गांधी, इंदिरा भारतीय गणतंत्र की भूतपूर्व प्रधानमंत्री मंत्री, पं. जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती कमला नेहरू की पुत्री तथा पं. मोतीलाल नेहरू की पौत्री हैं। आपका जन्म प्रयाग में १९ नवंबर, १९१७ को हुआ था। आपकी शिक्षा एकोल इंटरनैशनल, जिनेवा; प्यूपिल्स ओम सकूल, पूना और बंबई; बैडमिंटन स्कूल, ब्रिस्टल; विश्वभारती कालेज, शांति निकेतन और सकरविले कालेज, आक्सफोर्ड में हुई। आपका विवाह श्री फिरोज गांधी से २६ मार्च, १९४२ को हुआ था और आपके दो पुत्र हैं- राजीव और संजय।
आपने अपने बचपन से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यों में योगदान आरंभ कर दिया था। आपके पैतृक निवास आनंद भवन का वातावरण राष्ट्रीय जीवन दर्शन और स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्रबिंदु था। आपने बचपन में ही बाल चरखा संघ की स्थापना की। १९३० में असहयोग आंदोलन के दौरान कांग्रेस पार्टी की सहायता करने के लिए बच्चों की एक वानरी सेना बनाई, जो पुलिस तथा अन्यान्य सरकारी गतिविधियों की सूचना कांग्रेस को देती रही। सन् १९४२ की अगस्त की महाक्रांति के आंदोलन में आपने जेलयात्रा की। भारत की आजादी के अवसर पर दिल्ली में जो भीषण हिंदू-मुस्लिम-दंगा हुआ, उसमें गांधी जी के निर्देशानुसार आपने सेवा और शांतिस्थापन का काम किया। देश की सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और समाजसेवी संस्थाओं से भी आपका निकट का संबंध रहा है, जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है : अध्यक्ष, ट्रस्टीज बोर्ड, (१) कमला नेहरू मेमोरियल अस्पताल और (२) कस्तूरबा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट; संस्थापक ट्रस्टी और अध्यक्ष, बाल सहयोग, नई दिल्ली; अध्यक्ष, बाल भवन बोर्ड और बाल राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली; संस्थापक और अध्यक्ष, कमला नेहरू विद्यालय, इलाहाबाद; उपाध्यक्ष, केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड; आजीवन संरक्षक, भारतीय बाल कल्याण परिषद्; संरक्षक, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी; उपाध्यक्ष, अंतरराष्ट्रीय बाल कल्याण परिषद्; मुख्य संरक्षक, इंडियन कौंसिल फॉर अफ्रीका (१९६०); पेट्रन, भारत में विदेशी छात्र संघ; सदस्य, कांग्रेस कार्यकारिणी समिति, केंद्रीय चुनाव समिति और केंद्रीय संसदीय बोर्ड; अध्यक्ष, अखिल भारतीय कोंग्रेस कमेटी की राष्ट्रीय एकता परिषद्; अध्यक्ष, अखिल भारतीय युवक कांग्रेस; अध्यक्ष, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (१९५९-६०); सदस्य, दिल्ली विश्वविद्यालय कोर्ट; यूनेस्को में भारतीय शिष्टमंडल (१९६०); यूनेस्को का कार्य कारिणी बोर्ड (१९६०-६४); सदस्य, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् (१९६२); राष्ट्रीय सुरक्षा निधि की कार्यकारिणी समिति (१९६२); अध्यक्ष, केंद्रीय नागरिक परिषद् (१९६२); सदस्य, राष्ट्रीय एकता परिषद्, भारत सरकार; अध्यक्ष, संगीत नाटक अकादमी (१९६५ से); आचार्य, विश्वभारती; चांसलर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय; अध्यक्ष, हिमालय पर्वतारोहण संस्था और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा; पेट्रन, इंडियन सोसाइटी ऑव इंटरनैशनल ला; अध्यक्ष, नेहरू मेमोरियल संग्रहालय तथा लाइब्रेरी सोसाइटी; ट्रस्टी, गांधी स्मारक निधि; अध्यक्ष, स्वराज्य भवन ट्रस्ट; मदर्स एवार्ड, अमरीका (१९५३); कूटनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य के लिये इटली का इजावेला द-एस्ते एवार्ड और येल यूविर्सिटी, हालैंड मेमोरियल प्राइज प्राप्त किए।
फ्रांस की जनमत संख्या द्वारा लिए गए अभिमत के अनुसार १९६७ तथा १९६८ लगातार दो वर्ष के लिए फ्रांसीसियों में सबसे अधिक विख्यात महिला, अमरीका में एक गेल्लप अभिमत सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष १९७१ में विश्व का सबसे अधिक विख्यात व्यक्तित्व, १९७१ में अर्जेंटीना सोसाइटी फार प्रोटेक्शन ऑव ऐनिमल्स द्वारा १९७१ में डिप्लोमा ऑव आनर से विभूषित; आंध्र विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय, विक्रम विश्व विद्यालय, ब्यूनेस आयर्स के एलसैल्वाडोर विश्वविद्यालय, जापान के बासेटा विश्वविद्यालय, मास्को राज्य विश्वविद्यालय और आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से मानार्थ डाक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त हुई। सिटीज़न ऑव डिस्टिंक्शन, कोलंबिया विश्वविद्यालय; सदस्य, राज्य सभा (अगस्त १९६४ से फरवरी, १९६७)। १९७१ में लोकसभा के लिये चुनी गई। सूचना और प्रसारण मंत्री, भारत सरकार, १९६४-६६; १९६६ से भारत की प्रधान मंत्री-२४ जनवरी, १९६६ को प्रथम बार, १३ मार्च, १९६७ को दूसरी बार और १८ मार्च, १९७१ को तीसरी बार शपथ ग्रहण; साथ ही, परमाणु ऊर्जा मंत्री; चेयरमैन, योजना आयोग; अध्यक्ष, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् तथा चेयरमैन, हिंदी समिति आदि के रूप में देश की महती सेवा की।
श्रीमती इंदिरा गांधी के जीवन का इस देश के जीवन से इतना तादात्म्य हो गया है कि इन दोनों को पृथक् पृथक् करके देखना कठिन है। २४ जनवरी, सन् १९६६ ई. को उन्होंने भारत गणराज्य के प्रधान मंत्री का पद सँभाला और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् ने एक सादे समारोह में राष्ट्रपति भवन में उन्हें शपथ दिलाई। दो ही दिन बाद, २६ जनवरी, १९६६ को, अपने प्रधान मंत्रित्व काल के प्रथम गणराज्य दिवस में उन्हें सम्मिलित होना पड़ा। इस दिन दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय पताका फहराने के अनंतर उन्होंने राष्ट्र के नाम जो संदेश प्रसारित किया उसके ये शब्द बड़े महत्व के हैं और बीजमंत्र की तरह आज तक अडिग भाव से वे अपनी प्रगति नीति में इनका पालन करती हुई देश को आगे, और आगे बढ़ाती चल रही हैं--आज मैं फिर से राष्ट्र निर्माताओं के आदर्शों के प्रति, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रति, योजनाबद्ध आर्थिक और सामाजिक प्रगति के प्रति, अंतरराष्ट्रीय शांति और मैत्री भाव के प्रति अपने आपको समर्पित करती हूँ। भारत के नागरिको! आइए, भविष्य में फिर से अपनी आस्था जगाएँ; दृढ़ता और संकल्प के साथ यह कहें और मानें कि हममें अपनी नियति को ढालने की क्षमता है। एक विराट् प्रयत्न में हम सब संगी साथी हैं। आइए, हम अपने आपको इस विराट् प्रयत्न के और इस महान् देश के योग्य सिद्ध कर दिखाएँ।
श्रीमती इंदिरा गांधी की जगत् को चमत्कृत कर देनेवाली दुर्धर्ष सफलता को ठीक ठीक हृदयंगम करने के लिये उनकी पूर्वपीठिका को जान लेना आवश्यक है, अत: बहुत संक्षेप में उसकी कुछ मुख्य बातें यहाँ चर्चित हैं:
श्रीमती इंदिरा गांधी के दादा स्वर्गीय पं. मोतीलाल नेहरू उस असेंबली भवन में उपस्थित थे जिसमें सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने देश की जनता की आवाज कान में तेल डाले बैठे ब्रिटिश अधिकारियों तक पहुँचाने के लिए बम फेंका था। पं. मोतीलाल नेहरू ने संभवत: वहीं से यह ठान लिया कि ऐसी निर्दयी और बेईमान सरकार से सहयोग करना महापाप है। सारे परिवार का जीवन देश को, राज्य को समर्पित हो गया। स्वर्गीय पं. मोतीलाल नेहरू, स्वर्गीय पं. जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और अब हमारे युवा नेता श्री संजय गांधी, सबका जीवन इसका साक्षी है। सारे संसार के लोकतंत्र के इतिहास में ऐसी बेमिसाल कुलपरंपरा देखने में नहीं आती जिसने किसी राष्ट्र के हृदय और मन पर इस गौरव एवं सहजता के साथ शासन किया हो और राष्ट्र ने भी अपनी पूरी हार्दिकता के साथ अपना प्रेम और अपनी श्रद्धा जिसके प्रति उड़ेल दी हो।
स्वर्गीय पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रधान मंत्रित्वकाल में ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने यूरोप, एशिया, अफ्रीका और अमरीका के विभिन्न देशों की अनेक यात्राएँ की थीं। इन यात्राओं में उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बारीकियों को गंभीरता से जानने समझने और उससे परिचित होने का पूरा मौका मिला था। राष्ट्रमंडलीय प्रधान मंत्री संमेलन के सिलसिले में ब्रिटेन की अनेक यात्राएँ, सोवियत संघ की यात्रा, चीन की यात्रा, पंचशील सिद्धांत के जनक बांडुंग संमेलन के लिये इंडोनेशिया की यात्रा आदि इन वैदेशिक यात्राओं में उल्लेखनीय हैं। अपने देश में भी श्रीमती इंदिरा गांधी को चीन के प्रधान मंत्री चाउ एन लाई, रूस के प्रधान मंत्री बुल्गानिन और ्ख्राुश्चेव, अमरीकी राष्ट्रपति की पत्नी जैकलीन केनेडी, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो आदि विश्वप्रसिद्ध राजनीतिज्ञों का अतिथिसत्कार करने के अवसर मिले थे। इन सारे सुअवसरों ने श्रीमती गांधी को व्यावहारिक राजनीतिज्ञता में उसी समय परिपक्प कर दिया था जब वे नेपथ्य में थीं।
सन् १९५६ में इंदिरा जी के सामने कांग्रेस की अध्यक्षता का प्रस्ताव आया। इससे पहले वे कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्य रह चुकी थीं। खूब सोच विचार कर और अपनी शक्ति को तौल परखकर उन्होंने अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया। प्रगतिशील कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में इंदिरा जी अत्यंत सफल सिद्ध हुई। कांग्रेसी मठाधीशों के स्थान पर योग्य युवकों को, जब भी अवसर मिलता, लाने में वे कभी हिचकीं नहीं। उनकी कार्यशक्ति, सामर्थ्य, ओज और निष्ठा देखकर उनके पिता जी को भी कहना पड़ा था---इंदिरा पहले मेरी मित्र और सलाहकार थी, बाद में मेरी साथी बनी और अब तो वह मेरी नेता भी है।
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में श्रीमती इंदिरा गांधी की अपने पिता प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से टक्कर भी हुई। प्रश्न केरल की बिगड़ती हुई राजनीतिक स्थिति का था। इंदिरा जी की राय थी कि केरल की इस स्थिति का सुधारने के लिए वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू कर देना चाहिए। सरकार ने ऐसा कदम पहले कभी उठाया नहीं था, इसलिए नेहरू जी द्विविधा में थे। पर परिस्थिति को जाँच परखकर अंतत: उन्हें इंदिरा जी की बात माननी पड़ी और केरल में देश का सबसे पहला राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। कुछ ऐसी ही हालत उड़ीसा में भी थी। वे दिन दूर नहीं थे जब उड़ीसा के शासन से कांग्रेस को निकाल बाहर किया जाता और वहाँ हाय तोबा मच जाती। उड़ीसा जाकर वहाँ की परिस्थिति का अध्ययन करके इंदिरा जी ने वहाँ के नेताओं को सलाह दी कि कांग्रेस को तत्काल वहाँ की गणतंत्र परिषद् के साथ मिली जुली सरकार बना लेनी चाहिए। यह समयोचित परामर्श भी मान लिया गया और उड़ीसा का आसन्न संकट टल गया। मात्र ये दो घटनाएँ उनकी सूझबुझ और त्वरित-निर्णय-बुद्धि का परिचय देने के लिये आशा है, पर्याप्त होंगी।
देश की महासभा कांग्रेस का दो टुकड़ों में विभाजन श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्वकाल में एक दु:खद घटना हुई जो राष्ट्र के लिये इंदिरा जी के समयोचित भाव के कारण अंतत: कल्याणप्रद सिद्ध हुई। संक्षेप में कहा जाय तो इस विभाजन का कारण कांग्रेस के वरिष्ठ और वयोवृद्ध नेताओं में उस सहनशीलता, सौमनस्य और नई पीढ़ी के साथ उनकी आकांक्षाओं का समादर करते हुए मिलकर चलने की कमी तथा कांग्रेस पर अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए जनता से कट जाने की स्थिति थी जिसका परिणाम सन् १९६७ में देश ने देखा। कांग्रेस के विभाजन के बाद देश की जनता तथा कांग्रेस ने श्रीमती गांधी की कांग्रेस को ही सही और असली कांग्रेस माना। किंतु जिन परिस्थितियों में यह सब हुआ था उससे श्रीमती गांधी भीतर भीतर संतुष्ट और प्रसन्न नहीं थीं। वे चाहती थीं कि संपूर्ण देश की इस विषय में जो राय हो उसी के अनुसार देश का कार्य आगे बढ़ाना उचित होगा। अत: बहुत सोच समझ कर २७ दिसंबर, १९७० को उन्होंने घोषणा कर दी कि लोकसभा और राज्य-विधान-सभाओं के लिए तत्काल आम चुनाव होंगे। यथासमय चुनाव हुए और गांधी की आँधी में जितने खर पतवार थे सब उड़ गए। लगता था जैसे श्रीमती गांधी ने सारे देश पर जादू की लकड़ी घुमा दी हो। इंदिरा कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय हुई। उनके उम्मीदवारों ने लोकसभा में ३५० सीटें प्राप्त कीं, अर्थात् ९० प्रतिशत। इतना बड़ा बहुमत कांग्रेस को पहले भी कभी नहीं मिला था। उनकी लोकप्रियता और देश का उनपर पूर्ण विश्वास स्वत: सिद्ध हुआ।
भिन्न भिन्न प्रकार की अंतरराष्ट्रीय झंझटों और उलझनों के अलावा श्रीमती इंदिरा गांधी को देश के भीतर की झंझटों और उलझनों से भी बराबर निपटना पड़ता है। ऐसा ही एक प्रसंग जून, सन् १९७५ में उठ खड़ा हुआ था, जो सन् १९७१ की चुनावयाचिका के सिलसिले में था। श्री राजनारायण द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरा जी के रायबरेली वाले चुनाव के विरुद्ध एक दावा दायर किया गया था। न्यायाधीश श्री जगमोहनलाल सिन्हा ने ६ आरोपों को तो अमान्य कर दिया परंतु दो तकनीकी आरोपों को स्वीकार करके श्रीमती गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया। श्री सिन्हा ने यह भी आदेश दिया कि २० दिनों तक उनका निर्णय लागू न किया जाए। पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस निषेधाज्ञा को ताक पर रखकर विरोधियों ने आम सभाएँ कीं, प्रदर्शन किए और गला फाड़ फाड़कर प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के इस्तीफे की माँग करने लगे। इतना ही नहीं, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री अजितनाथ रे के पुतले भी विरोधियों ने जलाए। उन्हें यह आशंका थी कि मुख्य न्यायाधीश के पद पर श्री रे की नियुक्ति कराने का श्रेय प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को है, अत: श्रीमती गांधी की अपील पर वे वैसा ही निर्णय करेंगे जैसा श्रीमती गांधी चाहेंगी। सारा प्रतिपक्ष एकजुट होकर श्रीमती गांधी को उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध था, पर वे अडिग भाव से अपना काम करती रहीं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के ठीक पंद्रहवें दिन, अर्थात् २६ जून, १९७५ को, प्रधान मंत्री ने देश में आपात स्थिति लागू की जाने की घोषणा कर दी। यह एक पखवारा इस देश के इतिहास में अव्यवस्था, अराजकता, अनर्गल प्रचार, फूहड़ राजनीतिक प्रदर्शनों, ओछी हरकतों और निम्नकोटि की इश्तिहारबाजी के लिये बेमिसाल रहा। देश के असामाजिक लोगों द्वारा किया गया यह गैर कानूनी, असंवैधानिक और राष्ट्र को विघटित करनेवाला विध्वंसक कदम था। साथ ही देश की सत्ता को गैरकानूनी ढंग से उलटने का आंदोलन भी आरंभ किया गया था। उच्चतम न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा किए बिना न्याय और शासन व्यवस्था को पंगु बनाने के सारे प्रयत्न हुए और विधिसंमत व्यवस्था को उलटने का ही प्रयत्न नहीं हुआ, उससे संबद्ध व्यक्तियों के साथ अनैतिक दुर्व्यवहार भी हुए। इस स्थिति में इस आपात स्थिति की घोषणा ने देश में लोकतंत्र और शासन व्यवस्था की वैसी ही स्थापना की जैसी जनता चाहती थी। केवल सहज सामान्य स्थिति उत्पन्न करने में ही यह सहायक नहीं हुई बल्कि अर्थ से लेकर शासन व्यवस्था तक सर्वत्र उन्नयन हुआ। अंतत: भारत के उच्चतम न्यायालय ने ७ नवंबर, १९७५ को सर्वसंमति से श्रीमती इंदिरा गांधी के रायबरेली क्षेत्र के चुनाव को वैध घोषित कर दिया। उच्चतम न्यायालय के पाँच न्यायधीशों-----मुख्य न्यायाधीश श्री अजितनाथ रे तथा न्यायाधीश सर्वश्री एच. आर. खन्ना, मैथ्यू, चंद्रचूड़ और बेग----ने अपने पृथक् पृथक् निर्णयों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायधीश श्री जगमोहनलाल सिन्हा के निर्णय का रद्द करते हुए श्रीमती गांधी के चुनाव को जो वैध घोषित किया उस पर भारत की कोटि कोटि जनता ने हर्षोल्लास प्रकट करके उन्हें सिर माथे चढ़ाया।
इंदिरा जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे इस बात से पूरी तरह परिचित हैं कि निर्णय कब और किस प्रकार के किए जायँ। अपनी इस अचूक निर्णायक बुद्धि के बल पर अपने प्रधान मंत्रित्व के कार्यकाल में भारत गणराज्य के हर महत्वपूर्ण निर्णय पर उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। प्रधान मंत्री के रूप में उनकी प्रगतिशीलता और सफलता का मुख्य आधार उनकी यही बेमिसाल निजता एवं व्यावहारिकता है।
प्रधान मंत्री पद सँभालते ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने यह अनुभव किया कि देश की अर्थव्यवस्था पर यहाँ के व्यापारियों, पूँजीपतियों और उद्योगपतियों का जो एकाधिकार है उसने राष्ट्र को पंगु बना रखा है और मनोनुकूल अर्थवितरण में यह व्यवस्था बाधक और घातक है। देश के बड़े बड़े बैंक इस अभिसंधि में उक्त वर्ग के सहायक थे। इन बैंकों का राष्ट्रीयकरण ही इस रोग का एकमात्र उपचार था। बिना किसी हिचकिचाहट के उन्होंने निम्नांकित १४ प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर डाला-----
बैंकों के इस राष्ट्रीयकरण के दो पहलू थे-----प्रथमत: बैंक व्यवसाय को सामाजिक दृष्टि से उद्देश्यपूर्ण बनाना, उसमें ऐसा सुधार करना कि छोटे से छोटे किसानों को, छोटे छोटे निर्माताओं को और आधुनिक दृष्टि से पिछड़े हुए प्रदेशों को ऋण के रूप में आर्थिक सहायता सुलभ हो सकें; द्वितीयत: बैंकों की संपूर्ण व्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण हो जिसमें उच्चवर्गीय व्यापारियों द्वारा की जानेवाली अनियमितताओं और बेइमानियों पर, चोर दरवाजे से उद्योगपतियों को दी जानेवाली आर्थिक सहायता पर तथा राष्ट्र और समाजविरोधी गतिविधियों पर नियंत्रण लगाया जा सके। राष्ट्रीयकरण के तत्काल बाद १९ जुलाई, सन् १९६९ को उन्होंने जो घोषणा की उसमें गैर सरकारी उद्योगों और व्यापारियों को यह स्पष्ट आश्वासन दिया कि उनकी उचित आवश्यकताएँ अवश्य पूरी की जायँगी। बैंकों का यह राष्ट्रीयकरण देश के साधनों का पूरा पूरा उपयोग कर पाने के लिए अवश्यंभावी हो गया था। इतने दिनों के इस प्रयोग ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह उपचार बिलकुल ठीक और सामयिक था, अन्यथा कहा नहीं जा सकता, राष्ट्र की कैसी अधोगति होती।
थोड़े दिनों पहले १४ कैरेट से ज्यादा के सोने के गहनों पर पाबंदी लगा दी गई थी। इसका भी बड़ा प्रतिकूल प्रभाव राष्ट्र के अर्थतंत्र पर पड़ रहा था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसके सुधार के लिये भारतीय रुपए का नि:संकोच अवमूल्यन कर दिया और १४ कैरेट से अधिक के सोने के गहनों पर लगी पाबंदी भी उठा ली। दूरदर्शिता और साहस का यह कार्य एक ओर राष्ट्र के लिये कल्याणकारी हुआ और दूसरी ओर उसने श्रीमती गांधी की लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए। वित्त व्यवस्था के सुधार के लिये जुलाई, १९६९ में यह विभाग देसाई जी से लेकर श्रीमती गांधी ने स्वयं सँभाला था। देश की अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिये श्रीमती गांधी के कुछ अन्य उल्लेखनीय कार्य इस प्रकार हैं----- (१) ४६४ नान कुकिंग कोयला खानों के प्रबंध सरकारी नियंत्रण में लेना; (२) १०३ बीमार कपड़ा मिलों की व्यवस्था राष्ट्रीय सरकार द्वारा सँभालना; (३) बैंकों की पहले की हुई राजकीय नियंत्रण की व्यवस्था को और अनुशासित करना, इत्यादि।
देश की वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति के लिए श्रीमती गांधी सतत सजग रही हैं। बंबई के निकट ट्रांबे में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र पहले से कार्य कर रहा है। प्रधान मंत्री पद ग्रहण करने के थोड़े दिनों बाद ही, नवंबर, सन् १९६७ में त्रिवेंद्रम के पास उन्होंने थुंबा राकेट केंद्र की स्थापना कराई और वहाँ से भारत द्वारा निर्मित रोहिणी नामक पहला राकेट छोड़कर उन्होंने भारत को अंतरिक्ष युग में प्रवेश करने का गौरव दिलाया। अंतरिक्ष युग का दूसरा चरण भारत ने तब बढ़ाया जब इसी देश के वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित आर्यभट नामक उपग्रह वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए अंतरिक्ष में छोड़ा गया। निकट भविष्य में ही शांतिपूर्ण अनुसंधान कार्यों के लिए, संपूर्ण रूप से भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित, एक दूसरा उपग्रह भी छोड़ा जानेवाला है।
पर वैज्ञानिक जगत् की चमत्कृत और स्तब्ध कर देनेवाला श्रीमती गांधी का कार्य मई, सन् १९७४ में किया गया पोखरण नामक स्थान में भूमिगत परमाणु विस्फोट है। विश्व के जिन पाँच देशों (अमरीका, ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस और चीन) ने परमाणु विस्फोट की सफलता पाई थी उनकी यह कल्पना भी नहीं थी कि भारत जैसा विकासशील देश वैज्ञानिक क्षेत्र में ऐसी उपलब्धि भी प्राप्त कर सकता है। कुछ देशों ने तो ऐसी हाय तोबा मचाई मानों भारत परमाणु बम बनाकर उनपर आक्रमण करनेवाला हो। पर श्रीमती गांधी ने और उनके सहयोगी नेताओं ने बारंबार विश्व को यह विश्वास दिलाया और अब भी दिला रहे हैं कि भारत परमाणु शक्ति का उपयोग विध्वंसक और विनाशक शक्ति के रूप में नहीं, बल्कि रचनात्मक और शांतिपूर्ण कार्यों के लिए ही करेगा।
हिंदुस्तान एयरक्रैफ्ट कंपनी, हिंदुस्तान मशीन टूल्स; बंबई, विशाखपट्टनम और कोचीन में नागरिक और सैनिक उपयोग के जो संयंत्र बनते हैं उनसे सारा विश्व आश्चर्यचकित है। सेबरजेट विमानों के धुर्रें उड़ानेवाले भारतीय विमान नैट का देखकर सेवरजैट के निर्माणकर्ताओं तक को दाँतों तले उँगली दबानी पड़ी थी। पिछले पाक-भारत युद्ध में बहुसंख्यक अमरीकी पैटन टैंक जहाँ भारतीय गोलों से ध्वस्त किये गये थे, भारतीय जवानों ने उस स्थान का नाम ही पैटन नगर रखकर पैटन टैंक की जो खिल्ली उड़ाई थी उससे उसके निर्माता और प्रयोक्ता दाँत पीसकर रह गये थे।
इधर ताशकंद समझोते की स्याही सूखने भी न पाई थी कि १९७१ में पाकिस्तान के हाथ फिर से खुजलाने लगे। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान की जनता ने बंगलादेश के नाम पर अपने स्वतंत्र गणराज्य की घोषणा कर दी थी और भारत से अपनी सुरक्षा के लिये सैनिक सहायता माँगी थी। भारत ने इसे मंजूर कर लिया। मात्र १४ दिनों की लड़ाई में पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए और ढाका में लेफ्टिनेंट जनरल ए. ए. के. नियाजी ने अपने ९३ हजार पाक सैनिकों के साथ विधिवत् आत्मसमर्पण कर दिया। जुलाई, सन् १९७२ में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति श्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला में वार्ता हुई और यह निश्चय किया गया कि दोनों देशों के जो भी मामले होंगे उन्हें आपसी बातचीत द्वारा सौमनस्यपूर्वक हल किया जायेगा।
श्रीमती इंदिरा गांधी की इन सफलताओं और लोकप्रियता से कुछ विरोधी जल भुन उठे और उन्होंने उन्हें बदनाम करने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाने शुरू किए आपात स्थिति में श्रीमती गांधी ने २६ सांप्रदायिक संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिए। जुलाई, १९७५ में राष्ट्र के कल्याण के लिए उन्होंने जो सुप्रसिद्ध २० सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम घोषित किया उसकी मुख्य बातें संक्षिप्त में इस प्रकार हैं------
जनता के कपड़े की किस्म में सुधार और उसके वितरण की समुचित व्यवस्था।
इस बीस सूत्रीय योजना के साथ श्री संजय गांधी द्वारा प्रवर्तित पंचसूत्री कार्यक्रम भी राष्ट्रोत्थान के लिये प्रयुक्त हुए हैं जो असामान्य रूप से कल्याणकारी सिद्ध हुए हैं। घोषणा के बाद से ही इन सभी सूत्रों पर गंभीरता और शीघ्रता से अमल होने लगा है। अनेक विरोधी लोग गिरफ्तार और नजरबंद हुए। त्रस्त और दलित वर्ग ने सुख की साँस ली। आपात स्थिति तथा उक्त बीस और पाँच सूत्री कार्यक्रम अभी चालू हैं और देश की स्थिति में उत्तरोत्तर सुधार, विकास, और कल्याण हो रहा है।
इन्हीं उद्देश्यों की सम्यक् सिद्धि के लिए नवंबर, १९७६ में हुए लोकसभा के अधिवेशन में भारतीय संविधान में यथोचित संसोधन स्वीकृत हुए और स्पष्ट कर दिया गया कि सारे देश के जनगण के प्रतिनिधित्व का एक मात्र सार्वभौम अधिकार लोकसभा में निहित्त है। इसी वर्ष श्रीमती इंदिरा गांधी ने अफ्रीकी देशों की यात्रा की और भारत की तटस्थता की नीति को दृढ़तापूर्वक स्थापित किया। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले या विकासशील देशों को समर्थन देकर विश्वनेतृत्व के रूप में श्रीमती इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व बड़े प्रोज्वल रूप में उभरकर विश्व के सामने आया है और दिनानुदिन अधिकाधिक दमकता चल रहा है। (सुधाकर पांडेय)