गांधी, महात्मा मोहनदास करमचंद संसार के श्रेष्ठ महापुरुष और भारतीय राष्ट्र के जनक। इसीलिए इन्हें राष्ट्रपिता कहा जाता है। आदर्श चरित और योग्य नेतृत्व से उन्होंने भारतीय जनजीवन के प्रत्येक अंग को प्रभावित किया। जनता की भावानाओं, धारणाओं और कल्पनाओं को एक नई दिशा प्रदान की; राष्ट्र के विचारों, संस्कारों और गतिविधियों को आंदोलित किया तथा देश के जीवन और इतिहास को सर्वतोभावेन प्रभावित कर असीम और अलौकिक शक्ति का परिचय दिया। वे अहिंसक योद्धा, अन्याय और अनाचार के विरोधी, कुशल राजनीतिज्ञ, मानवता के मार्गदर्शक, सांस्कृतिक नेता, नैतिकता के पोषक, समाज के संघटनकर्ता, दलित किंतु महान् भारतीय राष्ट्र के उद्धारक, निर्माता और जनक के रूप में समादृत हुए। जनता और इतिहास ने गांधी जी को महात्मा, संत, युगनिर्माता आदि के विशेषणों से सम्मानित किया।
उनका जन्म आश्विन कृष्ण १२, सं. १९२५ (२ अक्टूबर, १८६९ ई.) को पोरबंदर (काठियावाड़) में हुआ था। इनके पिता श्री करमचंद गांधी पोरबंदर राज्य के दीवान थे। वे राज स्थानिक कोर्ट के सभासद भी थे, फिर कुछ समय तक राजकोट और बीकानेर में दीवान रहे। उनकी चार पत्नियों में से अंतिम पुतलीबाई से जन्मे मोहनदास सबसे छोटी संतान थे।
उनकी शिक्षा दीक्षा हाई स्कूल तक राजकोट में हुई। आठ वर्ष की उम्र में एक देहाती पाठशाला में पढ़ाई आरंभ हुई, १८८७ ई. में मैट्रिक परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। इसके बाद भावनगर के श्यामलदास कालेज में भर्ती हुए। ४ दिसंबर, १८८८ ई. को वे वकालत की शिक्षा के लिए विलायत गए और बैरिस्टरी की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर १० जून, १८९१ को भारत लौटे और वकालत आरंभ की। अप्रैल, १८९३ ई. में सेठ अब्दुल करीम जवेरी के साथ दक्षिण अफ्रीका गए। वहाँ भारतीयों की चिंत्य स्थिति देखकर उन्होंने अफ्रीका को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया और २२ मई, १८९४ ई. को नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की। सन् १८९६ में भारत लौटकर यहाँ रानडे, जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजी, सर फीरोजशाह मेहता, बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, रामकृष्ण भांडारकर, सुरेंद्रनाथ बनर्जी आदि से मिले और पुन: दक्षिण अफ्रीका चले गए। अर्जित लोकप्रियता के कारण इस बार वकालत अच्छी चली। अवैतनिक रूप से चिकित्सा-सेवा-कार्य में रुचि ली और बोअर युद्ध के समय घायलों की जो सेवा की उससे यश फैला। सन् १९०१ में पुन: भारत लौटे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सम्मिलित हुए। सन् १९०२ में पुन: दक्षिण अफ्रीका गए। सन् १९०४ में इनके सहयोग से वहाँ इंडियन ओपीनियन नामक साप्ताहिक निकला जो महत्वपूर्ण और प्रभावकारी सिद्ध हुआ। इसी वर्ष जोहांसबर्ग में भयंकर प्लेग फैला। उस महामारी में उन्होंने मानवोचित सेवा सुश्रूषा की। इससे उनका सुयश और बढ़ा।
इसी प्रवास में इन्होंने श्री रस्किन की लिखी अंटु दिस लास्ट नामक पुस्तक पढ़ी। उस पुस्तक ने इनके जीवन में महत्वपूर्ण रचनात्मक परिवर्तन किया। बाद में उसका उन्होंने सर्वोदय नाम से अनुवाद भी किया। इस पुस्तक में वसुधैव कुटुबकम् की भावना को बल दिया गया है। फलस्वरूप फ़िनिक्स नामक संस्था की स्थापना हुई।
सन् १९०६ में जुलू विद्रोह हुआ। घायलों की सेवा करने के लिए गांधी अग्रसर हुए। स्वयंसेवकों की टुकड़ी लेकर वहाँ डट गए। इसके लिए इन्हें सार्जेंट मेजर का अस्थायी पद मिला। इस सुश्रूषा कार्य से गांधी जी और प्रकाश में आए। इसी वर्ष (१९०६) इन्होंने ब्रह्मचर्य के पालन का व्रत लिया।
जुलू विद्रोह शांत होने के बाद ही ट्रांसवाल सरकार ने एक बिल प्रस्तुत किया जिसमें प्रवासी भारतीयों को हाथ पाँव आदि अंगों के छापों से युक्त परवाना रखने का विधान था। कठिन विरोध के बावजूद १ जनवरी, १९०७ को यह काला कानून पास हो गया। इसका सत्याग्रह (पैसिव रेज़िस्टेंस) प्रतिविरोध करने के लिए संस्था बनी। इस आंदोलन में भाग लेने पर उन्हें दो मास कैद की सजा मिली। उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन तीव्रतर हो उठा और सरकार को बाध्य होकर समझौता करना पड़ा। सारे सत्याग्रही छोड़ दिए गए। किंतु जब जनरल स्मट्स ने समझौते की अवहेलना कर काला कानून वापस नहीं मिला तब पुन: सत्याग्रह शुरू हुआ। गांधी जी पुन: जेल गए। छूटने पर समझौते के लिए इंग्लैंड गए पर निराश लौटे। आंदोलन को बल मिला। गोपाल कृष्ण गोखले आए, फिर समझौता हुआ; पर स्मट्स ने पुन: वचनभंग किया। इससे भारत में भी उत्तेजना फैली और २२ सितंबर, १९१३ को सत्याग्रह की घोषणा हुई। आंदोलन ने जोर पकड़ा। स्त्रियों ने भी योगदान दिया। मजदूर भी आ मिले। संघर्ष उग्र हो उठा। श्री एंड्र्र्यूज और श्री पियर्सन आए। जनवरी, १९१४ में अंतिम समझौता हुआ।
इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका में संचालित उनका कार्य समाप्त हो चला था और वह भारत आने को उत्सुक हो उठे। किंतु इसी बीच ४ अगस्त, १९१४ को महायुद्ध की घोषणा हुई। लंदन जाकर इन्होंने ब्रिटेन के सहायतार्थ भारतीय स्वयंसेवक दल की स्थापना की। सन् १९१५ में भारत लौटे। सरकार ने इन्हें कैसरे हिंद पदक प्रदान किया।
उन दिनों बिहार में नील के व्यवसाय का एकाधिकार अंग्रेजों के हाथ में था और वे किसानों के साथ बर्बरतापूर्ण मनमानी किया करते थे। अफ्रीका के आंदोलन की बात जब इन किसानों के कान में पहुँची तब उनमें इनसे सहायता की आशा जागी और उन्होंने अपनी दुख:गाथा उन तक पहुँचाई। फलत: चंपारन जाकर उन्होंने वहाँ की स्थिति का गंभीर अध्ययन किया और घूम घूमकर सात हजार किसानों का बयान लिया। परिणामस्वरूप निलहे गोरों के अत्याचार की जाँच के लिये एक कमीशन नियुक्त हुआ। कमीशन की संस्तुति पर गवर्नर ने तिनकठिया कानून रद्द कर दिया। चंपारन में गांधी जी को जो सफलता मिली उससे वह सारे भारत में प्रसिद्ध हो उठे और प्रथम श्रेणी के नेताओं में इनकी गणना होने लगी।
चंपारन से गांधी मिल मजदूरों की समस्या सुलझाने के लिए अहमदाबाद पहुँचे। वहाँ मजदूरों को हड़ताल करने के लिये प्रेरित किया। गांधी ने इसी क्रम में उपवास भी किया। अंत में समझौता हुआ। मिल मजदूरों की समस्या सुलझाने के बाद ही खेड़ा का सत्याग्रह शुरू हुआ।
खेड़ा में किसानों की फसल नष्ट हो जाने पर भी लगान में कमी नहीं की जा रही थी, इसीलिये सत्याग्रह का आश्रय लिया गया। सरकार ने दमन शुरू किया, किंतु वह कामयाब न हुई। उसे झुकना पड़ा। गांधी जी को, जो इस समय गुजरात सभा के अध्यक्ष थे, यह दूसरा यश मिला। इसी बीच उन्होंने साबरमती में अपना आश्रम भी स्थापित किया।
इनके साथ ही प्रथम महायुद्ध में फँसे इंग्लैंड की सहायता के लिये भी गांधी जी ने कार्य किया। रंगरूटों की भरती के लिए दौड़ धूप की पर महायुद्ध की समाप्ति पर जब भारतीय जनता के अधिकारों में कमी करने के उद्देश्य से रौलट बिल पेश हुआ तब जनता में उसका भयंकर विरोध हुआ। गांधी तथा अन्य नेताओं के प्रयास के बावजूद जब उसने कानून का रूप ले लिया तब सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ। बंबई में गांधी जी की अध्यक्षता में केंद्रीय सत्याग्रह समिति बनी। २८ फरवरी, १९१९ को ऐतिहासिक प्रतिज्ञापत्र प्रकाशित हुआ जिसमें कानून को न मानने की घोषणा थी। ६ अप्रैल का दिन हड़ताल, उपवास और सभा करने के लिए निश्चित हुआ। जब्त किताबें बेची गईं। गांधी जी ने बिना डिक्लेरेशन सत्याग्रही नामक पत्र निकाला। १० अप्रैल को वह सीमाप्रवेश न करने के आदेश का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार किए गए और बंबई में ले जाकर छोड़ दिए गए। इससे रोष और भी भड़का। कई स्थानों पर दंगे हो गए। इस कारण गांधी ने सत्याग्रह स्थगित कर दिया और तीन दिनों का उपवास किया।
इधर यह सब हो रहा था, उधर पंजाब में फौजी कानून लागू कर दिया गया। अमृतसर के जालियाँवाला बाग की सभा में शांत और निर्दोष व्यक्ति जनरल डायर की क्रूरता के शिकार हुए। शासकों का ऐसा भंयकर और बर्बरतापूर्ण शासन देखकर सारा देश उग्र हो उठा। विदेशों में भी इस क्रूर अन्याय और अनीति के संबंध में आवाजें उठी। फलत: सरकार की ओर से उक्त घटना की जाँच के लिए हंटर कमेटी बैठी पर राष्ट्रीय महासभा ने उसका बहिष्कार किया और अपनी ओर से सर्वंश्री मोती लाल नेहरू, चित्तरंजनदास, गांधी जी, तैयब जी और जयकर की स्वतंत्र कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी ने जो रिपोर्ट पेश की उससे ऐसे रोमांचकारी कृत्यों का पता चला जो मानव जाति के लिये अत्यंत घृणित घटनाओं में गिने जाएँगे। इस घटना ने इस देश की बलहीन, असहाय और दलित तथा अपमानजनक स्थिति को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित कर दिया। पराधीनता का अभिशाप कैसी विभीषिका है, इसका दिग्दर्शन उस समय हुआ जब पंजाब की गलियों में भारतीय पेट के बल रेंगने के लिए बाध्य हुए। विदेशी सत्ता की उद्दंडता भी तब नग्न रूप में व्यक्त हुई जब गांधी की यह छोटी सी माँग कि डायर की पेंशन बंद कर दी जाए, ब्रिटेन की पार्लियामेंट ने ठुकरा दी। गांधी जी के तेजोमय व्यक्तित्व को विदेशी शासन के इस हिंसामय दर्प से गहरी ठेस लगी। जीवन पर्यंत अनाचार और पशुता का प्रतिरोध करनेवाली गांधी की आत्मा विकल हो उठी। वे इसका सामना करने के लिये सचेष्ट हो उठे।
इस समय इस देश के मुसलमानों में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उठे हुए खिलाफत के प्रश्न को लेकर घोर क्षोभ फैला हुआ था (द्र., खिलाफत)। मुसलमानों के साथ किए गए विश्वासघात ने गांधी जी की प्रबुद्ध आत्मा को इस अन्याय का प्रतिरोध करने के लिये और भी अधिक प्रोत्साहित किया। इसी परिस्थिति के गर्भ से गांधी की उस दिव्य और अहिंसक क्रांति ने जन्म लिया जो असहयोग और सत्याग्रह के रूप में मूर्त हुई। सितंबर, १९२० की नागपुर कांग्रेस में गांधी जी द्वारा प्रस्तुत असहयोग आंदोलन कार्यक्रम (द्र. कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय तथा असहयोग आंदोलन) स्वीकृत हुआ। इस प्रकार १९२० ई. में स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में एक नए युग का समारंभ हुआ।
इस आंदोलन में जनजागरण का दृश्य सामने आया। गांधी की अपील पर अनेक वकीलों ने वकालत छोड़ी, छात्रों ने स्कूल कालेज छोड़े, कौंसिलों और अदालतों का बहिष्कार हुआ, सरकारी उपाधियाँ लौटाई गईं। हजारों आदमी गिरफ्तार हुए। गांधी जी के नवजीवन और यंग इंडिया नामक पत्र प्रसिद्ध हो उठे। सन् १९२१ में अहमदाबाद की कांग्रेस में गांधी इस आंदोलन के अधिनायक बनाए गए और बारदोली सत्याग्रह का श्री गणेश हुआ, किंतु तभी उत्तेजित जनता ने चौरीचौरा (गोरखपुर) की पुलिस चौकी में आग लगा दी और २२ पुलिसवाले मार डाले गए। इस हिंसक प्रवृत्ति को देखकर अहिंसा के पथगामी गांधी ने आंदोलन स्थगित कर दिया।
इसी क्रम में राजद्रोह के अभियोग में गांधी जी १० मार्च, १९२२ ई. को साबरमती आश्रम में गिरफ्तार किए गए। उन्हें छह वर्ष का कारावास मिला। ये यरवदा जेल में रखे गए। वहाँ करीब दो वर्ष के बाद अस्वस्थ होने के कारण ९ फरवरी, १९२४ को रिहा किए गए। असहयोग आंदोलन चलता रहा। उसमें देश की प्राय: सभी जातियों और वर्गों को आमंत्रण था, किंतु सन् १९२४ के अंत में कई स्थानों पर हिंदू मुस्लिम दंगे हो गए जिनमें कोहाट का दंगा भीषण था। इन घटनाओं से गांधी जी को कष्ट हुआ और १७ सितंबर से प्रायश्चित्तस्वरूप उन्होंने २१ दिनों का उपवास किया।
दिसंबर में बेलगाँव में कांग्रेस हुई। गांधी अध्यक्ष हुए। इसमें खादी, हिंदू मुसलिम एकता, अस्पृश्यता निवारण आदि के कार्यक्रम को बढ़ाने का निश्चय हुआ। गांधी ने देश का दौरा शुरू किया और कांग्रेसजनों के लिये १८ सूत्रीय कार्यक्रम बनाया जिसमें खादी, शिक्षा, गृहशिल्प, अछूतोद्वार, धर्मप्रेम, मादक-द्रव्य-निषेध, ग्रामोदय, स्वास्थ्य, नारी, किसान, मजदूर आदिवासी आदि के समुदाय और कुष्ठ एवं यक्ष्मा के रोगियों की चिकित्सा तथा मातृभाषा का प्रचार मुख्य थे। सन् २७ में गांधी चरखासंघ के लिये लंका गए।
१९२९ ई. में साइमन कमीशन भारत आया। इंग्लैंड की सरकार ने इस कमीशन को स्वायत्त शासन पर विचार करने की दृष्टि से भारत की राजनीतिक स्थिति के अध्ययन के लिये भेजा था। पर इस कमीशन में एक भी भारतीय नहीं था। यह बात भारतीयों को खली। उन्होंने कमीशन का बहिष्कार किया। वे जहाँ भी गए काले झंडे दिखाए गए; विलायती कपड़ों की होली जलाई गई और बारदोली में किसानों की कतिपय समस्याओं को लेकर श्री बल्लभभाई पटेल के अधिनायकत्व में सत्याग्रह आरंभ हुआ। इस किसान आंदोलन का दमन करने में शासन ने कुछ भी उठा न रखा। पर अंत में सरकार को झुकना पड़ा। गांधी जी वायसराय से मिले। वायसराय ने स्वायत्तशासन का अधिकार देने के निश्चय की घोषणा की। इस प्रसंग में गांधी ने भारतवासियों की दृष्टि से ब्रिटिश सरकार के सम्मुख ११ प्रस्ताव रखे। ब्रिटिश सरकार ने गांधी जी के प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया। फलत: ३१ दिसंबर, २९ को लाहौर कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव स्वीकार किया (द्र. कांग्रेस)। अंग्रेज सरकार के रु ख से असंतोष बढ़ता गया। देश ने गांधी के हाथों में राष्ट्रीय संघर्ष का सूत्र अर्पित किया और उन्होंने सत्याग्रह युद्ध की घोषणा कर दी। सविनय अवज्ञा के रूप में यह युद्ध आरंभ हुआ।
सरकार ने देशी नमक पर कर लगाकर उसे विदेशी नमक से महँगा बना दिया था। गांधी जी ने इस कानून को तोड़ने की घोषणा की। १२ मार्च, १९३० ई. के प्रात:काल गांधी जी साबरमती नदी के किनारे आ खड़े हुए। उनके साथ ७९ आश्रमवासी थे। वहाँ से पैदल चलकर २४ दिनों में गांधी जी समुद्रतट पर पहुंचे। वहाँ उन्होंने नमक बनाया। उनकी यह दांडीयात्रा इतिहास के पृष्ठों में अमर है। लोगों को सत्याग्रह की जीवनी शक्ति का पता गांधी की इन २४ दिनों की दांडीयात्रा में मिला। निरु पाय और निश्चेष्ट पड़ा हुआ देश यात्रा में गांधी के बढ़ते हुए एक एक पग से अनुप्राणित और उज्जीवित हो चला। गांधी चलते गए और कोटि कोटि नर नारियों से निवसित यह महादेश क्षण क्षण जागता, उठता और स्पंदित होता गया। दांडी पहुँचते पहुँचते सारे देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन की अग्नि भड़क उठी। देश भर में नमक कानून तोड़कर नमक बनाया गया। शराब और विलायती कपड़ों की दुकानों पर धरना देने का कार्य भी शुरू हुआ। अनेक स्थानों पर गिरफ्तारियाँ हुई, लाठी प्रहार हुए और गोलियाँ चलीं। गांधी ने धरसना के नमक गोदाम पर धावा बोलने की घोषणा की; घोषणा के बाद ही ५ मई को वे गिरफ्तार कर लिए गए। इसपर वातावरण और अधिक क्षुब्ध हो उठा। शहरों में हड़ताल हुई और इसका प्रभाव गाँवों पर भी पड़ा। जुलूस निकले, गोलियाँ चलीं। सीमांत प्रदेश में गढ़वाली सैनिकों ने जनता पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। श्रीमती सरोजिनी नायडू ने धरसना पर धावा किया। दो घंटे तक पुलिस ने लाठी चार्ज किया। करीब २०० व्यक्ति घायल हुए। आंदोलन दबनेवाला न था। सप्रू तथा जयकर ने मध्यस्थता की और यरवदा जेल में नेताओं की बैठक हुई। लंदन में गोलमेज कानफ्रेंस हुई। कांग्रेस के सहयोग की आवश्यकता का अनुभव किया गया। कांग्रेस से प्रतिबंध हटा और ३० नेता बिना शर्त रिहा किए गए। गांधी जी ने वायसराय से भेंट की। १५ दिनों की बातचीत के बाद ५ मार्च, १९३१ को सरकार और कांग्रेस के बीच समझौता हुआ (द्र. गांधी-इरविन-समझौता)। सत्याग्रह आंदोलन स्थगित कर दिया गया। आर्डिनेस उठा लिए गए और बंदी छोड़ दिए गए।
१४ सितंबर को कफ्रोंस शुरू हुई, जो ११ सप्ताह तक चली। गांधी ने कांग्रेस के उद्देश्य और महत्व पर भाषण दिया और जोरदार शब्दों में कहा कि दुर्बल हो या सबल, सब स्वतंत्रता के अधिकारी हैं। गांधी जी ने भारतवासियों की नैतिकता और आदर्श भावना के संबंध में वहाँ कहा कि भारत शासकों का रक्तपात कर स्वाधीनता नहीं चाहता, अपितु स्वातंत्र्य अर्जन के लिये प्रयोजन होने पर हम भारतवासी अपने रक्त से ही गंगाजल को भी लाल कर देंगे। कोई परिणाम नहीं निकला।
गांधी २८ दिसंबर को भारत वापस आए। दमनचक्र पूर्ववत् चलने लगा। कई नेता गिरफ्तार किए गए। गांधी जी ने तत्कालीन वायसराय विलिंगडन से बातचीत करने की असफल चेष्टा की। बंबई में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई। सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व गांधी जी को सौंपा गया, किंतु वे ४ जनवरी को तड़के ही गिरफ्तार कर लिए गए। कांग्रेस के साथ साथ अनेक राष्ट्रीय संस्थाएँ गैरकानूनी करार दी गई। गिरफ्तारियाँ हुई। हड़तालें हुईं। जुर्माने हुए। समाचारपत्रों पर भी प्रतिबंध लगे। दमन चक्र चलता रहा। डेढ़ वर्ष में हजारों देशभक्त और कांग्रेस के कार्यकर्ता जेल गए।
उधर ब्रिटिश सरकार की ओर से अछूतों के संबंध में कुछ गोलमटोल योजनाएँ घोषित हुईं। इसके विरोध में गांधी जी ने २१ सितंबर को आमरण अनशन प्रारंभ किया; सवर्ण हिंदू नेताओं और अछूतों के प्रतिनिधियों के बीच समझौता हुआ। सरकार ने उसे माना। फलत: २६ सितंबर को अनशन समाप्त हुआ और गांधी को जेल में ही इस संबंध में कार्य करने की सुविधाएँ उपलब्ध हुईं। सवर्ण हिंदुओं का दिल बदलने तथा आत्मिक विकास के निमित्त उन्होंने ८ मई, १९३३ से २१ दिनों का उपवास आरंभ किया। स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण जेल से रिहा कर दिए गए। आंदोलन कुछ दिनों के लिये स्थगित हुआ और १ अगस्त से व्यक्तिगत सत्याग्रह करने की योजना बनाई गईं।
गांधी ने अपने आश्रम के ३२ सदस्यों के साथ १ अगस्त, १९३२ ई० को व्यक्तिगत सत्याग्रह के निमित्त गुजरात के रास गाँव की ओर जाने का निश्चय किया, किंतु गिरफ्तार कर लिए गए। आज्ञा भंग करने के अपराध में उन्हें एक वर्ष की सादा सजा हुई। गांधी की गिरफ्तारी के बाद इस प्रदेशों में यह आंदोलन चला और हजारों की संख्या में कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए। गांधी को जेल से हरिजन कार्य करने की जो सुविधा दी गई थी, वह छीन ली गई। इस कारण उन्होंने १६ अगस्त से उपवास आरंभ किया, पर बीच में ही स्वास्थ्य अधिक खराब हो जाने के कारण २३ अगस्त को बिना शर्त रिहा कर दिए गए। स्वास्थ्य लाभ होने पर उन्होंने हरिजन कार्य में योग दिया और इसके लिए ८ लाख रु पए एकत्र किए।
जिस समय गांधी दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे उसी समय १४ जनवरी १९३४ को उत्तरी बिहार में भयंकर भूकंप से भीषण क्षति हुई। हजारों व्यक्ति मर गए और अनेक नगर तथा गाँव ध्वस्त हो गए। गांधी तत्काल बिहार पहँुचे और बाबू राजेंद्रप्रसाद के साथ पीड़ितों के सहायता कार्य में लग गए तथा जनता से सरकार का सहयोग करने के लिये कहा।
७ अप्रैल को गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह स्थगित कर दिया। इस संबंध में सत्याग्रह का अर्थ समझाते हुए गांधी जी ने लिखा: मैं महसूस करता हूँ कि जनता को सत्याग्रह का पूरा संदेश नहीं मिला है, क्योंकि वह अशुद्ध रूप से उसके पास पहुँचाया गया है। शुद्ध सत्याग्रह का असर दोनों पर होना चाहिए। इसकी परीक्षा के लिए सत्याग्रह केवल एक अधिकारी व्यक्ति तक ही सीमित रहना चाहिए। इसका प्रयोग होना चाहिए। इस प्रकार वैयक्तिक सत्याग्रह एक व्यक्ति (स्वयं गांधी जी) तक ही सीमित कर दिया गया।
बिहार का सेवा कार्य समाप्त होने पर वह पुन: हरिजनोद्धार के कार्य में लग गए। अनेक कट्टर सनातनियों को गांधी जी का यह हरिजन कार्य अच्छा नहीं लग रहा था। २५ जून को पूना में किसी अज्ञात व्यक्ति ने इनकी मोटर पर बम फेंकने की चेष्टा की, बम दूसरी मोटर पर लगा।
कांग्रेस से अलग होकर गांधी पूरे तौर से ग्रामोद्योग और हरिजनोद्वार के कार्य में लग गए। इसी बीच वर्धा के निकट (सेवाग्राम) में उन्होंने अपना केंद्र बनाया। इनके सुझाव पर ही पहली बार कांग्रेस का अधिवेशन एक गाँव (फैजपुर) में हुआ।
१९३७ के प्रांतीय विधायक सभाओं के चुनाव में कांग्रेस ने भारी विजय प्राप्त की और ११ में से ९ प्रांतों में कांग्रेस शासन आरंभ हुआ। गांधी इन कांग्रेस मंत्रिमंडलों के गैरसरकारी परामदर्श्दाता बने। उनके सुझाव पर मंत्रिमंडलों ने मद्यनिषेध, बुनियादी शिक्षा, जेल सुधार और किसानों को सुविधाएँ देने का कार्यक्रम बनाया। इसके बाद बंगाल के सहस्राधिक नजरबंदों को रिहा कराने के लिये कलकत्ता गए और अंशत: सफल हुए। १९३८ में हरिपुरा कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए और खान अब्दुलगफ्फार खाँ के साथ पेशावर (सीमाप्रांत) की यात्रा की। १९३९ ई. के सितंबर में द्वितीय महायुद्ध की घोषणा हुई। वायसराय के निमंत्रण पर गांधी जी उनसे मिले। इंग्लैंड के प्रति सहानुभूति प्रकाश भी किया, किंतु स्पष्ट कहा कि यदि कोई समझौता होना चाहिए तो कांग्रेस और सरकार के बीच में होना चाहिए। प्राय: ५० भारतीय नेताओं से मिलने के बाद १७ अक्तूबर को वायसराय ने जो घोषणा की उससे घोर निराशा हुई। उस घोषणा में कहा गया था कि युद्ध समाप्त होने पर ही विचार विनिमय होगा। इसपर उन्होंने अपना ऐतिहासिक वक्तव्य दिया: यह घोषणा अत्यंत निराशाजनक है। कांग्रेस को फिर बाहर आना पड़ेगा और इसके बाद ही वह सशक्त और समर्थ बन सकेगी। कांग्रेस ने रोटी माँगी और उसे मिला पत्थर।
नवंबर में सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने प्राय: दो वर्ष के शासन के बाद, इस्तीफा दे दिया और प्रांतों में गर्वनरी राज्य हो गया। मार्च सन् ४० में कांग्रेस का अधिवेशन रामगढ़ में मौलाना अबुलकलाम आजाद की अध्यक्षता में हुआ। उसमें गांधी ने कहा कि प्रत्येक कांग्रेस कमेटी को सत्याग्रह कमेटी बन जाना चाहिए।
कांग्रेस कार्यकारिणी के अनुमोदन करने पर गांधी ने अक्टूबर में वैयक्तिक सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। इसके प्रथम सत्याग्रही चुने गए आचार्य विनोबा भावे। वह युद्धविरोधी भाषण करने के अभियोग में २१ अक्टूबर को गिरफ्तार हुए। इसके बाद तो इस सत्याग्रह आंदोलन ने जोर पकड़ लिया और वर्ष भर चलता रहा। इसमें ६० हजार व्यक्तियों ने भाग लिया, जिनमें ४०० से अधिक प्रांतीय तथा केंद्रीय धारा सभाओं के सदस्य थे। गांधी को छोड़ प्राय: सभी काँग्रेसी नेता जेल में थे। अंत में समझौते भी भावना से दिसंबर, सन ४१ में सरकार ने सभी सत्याग्रहियों को मुक्त कर दिया।
७ दिसंबर को जापानियों ने पर्ल बंदरगाह पर आक्रमण किया और युद्ध भारत के द्वार पर आ पहुँचा। एक बार पुन: सिद्धांत के प्रश्न पर गांधी कांग्रेस से अलग हो गए। वे कांग्रेस की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिए गए।
मार्च, सन् ५२ में सर स्टैफर्ड क्रिप्स समझौते का प्रस्ताव लेकर भारत आए। इस प्रस्ताव को गांधी ने पोस्टडेटेड चेक (भविष्य की तारीख पड़ी हुई चेक) कहा। प्रस्ताव में घोषित किया गया था कि सभी दलों के एकमत हो जाने पर भी भारत की रक्षा का भार भारतीयों को नहीं दिया जा सकता। सभी दलों ने उसे अस्वीकार कर दिया और क्रिप्स विफल होकर लौट गए।
इसके बाद सीमा पर आसन्नप्राय युद्ध की विषम स्थिति पर विचार करते हुए गांधी ने अंग्रेजों के सामने भारत छोड़ो की माँग रखी। शीघ्र ही भारत के कोने कोने से यह माँग की जाने लगी। कांग्रेस कार्यसमीति ने भी इसे प्रस्ताव के रूप में स्वीकार किया। ८ अगस्त को बंबई में भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में उक्त प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और गांधी ने समग्र राष्ट्र को करो या मरो का अग्निमय संदेश दिया और कहा कि संघर्ष के पहले हम समझौता करने का प्रयत्न करेंगे। किंतु सरकार ने इसके लिए कोई अवसर नहीं दिया और ९ अगस्त को भोर में ही वे तथा बंबई में उपस्थित सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए। अपने अपने नगरों के सभी बड़े कांग्रेसी नेता गिरफ्तारी कर लिये गए। और कांग्रेस कमेटियाँ अवैध घोषित कर दी गई। दमनचक्र चलने लगा और जनता के रोष और क्षोभ का अकस्मात विद्रोह के रूप में विस्फोट हो उठा। स्थान स्थान पर रेलवे स्टेशन, डाकघर, अदालतें थाने आदि जला दिए गए, रेल और तार की लाइनें यत्रतत्र काट दी गईं। देखते देखते थोड़े दिनों के लिये विप्लव का दृश्य समने आ गया। एक ओर भयंकर जनविक्षोभ और दूसरी ओर शासन की उग्रता और प्रचंडता। निहत्थी जनता पर गोलियों की वर्षा की गई, लोग घसीटे गए, पीटे गए, पेड़ों पर लटकए गए। गाँव के गाँव फूँक दिए गए। सामूहिक जुर्माने किए गए और कठोरतापूर्वक उसकी वसूली की गई। तत्कालीन सरकरी सूचना के अनुसार २, ४६३ व्यक्ति हताहत हुए और ६०-७० हजार से अधिक व्यक्ति गिरफ्तार हुए। विदेशों में भी इस दमन के विरोध में आवाजें उठीं। गाँधी आगा खाँ महल में नजरबंद थे। उन्होंने १४ अगस्त के वायसराय को पत्र लिखकर दमन के खिलाफ अपना मत व्यक्त किया और पुन: सरकारी नीति पर विचार करने का अनुरोध किया, पर इसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया। अत: सरकारी नीति के विरोध में विवश होकर उन्होंने १० फरवरी से २१ दिनों का उपवास करने का निश्चय किया। इससे और भी हलचल मची। उनकी रिहाई की माँग की जाने लगी। विदेशी पत्रों ने भी सरकारी नीति की निंदा की। वायसराय की कौंसिल से छ: सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। गांधी के साथ कस्तूरबा, सरोजनी नायडू और मीरा बहन ने भी अनशन आरंभ किया। एक सप्ताह बाद उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। २१ फरवरी को उनकी स्थिति चिंताजनक हो गई थी। किंतु उन्होंने अपना उपवास पूरा कर लिया।
२२ फरवरी, ४४ को गांधी की जीवनसंगिनी कस्तूरबा का आगा खाँ महल में ही निधन हो गया। इस आघात से वे विचलित और व्यथित हो उठे। उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। ६ मई को वे बिना शर्त मुक्त किए गए। स्वास्थ्य लाभ के लिए वे जुहू ले जाए गए। वहाँ उन्होंने १५ दिनों का मौन धारण किया। कुछ दिनों बाद पंचगनी गए। वहाँ से उन्होंने वायसराय को पत्र लिखकर कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को छोड़ देने की माँग की। वह अस्वीकृत हुई। यही नहीं, उनको उन नेताओं से मिलने भी नहीं दिया गया। पर वे हताश नहीं हुए। उनका उद्योग जारी रहा।
हिंदू मुसलिम समस्या के समाधान के लिए गांधी ने जिना से वार्ता की, पर उसका भी कोई परिणाम न निकला। १४ जून को वायसराय ने कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों की रिहाई की घोषणा की और समझौते की दृष्टि से शिमला में नेताओं का संमेलन बुलाया। गांधी भी उसमें सलाहकार के रूप में शामिल हुए। यह सम्मेलन २५ जून से १४ जुलाई तक चला, पर कोई परिणाम न निकला। कांग्रेस ने संमानपूर्ण समझौता करना चाहा, पर लीग ने रोड़े अटकाए। शिमला सम्मेलन असफल रहा।
इंग्लैंड में विंस्टन चर्चिल हार गए और एटली के नेतृत्व में मजदूर दल का शासन स्थापित हुआ। जर्मनी और जापान के आत्मसमर्पण कर देने के कारण महायुद्ध समाप्त हो गया था पर युद्धजन्य जर्जरता के कारण ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति चिंत्य हो उठी और यह स्पष्ट हो गया कि उसमें शक्ति के बल पर, भारत पर शासन करने की क्षमता नहीं रह गई। फलत: मजदूर सरकार ने अपनी घोषणा के अनुसार भारतीय गत्यवरोध को दूर करने की दिशा में प्रयत्न किया। कांग्रेस को पुन: वैध घोषित किया गया। प्रांतीय तथा केंद्रीय धारासभाओं के पुन: चुनाव हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली। यह जनजागृति का प्रतीक था।
१९४६ के प्रारंभ में एक ब्रिटिश मंत्रिदल भारत आया। उसने भारतीय नेताओं से बातचीत की और भारत छोड़ने की नीति स्वीकार की। अस्थायी संघ सरकार बनाए जाने का प्रस्ताव स्वीकार हुआ। गांधी ने इस गतिविधि में पूरा योगदान और उचित पथप्रदर्शन किया। कांग्रेस द्वारा अस्थायी सरकार का संगठन कर लेने पर लीग ने उक्त योजना अस्वीकार कर दी और प्रत्यक्ष कार्रवाई पर तुल गई। फलत: कलकत्ता में भयंकर दंगा हुआ। लाखों व्यक्ति हताहत हुए; हजारों दूकानें लूटी गई। नोआखाली में भी भयानक कांड हुए। लीग का दमन करने के बजाय वायसराय लार्ड वैवेल ने अस्थायी सरकार में उसके प्रतिनिधियों को भी स्थान दे दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मंत्रिमंडल में कांग्रेस लीग संघर्ष प्रारंभ हो गया।
गृहयुद्ध की अशंका देखकर गांधी जी नोआखाली जाने को उद्यत हुए। नोआखाली में जो कुकांड हुआ, उसके प्रतिशोध में बिहार में सांप्रदायिकता का दानव जाग उठा। गांधी ने इसपर चिंता व्यक्त की और कहा कि बिहार के दंगे बंद न हुए तो मैं आमरण अनशन करूँगा। इसका उचित प्रभाव पड़ा और बिहार में शांति स्थापित हो गई। वे २० नवंबर, १९४६ को श्रीरामपुर पहुँचे। वहाँ से उन्होंने गाँव गाँव पैदल यात्रा की। इस शांतियात्रा का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। वहाँ के मुसलमानों ने पश्चात्ताप प्रकट किया और प्रेम तथा सदभाव के साथ रहने का आश्वासन दिया। नोआखाली से वे बिहार आए और यहाँ भी उन्होंने आपसी प्रेम और पड़ोसी के धर्म का महत्व समझाया। इधर पूर्व की आग शांत हुई तो पंजाब तथा सीमाप्रांत में लीग ने सांप्रदायिकता की ज्वाला भड़का दी। वहाँ जो कुछ कांड हुआ, उसके कारण देश को देशविभाजन की माँग स्वीकार करनी पड़ी और अंग्रेज सरकार १५ अगस्त, १९४७ को हटने के लिए तैयार हो गई।
१५ अगस्त को भारत को स्वतंत्रता मिली किंतु गांधी के लिये वह दिन आनंद या उल्लास का नहीं, आत्मचिंतन का था। जिस स्वराज्य और रामराज्य की स्थापना करने का वह स्वप्न देख रहे थे वह प्रयत्क्ष न था। देश के दो टुकड़े हो गए थे---भारत और पाकिस्तान। उन्होंने दोनों को एक में जोड़ने के लिये निश्चय किया कि मैं पाकिस्तान में रहूँगा और ९ अगस्त को वह नोआखली जाने के लिये कलकत्ता पहुँचे। वहाँ उन्हें आश्वासन मिला कि अब सांप्रदायिकता की आग न भड़केगी। १४ अगस्त को कलकत्ते में हिंदू मुसलमान गले मिले, किंतु अचानक १५ दिन के बाद यह पैशाचिकता फिर जाग उठी। वे मर्माहत हुए। उन्होंने उपवास की घोषणा की। इसका प्रभाव पड़ा। तीन दिनों बाद उपवास तोड़ वे पाकिस्तान की ओर अग्रसर हुए।
गांधी की उपस्थिति से बंगाल में तो शांति रही, पर पंजाब में उपद्रव शुरू हो गए। उन्होंने ९ सितंबर को पंजाब जाने का निश्चय किया पर वहाँ न जा सके। दिल्ली और पंजाब के हिंदूप्रधान क्षेत्रों में भी सांप्रदायिकता की आग भड़क उठी; भीषण नरसंहार होने लगा। दिल्ली में रुककर वे शांतिस्थापनार्थ प्रयास करने लगे और अंत में अपने अमोघ अस्त्र उपवास का उन्होंने आश्रय लिया। उन्होंने १३ जनवरी १९४८ को प्रात: ११ बजे आमरण अनशन आरंभ किया और कहा कि मैं तभी यह अनशन तोडूंगा, जब दिल्ली में सारे संप्रदाय के लोग भयरहित होकर रह पाएँ। इस समाचार से चिंता व्याप्त हो गई। लोगों ने उनसे अनशन भंग करने का विशेष अनुरोध किया पर वह अडिग रहे। १८ जनवरी को दोनों संप्रदायों के प्रतिनिधियों के अनुरोध पर उन्होंने अनशन भंग किया। २० जनवरी को बिड़ला भवन के सभामंडप में उनपर एक देशी बम फेंका गया। गांधी जी अविचल रहे और प्रार्थना सभा में नित्य प्रति उनकी प्रार्थना का कार्यक्रम चलता रहा।
३० जनवरी को प्रार्थना सभा में जब गांधी जी मंच की ओर बढ़ रहे थे, तब भीड़ में से एक व्यक्ति ने उनपर दनादन तीन गोलियाँ चलाईं। पहली गोली पेट में लगी, दूसरी दाहिनी पसली में और तीसरी सीने में। सायंकाल ५ बजकर ४० मिनट पर हे राम कहते हुए उनका प्राणांत हो गया।
गांधी जी का हत्यारा, नाथूराम गोडसे, घटनास्थल पर ही गिरफ्तार किया जा चुका था। उस पर मुकदमा चला और उसे प्राणदंड मिला। गोडसे ने जघन्य कर्म पर गांधी के प्राणांत करने का दुस्साहस अवश्य किया, किंतु वह अलौकिक एवं आलोकमय आत्मा को मलिन एवं पराभूत करने में सर्वथा असफल एवं घृण्य रहा।
इस युग के लिए गांधी और भारत दोनों शब्द अन्योन्याश्रय के रूप में प्रयुक्त हो सकते हैं। जब से गांधी जी भारत के राजनीतिक रंगमंच पर आए तबसे लेकर अपने अंतिम क्षणों तक वह भारतीयता के अनुपम देवदूत स्वरूप ही समादृत हुए। उनका सारा जीवन देश के न केवल राजनीतिक जागरण को, प्रत्युत राष्ट्रीयता की भावना एवं उसकी चतुर्मुखी चेतना को जागरित और प्रसारित करने में ही व्यस्त एवं न्यस्त रहा। गांधी जी इस देश के केवल राजनीतिक नेता ही नहीं, सांस्कृतिक गुरु धर्म के संस्थापक, नैतिकता के उन्नायक, विप्लवयज्ञ के अध्वर्य, साहित्यिक सरणि के निर्माता और राष्ट्र की आत्मा के उज्जीवक के रूप में सामने आए। उनके जीवन के अंतिम ३० वर्ष भारत की राजनीतिक के ज्योतिर्मय इतिहास के तथा राष्ट्रीय संस्था कांग्रेस के स्वतंत्रता संग्राम के प्रज्वलंत पृष्ठ हैं।
भारत के राष्ट्रीय जीवन के रंगमंच पर उनका अवतरण ऐसे समय हुआ जब देश निरु पाय और असहाय हो गया था। राष्ट्र का नैतिक अध:- पतन अपने चरमबिंदु पर पहुँच चुका था। उसकी पराधीनता के बंधन कठोरता के साथ जकड़ चुके थे। भारत अपनी तेजस्विता खो चुका था और अपने अतीत का गौरव भी पूरी तरह भूल गया था। देश की स्वाधीनता को पाने के लिए जो संघर्ष गांधीयुग के पूर्व इधर उधर छोटे-मोटे रूप में हुए थे वे सब असफल हो चुके थे। कुछ देशभक्तों ने प्रथम महायुद्ध के समय सशस्त्र क्रांति की जो योजना बनाई थी वह क्रूर ब्रिटिश संगीनो से पूरी तरह कुचल दी गई थी। अंग्रेजों के सदभाव में विश्वास करके प्रार्थना और अनुरोध के द्वारा भारत की मुक्ति का मार्ग खोजनेवाले बुरी तरह विफल हो चुके थे। ऐसी स्थिति में भारत के उद्वार का मार्ग अवरुद्ध दिखाई दे रहा था। देश हताश था। दुनियाँ में अनेक देशों में बड़े से बड़े विप्लव हुए हैं पर उनमें हिंसात्मक विद्रोह के द्वारा सफलता प्राप्त हुई थी। भारत में भी इसके प्रयास हुए पर विफलता मिली।
ऐसे समय गांधी जी का आविर्भाव हुआ जिसने इस राष्ट्र के सम्मुख एक नई दिशा प्रस्तुत की जिसकी दूसरी मिसाल दुनियाँ के इतिहास में कहीं मिल नहीं सकती। उन्होंने एक नई क्रांतिशैली, संघर्ष और युद्ध का एक नूतन पथ उपस्थित किया। बिना हिंसा का सहारा लिए महती क्रांति की कल्पना प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि हिंसा का प्रतिकार हिंसा से नहीं हो सकता। असत्य असत्य से पराजित नहीं किया जा सकता, अनैतिकता अनैतिकता पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती, अंधकार का प्रतिकार अंधकार से नहीं हो सकता और पाप को पाप से धोकर बहाया नहीं जा सकता। हिंसा का पराभव अहिंसा से, असत्य का सत्य से, अंधकार का प्रकश से और अनैतिकता क नैतिकता से ही हो सकता है। भारत पर विदेशियों का शासन हिंसा पर आश्रित है, अनैतिक है और मनुष्य तथा भगवान के प्रति अपराध है। जो अनैतिक है वह भगवान के विधान के विरुद्ध है, अत: वह सत्य है। अनैतिक और असत्य के उन्मूलन के लिए नैतिकता और सत्य का आश्रय लेना पड़ेगा। हिंसा का मूलोच्छेद करने के लिए अहिंसा ही एकमात्र उपाय हो सकती है।
इस प्रकार सत्य, अहिंसा और नैतिकता के आधार पर उस महान विप्लव की व्यूहरचना करने में वे सफल हुए जिसने पददलित और प्रताडित भारतीय राष्ट्र को युद्ध और क्रांति की प्रेरणा प्रदान की और जो देश निरुपाय पड़ा हुआ था उसमें नए स्फुरण और प्राण का संचार किया। गांधी जी के असहयोग और सत्याग्रह में उनकी वही अहिंसक क्रांतिशैली मूर्त हुई।
किसी क्रांति की सफलता के लिए पहले विचारों में क्रांति उत्पन्न करना आवश्यक होता है। क्रांतियाँ केवल प्रस्तावों से नहीं हुआ करतीं। गांधी जी ने इस देश के विचार में क्रांति कर दी; और जब विचार बदलते हैं तो जीवन के मूल्यों में परिवर्तन हो जाता है। ये नए मूल्य अंतर में प्रस्तावित होते हैं और नए जीवन की प्रेरणा के स्रोत बनते हैं। गांधी जी के नेतृत्व से जिस युग का आविर्भाव हुआ उसमें हमारे देश के विचारों में, आदर्शों में, अनुभूतियों में, मूल्यों में, पद्धतियों में और व्यवहार में आमूल क्रांति हुई। भारत की इस आंतरिक क्रांति ने असहयोग और सत्याग्रह के रूप में मूर्त हुए नैतिक विद्रोह की योजना को सफलतापूर्वक चरितार्थ किया। (कमलापति त्रिपाठी)