गारीबाल्दी, गुइसेप्पे (१८०७-१८८२) इटली का जननेता। इनका जन्म नोके में ४ जुलाई, १८०७ को हुआ था। इटली दीर्घकाल तक विदेशी सत्ता की क्रीड़ाभूमि रही और उसके देशभक्तों ने विशेषकर १९वीं सदी में उसे विदेशियों के चंगुल से मुक्त करने का निरंतर प्रयास किया। उस आजादी की लड़ाई में अग्रणी मात्सीनी और गारीबाल्दी थे। दोनों ने आस्ट्रियनों के खिलाफ षड्यंत्र किया और यह तय हुआ कि जब मात्सीनी का दल पीदमोंत में प्रवेश करे तभी गारीबाल्दी अपने साथियों के साथ यूरीदीचे नामक लड़ाकू जहाज पर कब्जा कर ले। इस षड्यंत्र का भेद खुल जाने से गारीबाल्दी को १८३६ में दक्षिणी अफ्रीका भागना पड़ा। उधर इटली के तत्कालीन विधाताओं ने उसे प्राणदंड की घोषणा कर दी। दक्षिण अफ्रीका के उरुगुवे में उसने इतावली सेना का निर्माण कर वहाँ के विद्रोह में सफल भाग लिया। इटली में जब विद्रोह का आंदोलन चला तब वह स्वदेश लौटा और अपनी सेवाएँ चार्ल्स अलबर्ट को समर्पित कर दीं। वहाँ उसने एक स्वयंसेवक सेना प्रस्तुत की पर शीघ्र ही हारकर उसे स्विटजरलैंड भागना पड़ा। अगले ही साल वह फिर स्वदेश लौटा और रोम की ओर से लड़ता हुआ उसने फ्रांसीसियों से सान पान कात्सिमों की लड़ाई जीती। अनेक स्थानों पर युद्ध जीतने के बाद रोम की पराजय पर उसे भी भागना पड़ा। फ्रांस, आस्ट्रिया, स्पेन और नेपुल्स की सेनाएँ पीछा करती जा रही थीं और वह मध्य इटली से पीछे हटता जा रहा था। उसका वह मार्च इतिहस प्रसिद्ध हो गया है। गारीबाल्दी को फिर अमरीका में शरण लेनी पड़ी पर स्वदेश को विदेशियों के कब्जे में न देख सकने के कारण १८५४ में वह फिर इटली लौटा। पाँच साल बाद जो देश के दुश्मनों से युद्ध छिड़ा तो उसने बार बार आस्ट्रिया की सेनाओं को परास्त किया। शीघ्र ही उसने ब्रिटिश जहाजों की सहायता से सालेनी जीत ली जहाँ उसे डिक्टेटर घोषित किया गया। नेपुल्स की सेनाओं को गारीबाल्दी ने बार बार परास्त किया और विजयी के विक्रम से उसने नेपुल्स में भी प्रवेश किया जहाँ एमेनुएल को प्रतिष्ठित कर वह स्वयं फ्रांसीसियों की बची खुची सेना को नष्ट करने में लग गया।

इटली में जो नई सरकार बनी उसका विधाता कावूर था। उसके सैनिकों के प्रति कावूर और उसकी सरकार की अरुचि तथा उदासीनता के कारण गारीबाल्दी उनसे चिढ़ गया। शीघ्र ही रोम पर उसने चढ़ाई की पर वह कैद कर लिया गया, यद्यपि उस कैद से उसका तत्काल छुटकारा हो गया। अब तक गारीबाल्दी के बलिदानों की ख्याति सर्वत्र पहुँच गई थी और सर्वत्र उसका शौर्य सराहा जाने लगा था। १८६४ में वह इंग्लैंड पहुँचा जहाँ उसका भव्य स्वागत हुआ। १८६६ में जब आस्ट्रिया के साथ फिर युद्ध छिड़ा तब वह इटली लौटा और उसने स्वयंसेवक सेना की कमान अपने हाथ में ली और शीघ्र ही अपनी विजयों का ताँता बाँध लिया। पर जब वह अपनी विजयों की चोटी छू रहा था और ट्रेंट पर हमला करने ही वाला था कि जनरल लामारमोरा की आज्ञा से उसे पीछे लौटना पड़ा। इस आज्ञा ने उसका जी तोड़ दिया पर अपने मन को मथकर उसने इस आदेश का जो उत्तर दिया-ओबेदिस्को-मैं आज्ञा के प्रति आत्मसमर्पण करता हूँ-वह इतिहास सप्रसिद्ध हो गया है। इसके बाद वह काप्रेरा लौट गया जहाँ उसने अपना स्थान बना लिया था।

रोम पर अभी तक इतावली जनता का अधिकार नहीं हुआ था जिसे संपन्न करने की अब गारीबाल्दी ने तैयारी की। १८६७ में उसने रोम में प्रवेश करने का प्रयत्न किया पर वह पकड़ लिया गया। अब गारीबाल्दी फ्लोरेंस भागा और रातात्सी कैबिनेट की सहायता से फिर रोम की ओर लौटा, पर फ्रांस और पोप की संमिलित सेनाओं ने उसकी सेना को नष्ट कर दिया। गारीबाल्दी पकड़कर काप्रेरा भेज दिया गया। १८७० में उसने अपनी सेना द्वारा फ्रांस की मदद कर जर्मनी को हराया। पहले वह वर्साई की विधान सभा का प्रतिनिधि चुना गया पर फ्रेंच अपमान से चिढ़कर वह काप्रेरा लौटा और १८७४ में रोम की विधान सभा का प्रतिनिधि चुन लिया गया। उपकृत इतालवी कैबिनेट ने अंत में उसे एक भारी पेंशन दी। गारीबाल्दी २ जून, १८८२ को मरा और इतावली क्रांति के युद्धों में देशभक्त योद्धा के रूप में विख्यात हुआ।

सं. ग्रं.-जी. एम. ट्रेवेलियन : गैरिबाल्डीज़ डिफ़ेंस ऑव द रोमन रिपब्लिक (१९०७); गैरिबाल्डी ऐंड द थाउज़ेंड (१९०९); गैरिबाल्डी ऐंड द मेकिंग ऑव इटली (१९११)। (पद्मा उपाध्याय)