गुंबद ऊँची और आकार में गोलार्ध या उससे भी न्यूनाधिक गोल छत को कहते हैं। सभ्यता के आरंभ से ही, जब कभी गुफावासी कहीं झोपड़ीवासियों के संपर्क में आए होंगे, उनकी गोल झोपड़ी देखकर शायद उसकी आकृति से आकर्षित हुए होंगे। किंतु ईटं पत्थर से ऐसी गोल छत बनाने की समस्या का संतोषजनक हल प्राप्त होने का समय निर्माणकला के इतिहास में संभवत: बहुत पुराना नहीं है।
१. येरूशलम की चट्टान का गुंबद, ७ वीं शती ईसवी; २. कैसरीय, अनातोलिया, १२वीं शती ई.; ३. समरकंद, १४वीं शती ई.; ४. नासिरुद्दीन मुहममद का मकबरा, दिल्ली, १२३१ ई.; ५. अलाई दरवाजा, दिल्ली, १३१० ई.; ६. गयासुद्दीन तुगलक का मकबरा, दिल्ली, १३२५ ई.; ७. मोहम्मद शाह सैयद का मकबरा, दिल्ली, १४४४; ८. लोदियों के मकबरे, दिल्ली, १५०० ई.; ९. रुक्ने आलम का मकबरा, मुलतान, १३२५ ई.; १०. जामा मस्जिद, जौनपुर, १४७० ई.; ११. होशंग का मकबरा, मांड, १४४० ई.; १२. जामा मसजिद, गुलबर्गा, १३६७ई.; १३. बीजापुरी गुंबद, १६ वीं शती ई.; १४. हुमायूँ का मकबरा, दिल्ली, १५६४ ई.; १५. खानखाना का मकबरा, दिल्ली, १६२७ ई.; १६. ताजमहल, आगरा, १६३४ ई. तथा १७. सफदरजंग का मकबरा, दिल्ली, १७५३ ई.।निनेवे (इराक का एक प्राचीन नगर) में प्राप्त एक उत्कीर्ण शिलाखंड से अनुमान लगाया जाता है कि संभवत: असीरिया के प्राचीन निवासियों ने ऐसी छत बनाने के कुछ प्रयत्न किए थे; किंतु उनके कोई अवशेष नहीं मिलते। सन् ११२ ई. का बना सबसे बड़ा और सुंदर गुंबद रोम में मिला है उसके बाद के, ४ थी या ५ वीं सदी ईसवी के अनेक नमूने ईरान के सारविस्तान और फ़ीरोजाबाद में हैं। सारविस्तान के महलों का गुंबद ही संभवत: चतुर्भुज कक्ष पर बने हुए वास्तविक गुंबद का सर्वप्रथम नमूना है। मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा सन् ६३७ ई. में बुरी तरह नष्ट भ्रष्ट की हुई ईरानी बादशाहों की भव्य राजधानी तेज़ीफ़न के कतिपय अवशेष, खुसरो प्रथम के महल के खंडहर भी हैं। इसकी ९५’ ऊँची और ८३ चौड़ी भीमकाय डाट वाली छत अब भी सिर उठाए तत्कालीन कौशल की कथा कहती है।
भारत में अति प्राचीन काल से ही दीवारों से ईटें (या पत्थर) निकाल प्रत्येक रद्दा आगे बढ़ाते हुए छत पाटने का चलन था, किंतु वे रद्दे समतल ही होते थे। फलत: शिखर अनिवार्यत: ऊँचे हो जाते थे। वास्तविक डाट का सिद्धांत संभवत अज्ञात ही था। तोरण (जो वास्तविक डाट के सिद्धांत पर बने) तथा गुंबद मध्यपूर्व की देन हैं। अब तक सीधे नीचे की ओर भार डालनेवाले पट रद्दों की सूखी चिनाई पर आधारित भारतीय निर्माणशैली में एक मोड़ आया और मुस्लिम काल की प्रसिद्ध इमारतों में गुंबदों को विशिष्ट स्थान मिला। बीजापुर में मुहम्मद अलीशाह के मकबरे के ऊपर संसार का विशालतम गुंबद (भीतरी चौड़ाई १३५’ ऊँचाई १७८’) खडा है। ईटों के पट रद्दे मोटे मसाले में जमाकर निर्मित लगभग १०’ मोटाई का यह गुंबद भारतीय वास्तुकौशल का विजयस्तंभ ही है।
धीरे धीरे मस्जिदों और मकबरों के रूप में गुंबद देश भर में फैले और उत्तर भारत में तो मंदिरों में भी अनिवार्यत: प्रयुक्त होने लगे। मुगलकालीन कृतियों में आगरे के ताजमहल का उल्लेख ही पर्याप्त होगा, जिसके प्रति विश्व भर के दर्शक आकर्षित होते हैं। अंग्रेजों के समय में भी अनेक ऐतिहासिक भवनों में गुंबद का उपयोग हुआ, और अब भी मंदिरों के अतिरिक्त, अन्य अनेक भवनों का शीर्षस्थान इन्हीं के लिए सुरक्षित रखा जाता है।
पश्चिमी देशों में भी गुंबदों का उपयोग अनेक प्रमुख गिरजाघरों की छतों में हुआ है। इन पर कभी कभी परंपरागत शिखर का रूप देने के लिए लकड़ी का बाहरी आवरण भी लगाया जाता रहा है। (विश्वंभरप्रसाद गुप्त)