भाग में स्थित गारो पर्वत में रहनेवाला एक आदिवासी समूह। यह संसार की उन कुछेक जनजातियों में से है जिसका मातृमूलक परिवार आज भी अपनी सभी विशेषताओं के साथ कायम है। वंशावली नारी से चलती है और संपत्ति की स्वामिनी भी नारी होती है। विवाह होने पर पुरुष रात्रि की ओट में ससुराल में पत्नी के पास जाता है वहाँ न भोजन ग्रहण करता है, न पानी। घर की सबसे छोटी बहन संपत्ति की स्वामिनी (नोकना) होती है। विवाह होने पर स्रियाँ अपने घर पर ही रहती हैं। सामान्यत: बुआ की लड़की से विवाह होता है। पुरुष को अधिकार होता है कि वह अपने भानजे को अपना जामाता बना ले और पुत्र को भानजी के साथ एक कमरे में बंद कर दे। जब गारो युवक अपने मामा की लड़की से विवाह करता है, तब उस समय, यदि सास भी विधवा हो, तब उससे भी विवाह करना पड़ता है।
गारो तिब्बतीह-बर्मी भाषा बोलते हैं जिसकी शब्दावली तथा वाक्यरचना का तिब्बती से बहुत सादृश्य है। जनश्रुति के अनुसार, जिसमें पर्याप्त सत्यांश जान पड़ता हैं, गारो तिब्बत से पूर्वी भारत और बर्मा होते हुए अंततोगत्वा असम की गारो पहाड़ियों पर आकर रहने लगे।
गारो पीतवर्ण हैं; कुछ में श्यामलता भी है; कद नाटा, चेहरा छोटा, गोल और नाक चपटी होती है। जब अन्यत्र जाते हैं तब गारो पुरुष नीली पट्टी का वस्र और सिर पर मुर्गे के पंखोंवाला मकुट पहनते हैं।
गारो की उपजीविका का आधार झूम (दहिया) की खेती और मछली का शिकार है। जंगल काटकर उसमें आग लगा दी जाती है और उसकी राख से एक दों फसलें उगाकर स्थान परिवर्तन कर दिया जाता है। घर बाँस और फूंस के बने होते हैं। गाँव के युवक अपने नाचने गाने के लिए अलग घर बनाते हैं जिसे ‘नोकोपांटे’ कहते हैं। मृत पूर्वजों की पूजा की जाती है जिनकी आतमाएँ घर के बीचवाले सबसे बड़े कमरे में निवास करती हैं। मद्यपान जीवन का आवश्यक अंग है।
मुर्दो को जलाने की प्रथा है। पूर्ववर्ती काल में सरदार तथा राजा के मृत शरीर के साथ उनके दासों को भी जला दिया जाता था और संबंधी लोग चिता में जलाने के लिए अधिक से अधिक नरमुंड काटकर लाने का प्रयत्न करते थे। रोग का जोर होने पर गाँव के बाहर रास्तों को घेर लिया जाता है और डंडों से वृक्षों को पीटा जाता है ताकि प्रेत आत्माएँ भाग जाएँ। ऐसे अवसर पर सूअर और मुर्गी की बलि भी दी जाती है।
गारो जाति के लोग पहाड़ी तथा मैदानी दो समूहों में बँटें हैं। गारो पहाड़ियों से बाहर रहनेवाले सभी गारो लोग मैदानी कहलाते हैं। कुछ गारो ईसाई हो गए है किंतु उनके मातृमूलक परिवार पर इसका विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। पर अन्य बहुत-सी भारतीय जनजातियों की भाँति गारों जाति भी बाहरी प्रभाव के परिणामस्वरूप विशृंखला और परिवर्तन की पीड़ा का अनुभव कर रही है। (राजाराम शास्त्री., स. मि. शा.)