गांधी दर्शन महात्मा गांधी ने किसी नए दर्शन की रचना नहीं की है वरन् उनके विचारों का जो दार्शनिक आधार है, वही उनका दर्शन है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास करनेवाले भारतीय आस्तिक के ऊपर जिस प्रकार के दार्शनिक संस्कार अपनी छाप डालते हैं वैसी ही छाप गांधी जी के विचारों पर पड़ी हुई है। वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते हैं और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती है। किसी गंभीर रहस्यवाद में न पड़कर वे यह मान लेते हैं कि शिवमय, सत्यमय और चिन्मय ईश्वर सृष्टि का मूल है और उसने सृष्टि की रचना किसी प्रयोजन से की है। वे ऐसे देश में पैदा हुए जिसने चैतन्य आत्मा की अक्षुण और अमर सत्ता स्वीकार की है। वे उस देश में पैदा हुए जिसमें जीवन, जगत सृष्टि और प्रकृति के मूल में एकमात्र अविनश्वर चेतन का दर्शन किया गया है और सारी सृष्टि की प्रक्रिया को भी सप्रयोजन स्वीकार किया गया है। उन्होंने यद्यपि इस प्रकार के दर्शन की कोई व्याख्या अथवा उसकी गूढ़ता के विषय में कहीं विशद और व्यवस्थित रूप से कुछ लिखा नहीं है, पर उनके विचारों का अध्ययन करने पर उनकी उपर्युक्त दृष्टि का आभास मिलता है। उनका वह प्रसिद्ध वाक्य है---जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है।

यहाँ उन्हें जीवन और जगत का प्रयोजन दिखाई देता है। वे कहते हैं कि जीवन का निर्माण और जगत की रचना शुभ और अशुभ जड़ और चेतन को लेकर हुई है। इस रचना का प्रयोजन यह है कि असत्य पर सत्य की और अशुभ पर शुभ की विजय हो। वे यह मानते हैं कि जगत का दिखाई देनेवाला भौतिक अंश जितना सत्य है उतना ही और उससे भी अधिक सत्य न दिखाई देनेवाला एक चेतन भावलोक है जिसकी व्यंजना जीवन है। फलत: वे यह विश्वास करते हैं कि मनुष्य में जहाँ अशुभ वृत्तियाँ हैं वहीं उसके हृदय में शुभ का निवास है। यदि उसमें पशुता है तो देवत्व भी प्रतिष्ठित है। सृष्टि का प्रयोजन यह है कि उसमें देवत्व का प्रबोधन हो और पशुता प्रताड़ित हो, शुभांश जागृत हो और अशुभ का पराभव हो। उनकी दृष्टि में जो कुछ अशुभ है, असुंदर है, अशिव है, असत्य है, वह सब अनैतिक है। जो शुभ है, जो सत्य है, जो शुभ्र है वह नैतिक है। वही सत्य, वही शिव और सुंदर है। जो सुंदर है उसे शिवमय और सनमय होना चाहिए। उन्होंने यह माना है कि सदा से मनुष्य अपने शरीर को, अपने भोग को, अपने स्वार्थ को, अपने अहंकार को, अपने पेट को और अपने प्रजनन को प्रमुखता प्रदान करता रहा है। पर जहाँ ये प्रवृतियाँ मनुष्य में हैं, जिनसे वह प्रभावित होता रहता है, वहीं उसी मनुष्य के उत्सर्ग और त्याग, प्रेम और उदारता, नि:स्वार्थता तथा व्यष्टि को समष्टि में लय करके, अहंभाव का सर्वथा त्याग करके विराट में लय हो जाने की दैवी भावना भी वर्तमान है। इन भावों का उद्बोधन तथा उन्नयन दानव पर देव की विजय का साधन है। इसी में अनैतिकता का पराभव और अजेय नैतिकता की जीत है।

इसी के प्रकाश में महात्मा गांधी ने सारी सृष्टि के विकास और मानव के इतिहास को देखा। उनका दर्शन एक प्रकार से जीवन, मानव समाज और जगत का नैतिक भाष्य है। इसी की गर्भ दृष्टि से उनकी अहिंसा का प्रादुर्भाव हुआ है। उनकी अहिंसा प्राचीन काल से संतों और महात्माओं की अहिंसा मात्र नहीं है। उनकी अहिंसा शब्दप्रतीक रूप में उच्चरित होती है जिसमें उनकी सारी दृष्टि भरी हुई है। वह मानते हैं कि जगत में जो कुछ अनैतिक है वह सब हिंसा है। स्वार्थ, दंभ, लोलुपता, अहंकार, भोग की प्रवृत्ति, तृप्ति के लिए किए गए शोषण, प्रभुता तथा अधिकार और अपने को ही सारे सुखों, संपदाओं और वैभव तथा ऐश्वर्य का दावेदार समझने की प्रवृत्ति उनकी दृष्टि में वे पशुभाव हैं जो मनुष्य को पशुता, अमानवता और अनैतिकता की ओर ले जाते हैं। उनकी अहिंसा केवल आदर्श तक ही परिमित नहीं है। वे उसे ही लक्ष्य की संसिद्धि के लिए शक्तिमय साधन के रूप में भी देखते हैं। अहिंसा को पशुता के विरु द्ध विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करने और उसे अजेय तथा अमोघ शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने में गांधी जी की प्रतिभा अपनी अभूतपूर्व अभिनवता प्रदर्शित करती है। उनकी अहिंसा केवल जीवहिंसा न करने तक ही परिमित नहीं है, प्रत्युत जहाँ कहीं हिंसा हो, अन्याय हो, पशुता हो, उसका मुकाबला करने के लिए परमाशक्ति के रूप में अग्रसर होती हैं। अन्याय और अनीति के संमुख मस्तक झुकाना पाप है। पशुता को प्रश्रय मत दो पशुता के सामने सिर न झुकाओ, अनीति और पशुता का सामना अनैतिकता और पशुता के द्वारा मत करो क्योंकि वह पशुता पर पशुता की विजय होगी। पशुता पर देवत्व की विजय तब होगी जब नैतिक और शुभ अस्त्रों से अनैतिक और दानव भाव की पराजय हो। शस्त्र से शस्त्र का, हिंसा से हिंसा का, क्रोध से क्रोध का पराभव नहीं किया जा सकता। उनकी अहिंसा निष्क्रिय नहीं सक्रिय है। वह कायर पलायनवादी अथवा शस्त्र से भयभीत होनेवाले के लिए निकल भागने का मार्ग प्रस्तुत करने के निमित्त नहीं आयोजित होती। वह वीरता, दृढ़ता, संकल्प और धैर्य को आधार बनाकर खड़ी होती है जो अन्याय और अनाचार को, जगत की सारी शस्त्रशक्ति को, और द्वेष तथा दंभ से अधीर हुई शासनयत्ता की सारी दमनात्मक प्रवृत्ति को चुनौती देती है।

उनकी इस चिंतनधारा से असहयोग और सत्यागह का जन्म हुआ। यही उनकी हिंसक क्रांति, रक्तहीन विप्लव और हिंसाहीन युद्ध का मूर्त रूप है। उनकी दृष्टि में अहिंसा अमोघ शक्ति है जिसका पराभव कभी हो नहीं सकता। सशस्त्र विद्रोह से कहीं अधिक शक्ति अहिंसक विद्रोह में है। शस्त्र का सहारा लेकर अहिंसक वीर की आत्मा का दलन करने में कोई सत्ता, साम्राज्य अथवा शक्ति समर्थ नहीं हो सकती। अहिंसा नैतिकता पर आश्रित है, अत: सत्य है और सत्य ही सदा विजयी होगा। इस प्रकार संसार के सामने अहिंसा के रूप में उन्होंने उज्वल, महान और नैतिक पथ निर्मित किया। जिसने मनुष्यसमाज और जगत को गतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की। वे उन समस्त मान्यताओं, धारणाओं और दृष्टियों के प्रतिवाद हैं जिनका आधार भौतिकवाद है। वे प्रतीक हैं उन समस्त भावों के जो मनुष्य को पशुता की ओर नहीं, देवत्व की ओर बढ़ने की दिशा का संकेत करते हैं।

इस अहिंसक पथ को प्रदर्शित करके वे कल्पना करते हैं एक ऐसे लक्ष्य तक पहुँचने की जहाँ अहिंसा के आधार पर ही मनुष्य के जीवन, उसके समाज और उसके जगत की व्यवस्था की रचना की जा सके। वे मानते हैं कि मनुष्य परिवर्तित किया जा सकता है और उसका विकास शुभ्रता की ओर हो सकता है। वे यह भी मानते हैं कि निसर्गत: मनुष्य भला है और भलाई की ओर ही उन्मुख है। वे समझते है कि व्यक्ति से समाज बनता है और व्यक्ति का परिवर्तन समाज को परिवर्तित कर देगा। वे यह भी मानते हैं कि परिवर्तित समाज व्यक्ति के लिए उन संस्कारों की रचना करेगा जिससे नूतन संस्कृति का आविर्भाव होगा। अहिंसा के आधार पर समाज की रचना किस प्रकार हो सकती है इसकी सारी कल्पना उनके चरखे में प्रतिष्ठित है। वे यह स्वीकार करते हैं कि आर्थिक व्यवस्था का व्यक्ति और समाज पर सबसे अधिक प्रभाव होता है और फिर उससे उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक मान्यताएँ राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती हैं। आज पदार्थों के उत्पादन की प्रणाली वैज्ञानिक यंत्रवाद के कारण केंद्रित हो गई है और वही आधुनिक विश्व की समस्त समस्याओं के मूल में बैठी हुई है। उत्पादन की केंद्रित प्रणाली केंद्रीभूत पूंजी को जन्म देती है जिसके फलस्वरूप समाज के थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का सूत्र आता है। उसकी रक्षा के लिये शक्ति तथा अधिकार और प्रभूता को केंद्रीभूत करने के लिए महती और केंद्रीकृत शस्त्रशक्ति के आधार पर राजनीतिक सत्ता आसन जमाती है। फल होता है समाज के बहुत बड़े अंग का शोषण, दोहन और दलन। इस प्रकार अधिकारवंचित और शोषित जनसमाज आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से मूलत: पराधीन होता है यद्यपि देखने में स्वाधीन दिखाई देता है। तात्पर्य यह है कि शस्त्र और अनीति का सहारा लेकर जो व्यवस्था परिचालित होगी उसमें मानव द्वारा मानव का उत्पीड़न अवश्यभावी है। इस समस्या का हल अहिंसक समाज की रचना है और उस समाज की रचना विकेंद्रीकरण के आधार पर की जा सकती है। उत्पादन की प्रणाली विक्रेंद्रित हो, उत्पादन के साधन विकेंद्रित हो, पूंजी विकेंद्रित हो, समाज जीवन के लिए आवश्यक पदार्थों की उपलब्धि में स्वावलंबी हो। उसे कि सी का मुखपेक्षी न बनना पड़े। अपनी कमाई का भोग वह स्वयं कर सके और इस प्रकार विकेंद्रित उत्पादन ओर पूंजी के आधार पर बना हुआ समाज किसी वर्गविशेष के स्वार्थ का साधन न बन पाए। फिर जब पूंजी विकेंद्रित होगी और समाज की इकाइयाँ स्वावलंबी बनेंगी तब शस्त्रशक्ति से संपन्न किसी केंद्रीय राजनीतिक सत्ता की आवश्यकता न रहेगी और वह अवस्था होगी जब मानव मानव के दमन, दलन और दोहन से मुक्तहोकर सच्ची स्वतंत्रता का उपभोग करना। चरखा उसी दोहन से मुक्त होकर सच्ची स्वतंत्रता का उपभोग करेगा। चरखा उसी विकेंद्रीकरण के सिद्धांत का प्रतीक है। वह प्रतीक है अहिंसक समाज की रचना के साथ का। वह चुनौती देता है आधुनिक विश्व की सामाजिक व्यवस्थाओं, धारणाओं और मान्यताओं को।

महात्मा गांधी साध्य से अधिक साधन पर ध्यान देना आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि यदि साध्य पवित्र और मानवीय है तो साधन भी वैसा ही शुद्ध, वैसा ही पुनीत और वैसा ही मानवीय होना चाहिए। हम देखते हैं कि साध्य और साधन की समाज पवित्रता पर बल देना और उसका आश्रय ग्रहण करना उनकी साधना रही है। उनके इन मौलिक विचारों ने मानव समाज के विकास के इतिहास में एक अत्यंत उज्वल ओर पवित्र अध्याय की रचना की है। गांधी जी में युग युग से मनुष्यता के विकास द्वारा प्रदर्शित आदर्शों का प्रादुर्भाव समवेत रूप में ही दिखाई देता है, उनमें भगवान राम की मर्यादा श्रीकृष्ण की अनासक्ति, बुद्ध की करुणा, ईसा का प्रेम एक साथ ही समाविष्ट दिखाई देते हैं। ऊँचे ऊँचे आदर्शों पर, धर्म और नैतिकता पर, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना पर जीवनोत्सर्ग करनेवाले महापुरु षों की समस्त उच्चता निहित दिखाई देती हैं। (कमलापति त्रिपाठी)