। वात्स्यायन के कामसूत्र में पुतलियों और उनके खेल की चर्चा सर्वप्रथम मिलती हैं। गुड़िया के घरों का उल्लेख भी हातारी नाम से उसमें हुआ है। गुप्तकाल में गुड़ियों के लिये पुत्रिका नाम संस्कृत में मिलता है। कालिदास ने कुमारसंभव में पार्वती की बाल्यकालीन क्रीड़ाओं में कृत्रिमपुत्रिका (गुड़िया) का उल्लेख किया है। कथासरित्सागर में अनेक मनोरंजक खेलों और खिलौनों के वर्णन के साथ उड़नेवाली लकड़ी की गुड़ियों की चर्चा भी हुई है।

भारत के अनेक पर्वों के साथ गुड़ियों का खेल संबद्ध है, जैसे मद्रास, मैसूर और आंध्र में दशहरे पर सभी संपन्न घर गुड़िया बैठाते (सजाते) हैं और इष्ट मित्रों को आमंत्रित करते हैं। नागपंचमी पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गुड़ियों को नदी में विसर्जित किया जाता है। इसे गुड़िया का मेला भी कहते है। काँगड़ा में रल्लों पर, महाराष्ट्र में मंगलागौरी पर और गुजरात में गोरवा पर लड़कियाँ प्रति वर्ष व्रत रखती हैं और अपनी गुड़ियाँ तथा अन्य खिलौने सजाती हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और मध्यभारत में तो गुड़ियों और उनके बर्तन तथा पलंग आदि लड़की को दहेज में दिए जाते हैं। दीर्घ काल से जापान में भी हिनामत सुरी अर्थात् गुड़ियों का पर्व बड़े महत्व से मनाया जाता है। तीन दिन तक यह पर्व फल फूलों के मौसम में मनाया जाता है। गुड़ियों को घर के सर्वश्रेष्ठ कक्ष में कतारों में खड़ी करके सबसे ऊपर राजा रानी बैठाए जाते हैं। लड़कियों को किमोनो (जापानी राष्ट्रीय पहनावा) पहनाकर नम्र और अच्छा बनने की शिक्षा के साथ नई गुड़ियाँ भेंट की जाती हैं। इस पर्व पर बाजारों में मिठाइयाँ तक लघु आकार की बिकती हैं।

आज की भारतीय गुड़ियों का सर्वेक्षण करने से प्रत्येक प्रांत के लोगों की वेशभूषा और सभ्यता का हमें पता लगता है। विभिन्न प्रांतो की गुड़ियों के रूप भिन्न और उनके पहनावे स्थानीय हैं। उन्हें देखकर सहज ही उनके निर्माण के स्थान का पता चल जाता है। राजस्थानी गुड़ियों का सुंदर पहनावा, बंगाली गुड़ियों का सौंदर्य और सुकुमारता, आंध्र और तमिल गुड़ियों की चुस्ती और तीखापन सहज ही उन्हें उनके प्रांत से संबद्ध कर देते हैं।

बाजार में मिलनेवाली परंपरागत भारतीय गुड़ियाँ अनेक उपादानों से बनती हैं। कपड़ा, कागज की लुगदी, सीपी और धातु इनमें प्रमुख हैं। मेलों में तो ये सदा बिकती ही हैं, अनेक तीर्थों में भी मंदिर के बाहर ये मिलती हैं। तिरुपति, काशी, प्रयाग, पुरी, मदुराई, नासिक और रामेश्वरम् से तीर्थयात्री अपने बच्चों के लिए सदा गुड़ियाँ लाते हैं। इन सब जगहों की गुडियाँ भिन्न प्रकार की होती हैं। इनमें से कुछ तो बिना रँगी होती हैं और कुछ पर लाख या तेल के रंग चढ़े रहते हैं।

लखनऊ, काशी, मथुरा, आगरा, कलकत्ता, कृष्णनगर (बंगाल); बहरामपुर, मुर्शिदाबाद, मद्रास, मैसूर, उड़ीसा, कोंडापल्ली (आंध्र), सावंतवाड़ी (महाराष्ट्र), तिरुचिरपल्ली और नासिक अपनी गुड़ियों के लिये प्रसिद्ध हैं।

बंगाल और बिहार की कुछ गुड़ियों का रुप मिस्र की ममियों से मिलता जुलता हैं। इन्हें मुलायम लकड़ी के एक ही टुकड़े से गढ़ा जाता है। इन गुड़ियों में सदा नारी आकृतियाँ ही बनाई जाती हैं। इनका यह रूप परंपरागत है, न जाने कब से ये इसी प्रकार बनती रही हैं। बंगाल में मिट्टी की रंगबिरंगी गुड़ियों के विभिन्न प्रकार हैं। लखनऊ और कृष्णनगर की गुड़ियों का रुप बड़ा यथार्थवादी है। यहाँ विभिन्न पेशे के लोगों को मिट्टी से बनाकर रँगा जाता है।

अनेक भारतीय गाँवों में कुम्हार साँचों की मदद से सुंदर गुड़ियों का निर्माण करते रहते हैं। साँचे से निकालकर या तो उन्हें धूप में सुखा लिया जाता है या फिर पका लिया जाता है। बाद में कुम्हार परिवार की स्रियाँ और बच्चे इनपर रंग लगाते हैं। विशेषकर दशहरे और दीपावली पर उत्तर भारत में प्रत्येक बाजार और मेले में इनकी छवि देखते ही बनती है। माँ बच्चा और ग्वालिन ऐसी गुड़ियों में प्रमुख हैं। कुम्हारों द्वारा बनी गुड़ियों में रंग रूप का आकर्षण तो रहता ही है, कभी कभी उनमें हास्य पुट भी रहता है। बालकों की तो बात ही क्या, कुछ गुड़ियाँ अपने हास्यात्मक रूप के कारण बड़ों को भी आकृष्ट करती हैं। बच्चों के लिये खिलौनों का मूल्य इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना उनका रंग, रूप और विषय।

ग्रामीण स्री-पुरुष-रूपी लकड़ी या मिट्टी की गुड़ियाँ तो प्राय: सारे भारत में बनती हैं। महाराष्ट्र में इन्हें थाकी कहते हैं और राजस्थान में गंगावती

घर की व्यस्क लड़कियाँ और माताएँ अपनी बहन बेटियों के लिये कपड़े की गुड़ियाँ बनाकर सामर्थ्य के अनुसार उन्हें गहने कपड़ों से सज्जित करती हैं। राजस्थान, भरतपुर, लखनऊ और हैदराबाद की अनेक गरीब स्रियाँ पुराने कपड़ों की गुड़ियाँ बनाकर अपना भरण पोषण तक कर लेती हैं। आजकल तो विदेशों में भी सजी-बजी गुड़ियों की काफी माँग हैं। इनके विषयों में अधिकतर दुलहा दुलहिन, माँ बच्चा, ग्वालिन और नर्तकी आदि रहते हैं।

आजकल सचित्र पुस्तकों, कैरम, आदि खेलों और यंत्रयुक्त वायुयान, मोटर, रेल आदि खिलौनों ने बच्चों का मन यद्यपि परंपरागत गुड़ियों से हटा लिया हैं, तथापि आज भी ग्रामीण बालिकाएँ परंपरागत गुड्डे गुड़ियों को ही अधिक पसंद करती हैं।

गुड्डे गुड़ियों का खेल बच्चों का केवल मनबहलाव ही नहीं करता वरन् उनके लिये शिक्षा का भी बड़ा सुंदर माध्यम हैं। असल में गुड़ियों के खेल के बहाने लड़कियों को घर सजाने, भोजन पकाने, सीने, पिरोने आदि की शिक्षा खेल खेल में ही मिल जाती हैं। गुड़ियों के ब्याह के लिये लड़कियाँ नए नए गीत रचती, गाती बजाती और तरह तरह के पकवान बनाती हैं। इस प्रकार लड़कियों को निपुण गृहिणी बनाने की शिक्षा में गुड़ियों का योग महत्वपूर्ण है। पाठशालाओं में इनके माध्यम से अन्य प्रांतों की रहन सहन और वेशभूषा की जानकारी बच्चों को सहज ही कराई जा सकती हैं।

आजकल तो यंत्रयुक्त और सीधी सादी, सभी प्रकार की विदेशी गुड़ियों की नक ल अपने यहाँ भी हो रही हैं, पर इनका रंग रूप और बनावट दोनों ही घटिया किस्म के हैं।

सं. ग्रं.-लेज़ली डेकेन : चिल्ड्रेन ट्वायज़ थ्रू आउट दि एजेज़, लंदन, १९५३; लेज़ली गॉर्डन : ए पेजेंट ऑव डॉल्स, १९४८; विक्टोरिया ऐंड अलबर्ट म्यूज़ियम : डॉल्स ऐंड डॉल्स हाउसेज़, लंदन १९५०; जे. जान : द फ़ैसिनेटिंग स्टोरी ऑव डॉल्स, न्यूयार्क, १९४१; कमला डूँगरकेरी : ए जर्नी थ्रू ट्वायलैंड, बंबई, १९५४। (जगदीश मित्तल)