गाजर जैसा विश्वास किया जाता है, गाजर की उत्पत्ति का आरंभ एशिया, यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीका से हुआ है और इसका मुख्य उत्पत्ति केंद्र अफगानिस्तान तथा समीपवर्ती क्षेत्र है। इसमें कैरोटीन (Carotene) रहता है, जो विटामिन ए में परिणत हो जाता है, इसीलिए इसका पोषणमूल्य अधिक है तथा यह बच्चों के लिये विशेष लाभदायक है। विटामिन ए की मात्रा पशुओं से प्राप्त वस्तुओं में ही साधारणतया अधिक होती है। इसी कारण शाकाहारी भोजन में गाजर के उपयोग पर अधिक जोर दिया गया है। छोटी गाजर की अपेक्षा बड़ी में कैरोटीन अधिक होता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि गाजर का खाने के रूप में उपयोग पहली बार दवा के रूप में हुआ तथा यूनान के कृषकों, और डाक्टरों ने गाजर तथा अमाशय को शक्ति देनेवाले इसके गुणों के बारे में इस युग की पहली शताब्दी में ही लिखा। अन्न की कमी से अवसर पर, अथवा अकाल में, यह अमूल्य खाद्य का काम देता है। अपने पोषक गुणों के अतिरिक्त यह पर्याप्त कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन भी देता है।
वायुजलीय आवश्यकताएँ----गाजर पूर्णतया ऋतु की फसल है। तुषार को यह यथेष्ट सहन कर सकता है। अच्छे रंग के साथ सबसे अच्छी जड़ों का आदर्श ताप १५ से २२ सें. हैं। किंतु गाजर की जो जातियाँ भारत में वायुजलानुकूलित हो गई हैं ये यथेष्ट गर्मी सहन कर सकती हैं।
मिट्टी और खाद -----ऐसी बलुई दुमट अथवा दुमट भूमि में, जो बहुत अच्छी तरह से गहरी खुदाई करके तैयार की गई हो तथा जिसमें कार्बनिक खाद भी अच्छी प्रकार से दी गई हो, गाजर की उपज बहुत अच्छी होती है। कड़ी भूमि में जड़े भली प्रकार बढ़ नहीं सकती। अत्यधिक आम्लिक भूमि गाजर के विकास के लिए अनुकूल नहीं होती। अत: ऐसी दशा में पी-एच प्राय: ६.५ कर लेना चाहिए। इसकी नाइट्रोजन की आवश्यकता प्रति एकड़ ७५ से १०० पाउंड तक होती है। चूंकि जड़वाली फसलों को कार्बनिक तत्वों की अधिक आवश्यकता होती है। इस लिए लगभग १० से १५ टन एक अच्छी सड़ी हुई खाद का उपयोग करना चाहिए। तथा उसे ९ से १० की गहराई तक अच्छी तरह से मिला देना चाहिए, जिसमें भोजन तत्वों का सम भाग में वितरण हो जाय। इससे जड़े अपने वास्तविक आकार में बढ़ती है। तथा छोटी और विभाजित नहीं होती। गाजर को पोटाश की भी यथेष्ट आवयश्यकता होती है, अर्थात् एक एकड़ में लगभग १०० पाउंड पोटाश लाभकारी सिद्ध हो सकता है।
बुआइर्----गाजर का बीज सीधा खेत में ही बोया जाता है। वायुजलानुकूलित बीज अगस्त के अंत से लेकर सितंबर के अंत तक किसी भी समय बोया जा सकता है। तथा आयात किया हुआ बीज सितंबर के आरंभ से नवम्बर के आरंभ तक बलुई या दुमट मिट्टी में बीज छिटकाकर बोया जा सकता है, किंतु यह अधिक अच्छा होगा कि इसे ९ से १ तक चौड़ी कतारों में बोया जाय तथा गहराई १/२ से ३/४ रखी जाय। वर्षा ऋतु में बुआई मेड़ों पर भी की जा सकती है। १०० फुट की बुआई के लिये लगभग १४ ग्राम बीज की आवश्यकता होती है तथा एक एकड़ के लिये लगभग २ किलोग्राम की। गाजर के बीज को जमने में अधिक समय लगता है, लगभग १० दिन वर्षा ऋतु में। जब पौधे ऊपर या जायँ तब २ से ४ तक गहरी निकाई, गोडाई करनी चाहिए। मध्यम आकार की जड़ें खाने के लिए सबसे अच्छी समझी जाती हैं। मटियार भूमि में गाजर मेड़ों पर यथेष्ट सफलता से बोई जाती है लगातार मुलायम जड़े पाने के लिये खेत के भिन्न भिन्न अंशों में विभिन्न समयों पर बोने की प्रथा अपनानी चाहिए, अर्थात् प्रत्येक तीन सप्ताह पर अथवा प्रत्येक मास पर। उथली जोत द्वारा क्यारियों को खरपात से रहित रखना चाहिए। सर्दी में प्रत्येक ७ से १० दिनों में सिंचाई करनी चाहिए। पर्वतों पर फरवरी के अंत में जब मौसम गरम होने लगता है तभी बुआई की जाती है। जो मई के अंत तक चलती है।
उपज----गाजर की माध्य उपज प्रति एकड़ लगभग ७,०००----९,००० किलोग्राम है, किंतु १७,००० किलोग्राम प्रति एकड़ तक की उपज भी संभव है।
जातियाँ----गाजर की जातियाँ तीन बड़े वर्गों में विभाजित की जा सकती हैं। छैंटेने छोटी, स्थूल, चौकोर कंधोंवाली तथा नारंगी के रंग की होती है इस जाति की नई गाजर के आंतरक तथा छाल में अच्छा नारंगी रंग होता है। जबकि पुरानी गाजर के आंतरक में नीबू के समान पीला तथा छाल में नारंगी रंग होता है। नैटस की भी लंबाई लगभग उतनी ही है जितनी छैंटने की, किंतु यह पतली और गोल होती है। ऊपर की ओर गोल और जड़ के निचले भाग में एक छोटा आंतरक (Core) होता है। इसका रंग सभी जगह गहरा नारंगी होता है। यह जाति गुणों में अन्य से उत्तम मानी जाती है। डेनवर्स इंपरैटर आदि उस विभाग में आती हैं जिनके पौधों की जड़े लंबी, थोड़ी पतली तथा ऊपर से गोलाकार पतली होती हुई सिरे पर नुकीली हो जाती हैं।
औद्भिदी-----गाजर डाकस केरोटा (Daucus Carota) वंश अंब्रेलिफेरी (Umbelliferae) के अंतर्गत आती है। जंगली तथा खेती की जानेवाली गाजर एक ही जाति के अंतर्गत आती हैं। इनमें पहली की पहचान उसके पुष्पप्रदेश के मध्य में बैंगनी रंग की पंखुड़ियाँ हैं। प्रत्येक फूल में दोहरे फल होते हैं, जिनके प्रत्येक मध्य आधे भाग में एक बीज होता है।
बीज उपजाना----इसमें परागण क्रिया हवा तथा कीड़ों द्वारा होती है। अत: कई जातियाँ यदि साथ साथ उगाई गई हैं, अथवा १/२ से १ मील की त्रिज्या में बोई गई हैं तो संकरण क्रिया हो जायेगी तथा जो बीज मिलेगा उसकी फसल मिश्रित होगी। फसल की उन्नति का एक सरल उपाय सामूहिक चुनाव है। जाति की असली, पकी हुई, सबसे अच्छी जड़ को चुनना चाहिए। इसका नीचे का आधा अथवा तीन चौथाई भाग काट दिया जाता है तथा इसकी पत्तियां छाँट दी जाती है। केवल ऊपर का बीचवाला छोटी पत्तियों का गुच्छा छोड़ दिया जाता है। जड़ का यह ऊपरी भाग, पत्तियों के गुच्छे के साथ, मध्य दिसंबर जनवरी में, उपजाऊ भूमि में, लगभग दो दो फुट की दूरी पर रोपित कर सींच दिया जाता है। इसमें नई पत्तियां तथा फूलों के डंठल निकलते हैं। जड़ों के चुनाव पर भी पहले वर्ष में यह संभव है कि कई जाति के पौधे निकलें, जिनमें से कुछ में रंगदार कक्ष तथा पुष्पप्रदेश में बैंगनी रंग की पंखुडियां हों। तने का शेष भाग और फूलों का डंठल हरा हो सकता है। किंतु तब इनके पुष्पप्रदेश में बैंगनी रंग की पंखुडियाँ नहीं होंगी। आगामी वर्षों में दूसरी जाति के पौधों से अलग बीज लेना चाहिए। इन चुनावों का बीज जितनी दूर हो सके बोना चाहिए, जिससे संकर परागण क्रिया न हो सके। शुद्ध जाति के उत्पादन के लिये कठोर चुनाव करना चहिए। उदाहणार्थ, जिस खेत में हरे पौधे और बिना बैंगनी पंखुड़ियोंवाले पौधों का बीज बोया गया हो, उसमें कुछ वर्षों तक कुछ ऐसे पौधे निकलते रहते हैं जिनमें बैंगनी रंग की पंखुड़ियाँ हों। इनको तुरंत उखाड़कर फेंक देना चाहिए, जिससे कुछ वर्ष बाद वह जाति शुद्ध हो जाय। गाजर के बीज को पकने में यथेष्ट समय लगता है, अत: जड़ों का रोपण मध्य जाड़ों में करना चाहिए, अर्थात, दिसम्बर या जनवरी में, जिससे गर्म हवाओं के चलने तक बीज पक जायँ। (यशवंतराम मेहता)