गॉग (काक), विसेंट वान (१८५३-१८९० ई०) आधुनिक चित्रकला के जनक और उत्तर प्रभाववादी आंदोलन के क्रांतिकारी डच चित्रकार। हालैंड के गुटजंडर्ट ग्राम में ३ मार्च, १८५३ को पैदा हुए। उनके पिता पादरी थे। सोलह साल की अवस्था में अपने एक चित्रविक्रेता चाचा की दुकान में नौकरी करना आरंभ किया। पश्चात गोपिल ऐंड कंपनी की पेरिस एवं लंदन शाखा में काम करते रहे। सन् १८७३ में रम्स गेट में शिक्षक बने और पिता के मार्ग का अनुसरण करते हुए धर्मोपदेशक हो गए। दलितों के प्रति अन्याय देखकर ्ख्रास्ती साम्यवाद के आदर्शों द्वारा आकृष्ट हुए और वासमेस खदानों के मजदूरों में जाकर रहने लगे। फुर्सत में कला की साधना भी करते रहे। सन् १८८० में वह चित्रकला का अध्ययन करने ब्रुसेल्स गए। तत्पश्चात् अपने पिता के यहाँ न्युनेन में कुछ वर्ष रहे और वहाँ के सादे एवं सरल जीवन का सूक्ष्मता से अध्ययन क रवहाँ उसका चित्रण किया। उन दिनों की अनेक कृतियों में उनकी कृति आलूखो जिसमें एक मेज के चारों ओर ग्रामीण बैठे दिखाए गए हैं, काफी प्रसिद्ध है। इस चित्र में प्रयुक्त कत्थई रंग द्वारा उसने मजदूरों के कष्ट एवं कुरूपता को मुखरित किया है। सन् १८८५ में ऐंटवर्प अकादमी में शिक्षा प्राप्त कर पेरिस स्थित अपने भाई थेरो के पास रहने लगे। उसने उनका नवप्रभाववादी शैली के चित्रकारों से परिचय कराया। थेरो ने उसको कत्थई तथा काले भूरे रंग को त्यागने तथा सूरा के चमकदार रंगों की तकनीक का अनुसरण करने की सलाह दी। गॉग ने जापानी चित्रों को देलाकोआ एवं मोंतेचेली की कृतियों का भी अध्ययन किया। रेस्तराँ मोंतमात्र और कलर मन शीर्षक चित्रों में चमकदार रंगों का प्रयोग किया। कफे लांबोरिन में चित्रित भित्तिचित्र इसी समय बनाया। पेरिस से दक्षिण की ओर गए और वहाँ फलों से लदे वृक्ष, सूर्यप्रकाश में नहानेवाले खेत, साइप्रस, सूरजमुखी तथा एक चित्र में अपने सादे कमरे देहाती कुर्सी तथा स्वयं का व्यक्तिचित्र खींचा जिसमें अपनी नीली, बेचैन, गहरी आँखे और बेढ़ंगा सिर भी चित्रित किया।
साधारण परिवार के पात्र उसके चित्रों में मॉडेल रहे। इन दिनों की कृतियों में उसने शुद्ध गहरे तथा रंगों की मोटी पर्त से मुक्त लंबी लंबी रेखाओं से चित्रण किया।
गॉग ने हर वस्तु के स्पर्शसंवेदन को चित्रों में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया। उनका यह तकनीक सुरा के समान शास्त्रीय एवं नपातुला नहीं है, बल्कि अपनी तीव्र भावाभिव्यक्ति ने पर्याप्त रूखापन लिए हुए है। अक्टूबर में पेरिस में उसकी से भेंट हुई। उनका आग्रहपूर्वक निमंत्रण पार वह उनके पास चला गया। दोनों मिलकर काम करने लगे।
कुछ ही दिनों बाद निरंतर धूप में परिश्रम करने के कारण गॉग को पागलपन के दौरे आने लगे। भावुक यह इतना था कि एक बार रेस्त्राँ की वेट्रेस ने चिढ़कर कहा कि अगर टिप देने को और कुछ नहीं हे तो वह अपनी लंबा कान ही क्यों नहीं देता, और एक दिन जब वह वेट्रेस ने अपनी डाक का पर्सल खोला तो उसमें गॉग का कान देख कर वह चीख उठी। १८८९ ई. में उसे फिर दौरे आने लगे, यद्यपि वह लगातार चित्र बनाता रहा। उसका उर्वर जीवन अधिकांशत: अंधकार में ही बीता। उसे मेंट मेरी में स्थानातरण किया गया। और मई १८९० में ओवर सर आईस में डा. गाचेट की निगरानी में रखा गया। गॉग ने इस डाक्टर का व्यक्तिचित्र बनाया जो अब फ्राँकफुर्ट म्यूजियम में है २९ जुलाई, १८९० का अपना अंतिम चित्र बनाते हुए उसे पागलपन का दौरा आया और उसने पिस्तौल से आत्महत्या कर ली।
गॉग का जीवन नारीप्रेम से वंचित रहा। सभी से उसे ठुकराया यदि किसी ने उसकी कला पर विश्वास किया और उसे सहायता पहुँचाई तो वह उसका थेरो था। गॅग्रा के थेरो को लिखे हुए अनेक पत्रों से उसकी कला तथा उद्देश्य पर प्रकाश पड़ता है। उसके लिखे पत्रों के आधार पर समूसचे उपन्यास लिखे गए हैं। लस्ट फ़ार लाइफ उसके जीवन को अभिराम, निश्छल, भावुक व्यक्त करता है। जिस प्रकार मोला रूज़ और मित्र और समकालीन असाधारण क्षमवाले लुंज चित्रकार तूलू लूत्रे के जीवन का उद्घाटन करता है। गॉग का जीवन मरण पर्यंत संघर्ष का था। (भाऊ समर्थ)