गालिब, मिर्जा असदुल्ला खाँ (१७९६-१८६९) उर्दू-फारसी के प्रख्यात कवि। यह मिर्जा नौश के नाम से प्रसिद्ध थे। पहले असद उपनाम रखा था पर बाद में गालिब रखा। इनका जन्म आगरे में हुआ था। इनके वंशवाले अयबक तुर्कमान थे। इनके पितामह भारत आए और शाही सेना में भर्ती हुए। इनके पिता मिर्जा अब्दुल्ला बेग अलवरनरेश की सेवा में रहे और एक युद्ध में मारे गए। गालिब इस समय पाँच वर्ष के थे। पिता की मृत्यु के बाद यह अपने चाचा नसरुल्ला खाँ के यहाँ रहने लगे। यह भी सन् १८०६ ई. में मर गए तब इनका लालन पालन ननिहाल में हुआ। एक विद्वान् मिर्जा मुअज्ज़म ने इन्हें शिक्षा दी। इन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में एक पारसी मुसलमान अब्दुस्समद से दो वर्ष तक फारसी की शिक्षा प्राप्त की। तेरह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हुआ। जागीर के बदले में इन्हें जो पेंशन मिलती थी, वह सन् १८२९ में बंद हो गई। इसके लिए यह कलकत्ते गए और दो वर्ष इसमें व्यतीत कर असफल लौट आए। लौटते समय यह बनारस तथा लखनऊ होते हुए गए थे। अवध के शाह नसीरुद्दीन हैदर ने एक कसीदे पर प्रसन्न होकर पाँच सौ रुपए वार्षिक वृत्ति नियत की। सन् १८४१ ई. में दिल्ली कालेज की फारसी की प्राध्यापकी इन्होंने इस कारण अस्वीकर कर दी कि आगरा सरकार के सेक्रेटरी ने इनको उचित समादर नहीं किया। सन् १८४९ में दिल्ली के दरबार से इन्हें नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निजाम जंग पदवी और पचास रुपए मासिक वृत्ति मिली। रामपुर के नवाब यूसुफ अली खाँ इनके शिष्य हो चुके थे। सन् १८५९ ई. में यह रामपुर गए और कुछ दिन रहकर दिल्ली लौट आए। इन्हें वहाँ से एक सौ रुपए मासिक मिलता था। इनकी पेंशन भी इसी समय मिलने लगी जिससे यह अंत तक दिल्ली ही में रहे। यहीं १५ फरवरी, सन् १८६९ ई. को इनकी मृत्यु हुई। निजामुद्दीन औलिया के पास चौसठ खंभे में इनका मकबरा है।

गालिब ने फारसी भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा परंतु यह दैव की कृपा है कि इनकी प्रसिद्धि, संमान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा सा उर्दू की दीवाने गालिब ही है। इन्होंने जब उर्दू में कविता करना आरंभ किया उसमें फारसी शब्दावली तथा योजनाएँ इतनी भरी रहती थीं कि वह अत्यंत क्लिष्ट हो जाती थी। इनके भावों के विशेष उलझे होने से इनके शेर पहेली बन जाते थे। अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न एक नया मार्ग निकालने की धुन में यह नित्य नए प्रयोग कर रहे थे। किंतु इन्होंने शीघ्र ही समय की आवश्यकता को समझा और स्वयं ही अपनी काव्यशैली में परिवर्तन कर डाला तथा पहले की बहुत सी कविताएँ नष्ट कर क्रमश: नई कविता में ऐसी सरलता ला दी कि वह सबके समझने योग्य हो गई।

गालिब की कविता में प्राचीन बातों के सिवा उनके अपने समय के समाज की प्रचलित बाते भी हैं और इससे भी बढ़कर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, जो पहले पहल उर्दू कविता में दिखलाई पड़ता है। धर्म तथा समाज के बँधें नियमों तथा रीतियों की हँसी उड़ाने का इनमें साहस था और यह अपने समय के तथा भविष्य में आनेवाले समाज को अच्छी प्रकार समझते थे। यह मानव जीवन तथा कविता के संबंध को जानते थे और इन सबके वर्णन के लिए इनकी शैली ऐसी अनोखी तथा तीखी थी, जो न पहले और न बाद में दिखलाई पड़ी। मानव जीवन के प्रति इनके विचार बहुत अच्छे हैं, यह जीवनसंघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। यह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते हैं। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में यह अत्यंत निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। गालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्रतत्र झलकती रहती हैं। यह मदिराप्रेमी थे इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।

गालिब ने केवल कविता में ही नही, गद्यलेखन के लिये भी एक नया मार्ग निकाला था, जिसपर वर्तमान उर्दू गद्य की नींव रखी गई। सच तो यह है कि गालिब को नए गद्य का प्रवर्तक कहना चाहिए। इनके दो पत्रसंग्रह उर्दुए हिंदी तथा उर्दुए मुअल्ला ऐसे ग्रंथ हैं कि इनका उपयोग किए बिना आज कोई उर्दू गद्य लिखने का साहस नहीं कर सकता। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने सरल उर्दू लिखने का ढंग निकाला और उसे फारसी अरबी की क्लिष्ट शब्दावली तथा शैली से स्वतंत्र किया। इन पत्रों में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विवरणों का अच्छा चित्र हैं। गालिब की विनोदप्रियता भी इनमें दिखलाई पड़ती है। इनकी भाषा इतनी सरल, सुंदर तथा आकर्षक है कि वैसी भाषा कोई उर्दू लेखक अब तक न लिख सका। गालिब की शैली इसलिये भी विशेष प्रिय है कि उसमें अच्छाइयाँ भी हैं और कचाइयाँ भी हैं तथा पूर्णता और त्रुटियाँ भी हैं। यह पूर्णरूप से मनुष्य हैं और इसकी छाप इनके गद्य पद्य दोनों पर है।

इनकी अन्य रचनाएँ लतायफे गैबी, दुरपशे कावेयानी, नामाए गालिब, मेह्नीम आदि गद्य में हैं। फारसी के कुलियात में फारसी कविताओं का संग्रह हैं। दस्तंब में इन्होंने १८५७ ई. के बलवे का आँखों देखा विवरण फारसी गद्य में लिखा हैं। (रजिया सज्जाद ज़हीर)