गीतगोविंद संस्कृत का अत्यंत ललित तथा सरस कृष्णकाव्य। इस अमर काव्य के रचयिता महाकवि जयदेव बंगाल के अंतिम स्वतंत्र हिंदू राजा लक्ष्मणसेन (१२वीं सदी) की सभा के कविरत्नों में अन्यतम थे। इनके पिता का नाम भोजदेव और माता का राधा (रामा) देवी था तथा जन्मस्थान बंगाल का केंदुबिल्व (वर्तमान केंदुली) नामक स्थान था जहाँ आज भी इनकी स्मृति में वैष्णव भक्तों और साधकों का विशाल मेला लगता है। गीतगोविंदकार जयदेव पीयूषवर्ष उपाधिधारी, प्रसन्नराघव नाटक तथा चंद्रालोक नामक अलंकारग्रंथ के रचयिता मैथिल जयदेव (१३वीं सदी) से भिन्न तथा प्राचीनतर हैं। गीतगोविंद १२ सर्गो का काव्य है जिसमें श्रीकृष्ण तथा राधा की ललितललाम लीलाओं का विराम-रस-निस्पंदी वर्णन हैं। संस्कृत भाषा के शब्दलालित्य तथा अर्थमाधुर्य की पराकाष्ठा का प्रमुख प्रतीक गीतगोविंद काव्य है।

संस्कृत भाषा कितनी सरस, ललित तथा मधुर हो सकती हैं, इसके शोभन दृष्टांत के निमित्त इस काव्य की अष्टपदिया ही पर्याप्त हैं। शब्द माधुर्य के निदर्शन के लिए बसंत को वर्णनपरक ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे वाली अष्टपदी ही यथेष्ट है। भावों का सोष्ठव भी उतना ही हृदयाकर्षक है। इस काव्य में श्री कृष्ण आदर्श नायक तथा श्रीराधा आदर्श नायिका के रूप में चित्रित की गई हैं। इस काव्य में आध्यात्मिक रहस्यवाद की भी अभिव्यक्ति हुई है। रसिकशिरोमणि कृष्ण भगवत्तत्व के प्रतिनिधि हैं और उनकी प्रयेसी गोपिकाएँ जीव का प्रतीक हैं। फलत: राधा कृष्ण का वृंदावन की वीथी में मिलनसमारंभ जीव का भगवान के साथ परम मंजुल प्रेमपाश में आबद्ध होने तथा परस्पर मिलने का ही प्रतीक है।

गीतगोविंद काव्य बहुत लोकप्रिय है। इस लोकप्रियता का एक प्रबल प्रमाण है इसकी विपुल व्याख्यासंपत्ति। राणा कुंभा (कुंभकर्ण, १५६३ ई.) तथा शंकर मिश्र (१७५९ ई.) की प्रकाशित व्याख्याओं के अतिरिक्त वनमाली भट्ट, विट्ठलश्वर तथा भगवद्दास (रसकदंबकल्लोलिनी नामक) की व्याख्याएँ भी उपलब्ध हैं। इसका प्रभाव केवल उत्तर भारत के साहित्य पर ही नहीं, प्रत्युत महाराष्ट्र, गुजरात तथा कन्नड प्रांत के साहित्य पर भी पड़ा है। महाप्रभु चैतन्यदेव गीतगोविदं की माधुरी के परम उपासक थे और इनके पदों को गाते गाते समाधिस्थ हो जाते थे। उत्कलनरेश प्रतापरु द्र (१६वीं सदी) ने उत्कल के अनेक मंदिरों में इसके नियमित गायन के लिए भूमिदान दिया था। महानुभावी पंथ के प्रमुख कवि भास्कर भट्ठ बोरीकर (१२७५ ई. १३२० ई.) का काव्य शिशुपालवध गीतगोविंद द्वारा विशेष रूप से प्रभावित है। अप्रमेय शास्त्री (१७५० ई.) ने इस ग्रंथ पर शृंगारप्रकाशिका नामक व्याख्या कन्नड भाषा में लिखी है।

संस्कृत साहित्य में पदशैली के निर्माण का श्रेय गीतगोविंदकार जयदेव को दिया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे पूर्व अष्टपदी लिखने की पद्धति संस्कृत में नहीं थी। इस प्रकार की शैली का उदय कृष्णलीला के संबंध में ही उत्पन्न हुआ, क्योंकि क्षेमेंद्र ने अपने दशावतारचरित महाकाव्य में कृष्ण के विरहप्रसंग में गोपियों का हृदयोद्गार गीत के रूप में किया है। गीतगोविंद से स्फूर्ति तथा प्रेरणा ग्रहण कर संस्कृत में अत्यंत सुंदर गीत साहित्य का उद्गम हुआ जिसमें कवियों ने विभिन्न देवताओं के विषय में इसी शैली में तथा इन्हीं माधुर्य भावनाओं को ग्रहण कर काव्यग्रंथों का प्रणयन किया। ऐसे गीतग्रंथों में कतिपय प्रधान ग्रंथों का उल्लेख यहाँ किया जाता है-गीतगोरीपति (भानुदत्तरचित १४ वीं शती), संगीतमाधव (गोविंददास १५५७ ई. १६१२ ई.), गीतराघव (हरिशंकर, प्रभाकर तथा रामकवि के द्वारा निर्मित विभिन्न काव्य), गीतगंगाधर (कल्याण, राजशेखर तथा चंद्रशेखर सरस्वती), गीतशंकर (भीष्म मिश्र, अनंतनारायण तथा हरिकवि), गीत गणपति (कृष्णदत्त, हस्तलेख १८ वीं शती), कृष्णगीत (सोमनाथ)। इनमें भानुदत्त कृत गीतगोरीपति गीतगोविंद का बड़ा ही सफल अनुकरण है। इस प्रकाशित काव्य में गौरी तथा महादेव की प्रेमलीला का रोचक साहित्यिक वर्णन किया गया है। इतर ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुए। प्रांतीय भाषाओं में भी गीतगोविंद की शैली पर निर्मित काव्यों का अभाव नहीं है। मैसूर के राजा चिक्कदेव राय (१६७२ ई.-१७०४ ई.) ने गीतगोविंद के आदर्शं पर गीतगोपाल नामक सुंदर काव्य लिखा जो कर्नाटक में प्रसिद्ध है। श्री रूपगोस्वामी ने भी जयदेव का अनुसरण कर अपनी स्तवमाला में कृष्णलीला के विषय में बड़े ही सुंदर तथा हृदयावर्जक पदों का प्रणयन किया है। विद्यापति की अभिनव जयदेव उपाधि इस तथ्य की पर्याप्त सूचिका है कि मैथिल कोकिल की कविता पर भी जयदेव का प्रभाव कम नहीं पड़ा था। हिंदी, गुजराती तथा बंगला के पदकारों के ऊपर भी जयदेव का प्रभाव स्पष्टत: अंकित है। इस प्रकार जयदेव के इस विश्वविश्रुत काव्य का वैष्णव काव्य के विकास में बड़ा ही महत्वशाली योगदान है।

गीतगोविंद के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं जिनमें निर्णयसागर प्रेस का संस्करण राणा कुंभकर्ण तथा शंकर मिश्र की टीकाओं से युक्त होने के कारण विशेष महत्वूपर्ण माना जाता है। इसके अनेक अनुवाद भारतीय तथा यूरोपीय भाषाओं में प्राप्त होते हैं जिनमें जर्मन कवि रूकत का जर्मन अनुवाद तथा सर एडविन आर्नल्ड का अंग्रेजी अनुवाद विशेष प्रसिद्ध है। हिंदी भाषा के प्राचीन अनुवादों में रायचंद नागर का गीतगोविदादर्श तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र का गीतगोविंदानंद ब्रजभाषा में है। खड़ी बोली में श्री विनयमोहन शर्मा का अनुवाद सुंदर है। मराठी में श्री परशुराम पाटणकर का समश्लोकी अनुवाद भी सुंदर है।

सं. ग्रं.-डा. कीथ : संस्कृत साहित्य का इतिहास, हिंदी संस्करण, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९६०; दासगुप्त तथा दे : हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर (अंग्रेजी कलकत्ता); बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास (काशी, १९६१)। (बलदेव उपाध्याय्.)