गीतिकाव्य प्राय: वह सारा मुक्तक काव्य जिसकी रचना गायन के लिए हुई हो या जिसका गायन संभव प्रतीत हो, गीतिकाव्य कहा जाता है। यह परिभाषा अंशत: भ्रमोत्पादक है। ऐतिहासिक दृष्टि से मनुष्य की वाणी का आदिम रूप गान ही था, किंतु गीतिकाव्य का उदय सामाजिक विकास के उस चरण में हुआ, जब मनुष्य पशु चारण और कृषि का विकास कर सामूहिक जीवन की नियति से मुक्त हुआ, जब प्रकृति से संघर्ष और सामंजस्य के बाद उसने अपने समाज के आंतरिक संघर्ष का अनुभव प्राप्त किया, जब समाज के भीतर उसे अपनी व्यक्तिगत सत्ता का तीव्र बोध हुआ। क्रिस्टोफर कॉडवेल के शब्दों में यह वह व्यवस्था है जब मनुष्य का 'सामूहिक मैंआत्मपरक और व्यक्तिनिष्ठ हो जाता है।' सुख दुख, प्रेम विरह, हर्ष अवसाद, करुणा क्रोध, विश्वास संदेह इत्यादि की व्यक्तिगत अनुभूति के बिना गीतिकाव्य का उदय असंभव था।

संसार का प्राचीनतम काव्य संगीतप्रधान है। भारतीय इतिहास के आदिग्रंथ ऋग्वेद की ऋचाएँ साधारण पाठ के लिए नहीं बल्कि गायन के लिये रची गई थीं। सामवेद उसका प्रमाण है। यूनान में देवी देवताओं के प्रति निवेदित धार्मिक समवेतगान (कोरिक), चारणों की वीरगाथाएँ और उनसे विकसित पश्चिम के आदिकवि होमर के महाकाव्य गायन से अभिन्न है। वास्तव में मनुष्य की प्रकृति और वीरपूजा के भाव सहज रूप में काव्य, संगीत और नृत्य के माध्यम से व्यक्त होते थे। लेकिन संगीतप्रधान होते हुए भी वैज्ञानिक दृष्टि से उनके उन गीतों को ही गीतिकाव्य की कोटि में रखा जा सकता था जिनके भाव सामूहिक न होकर व्यक्तिगत थे। प्रारंभ में दी गई परिभाषा में दी गई परिभाषा में अतिव्याप्ति दोष है क्योंकि वह गायन और गीतिकाव्य के बीच की रेखा को मिटा देती है।

इसमें संदेह नहीं कि प्रारंभ में गायन गीतिकाव्य का अभिन्न अंग था। पश्चिम में गीति को लिरिक कहते हैं। लिरिक शब्द ग्रीक के लूरा से बना हैं जो एक तंत्री वाद्ययंत्र था। इस प्रकार लिरिक का अर्थ हुआ वह गीत जो ल्यूरा या लीयरे (Lyre) के साथ गाया जाता हो। ग्रीक गीत दो प्रकार के होते थे मेलिक या लिरिक जो एक व्यक्ति द्वारा गाए जाते थे, तथा कोरिक गीत जो कोरस या समूह द्वारा वाद्ययंत्र और नृत्य के गाए जाते थे। यूरोप में गीतिकाव्य का विकास मुख्यत: लिरिक की दो प्राचीन विशेषताओं संगीत और मार्मिक व्यक्तिगत अनुभूति की प्रधानता के आधार पर हुआ। गीतिकाव्य के लिए प्रसिद्ध ग्रीक कवयित्री सैफो निपुण गायिका भी थी। ग्रीक साहित्यशास्त्रियों ने व्यक्तिगत अनुभूति की गौणता के कारण ही गेय महाकाव्यों को भी गीतिकाव्य (लिरिक) की कोटि से पृथक रखा।

धर्म, शौर्य और प्रणयप्रधान मध्ययुगीन यूरोप में भी गीतिकाव्य और संगीत के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची गई। बाद में, विशेषत: पुनर्जागरण काल में, गीतिकाव्य संगीत से अलग होने लगा और अब गीतों में शब्द संगीत के नियमों से स्वतंत्र होकर अपनी आंतरिक लय के आधार पर चुने जाने लगे। एलिजाबेथ युगीन इंग्लैंड में ऐसे गीत बहुत बड़ी संख्या में लिखे गए। इस प्रकार शुद्ध स्वरमाधुर्य के स्थान पर शब्दामाधुर्य पर जोर दिया जाने लगा। किसी भी भाषा के रोमानी गीतिकाव्य की यही विशेषता है। नई चाल का गीतिकाव्य अनिवार्यत: गायन के लिए नहीं लिखा गया, उसमें गायन काआभास मात्र था, जिसकी सृष्टि एक विचार एक भाव या एक घटना की तीव्र, सघन और एकाग्र अभिव्यक्ति के द्वारा की जाती थी। आधुनिक गीतिकाव्य के रचनाविधान का यही आधारभूत सिद्धांत है। गीतिकाव्य में छंद तक को छोड़ा जा सकता है, किंतु स्वत: र्स्फूत या स्वत:र्स्फूत प्रतीत होनेवाली आवेशमय व्यक्तिगत अनुभूति और उसकी अभिव्यक्ति में केंद्रीयता के सिद्धांत की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वास्तव में आधुनिक गीतिकाव्य में गीति तत्व से इसी प्रकार की व्यक्तिगत अनुभूति और अभिव्यक्ति व्यंजित होती है। इसी आधार पर गाँव गाँव में गाए जानेवाले रामचरितमानस को गीतिकाव्य की कोटि में नहीं रखा जाता है जबकि आधुनिक छायावादी कवियों की अनेक छंदयुक्त या अगेय कविताओं को भी गीतिकाव्य की संज्ञा दी जाती है। इसे अस्वीकृत कर देने पर गद्यगीत नामकरण की सार्थकता नहीं रह जाती।

नि:संदेह गीतिकाव्य के रचनाविधान की अपनी सीमाएँ हैं। अनुभूति को देर तक उत्कर्षबिंदु पर स्थिर रखना दुस्साध्य कार्य है। इसलिये गीतिकाव्य स्वभावत: लघु कविताओं और मुक्तकों के रूप में रचा जाता है, जिनमे विषयवस्तु के विस्तृत अनुबंध के लिये स्थान नहीं होता। पूर्वापरनिरपेक्षणापि हि येन रसचर्वण क्रियते तदेव मुक्तकम् (ध्वन्यालोक)। किंतु लघुता विषयवस्तु और कविप्रतिभा पर निर्भर सापेक्ष गुण है जिससे उनके अधीन रहते हुए भी कवियों ने गीतिकाव्य में रूपविविधता की सृष्टि की है। उदाहरणार्थ संस्कृत में एक ओर कालिदास के लंबे गीतिकाव्य ऋतुसंहार और मेघदूत हैं। और दूसरी ओर भर्तृहरि के शतकों या जयदेव के गीतगोविंद के पद हैं; हिंदी में एक ओर सूर, मीरा और अनेक भक्त कवियों के पद हैं, और दूसरी ओर निराला की सरोजस्मृति या राम की शक्तिपूजा रचनाएँ हैं; अंग्रेजी में एक ओर चतुर्दशपदियाँ (सोनेट) हैं और दूसरी ओर शेली आदि कवियों के मर्सिए (एलेजीज़) और संबोधन गीत (ओड्स) हैं। गीतिकाव्य में आकार संगठनसापेक्ष है।

आज भी गीतिकाव्य की लोकप्रियता सिद्ध करती है कि व्यक्ति के दीप्तक्षणों की अभिव्यक्ति का यह अन्यतम माध्यम है। (चं. ब. सिं.)