गांधीवाद महात्मा गांधी के कार्यों और विचारों को लोगों ने दो भिन्न दृष्टियों से देखने की चेष्टा की है। एक वर्ग ऐसे लोगों का है जो उन्हें महात्मा के रूप में देखता है। उन्हें अनेक कार्यों और विचारों से आध्यात्मिकता की झलक दिखाई पड़ती है। और इस रूप में जिन लोगों ने उनका अध्ययन और मनन किया है, उनमें उनको गांधी का एक अपना दर्शन दिखाई पड़ता है और उन्होंने उसकी दार्शनिक व्याख्या की है। दूसरे वे लोग हैं जो गांधी की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करते। उनकी दृष्टि में वे मात्र राजनेता थे, समाज सुधारक थे, अर्धवेत्ता थे और शिक्षाशास्त्री थे। उनकी अपनी धर्म और अध्यात्म संबंधी मान्यता जो भी रही हो, सार्वजनिक दृष्टि से उनके कार्यों में उनका विशेष स्थान नहीं है। उन्होंने उनका विश्लेषण विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टि से किया है और उनके विचारों को एक बाद के रूप में देखा है। इस प्रकर उन्होंने महात्मा जी की विचार पद्धति को गांधीवाद नाम दिया है। उनका कहना है कि समाज और शासन के संघटन तथा जीवन संबंधी पक्षों के संबंध में उन्होंने जो कुछ भी कहा है वह उनके अपने विचार थे, जिनक ा प्रतिपादन उन्होंने अपने जीवनक्रम के मध्य से गुजरते हुए किया है।

महात्मा गांधी के कार्यों और विचारों में समाज की बंधी हुई परंपरा जनित कल्पनाओं को तोड़ने के स्थान पर उनका परिष्कार कर उनको विकसित करने की भावना रही है। सत्याग्रह उनका सामाजिक आदर्श और रामराज्य उनका शासनादर्श था। सत्य और अहिंसा को गांधीवाद का मूल स्तंभ कहा जा सकता है। सत्य और अहिंसा को उन्होंने एक दूसरे का पहलू माना है। उनकी दृष्टि में अहिंसा में द्वेष का अभाव ही नहीं प्रेम की संप्राप्ति भी है।

इनकी विशद व्याख्या करने पर लगता है कि महात्मा गांधी की विचारधारा संतों की परंपरा की एक नई कड़ी है। उन्होंने उनकी तरह ही त्याग और तप को महत्व दिया है। इस प्रकार उनके विचार और कार्य भौतिक स्तर पर सामान्य लगते हुए भी मात्र भौतिक नहीं हैं। कहीं न कहीं अध्यात्म को छूते अवश्य हैं। इसलिए उसे कोरा वाद नहीं कहा जा सकता। (परमेवरीलाल गुप्त)