गरुड़ (१) श्येन परिवार का एक पक्षी जो यूरोप और एशिया के सभी ठंढे देशों में पाया जाता है। भारत में यह केवल हिमालय के चार हजार फुट से ऊँचे स्थानों पर ही पाया जाता है इससे नीचे कभी नहीं उतरता। इसके नीचे पाया जाने वाला इसका छोटा भाई उकाब है जिसे लोग भूल से गरुड़ की संज्ञा देते हैं।
यह बहुत ही बहादुर शिकारी पक्षी है और जानवरों और पक्षियों का शिकार कर अपना पेट भरता है। यह घने जंगलों की अपेक्षा पहाड़ के खुले स्थानों में रहता और गिद्धों की तरह शिकार की तलाश में चक्कर लगाता रहता है। बहुधा इसे ऊँचे पेड़ या पहाड़ की चोटी पर बैठे देखा जा सकता है। वहीं से वह अपने शिकार की टोह लेता रहता है जैसे ही गिलहरी, खरगोश, चूहा आदि छोटा जानवर या पक्षी दिखाई पड़ा, बाज की तरह झपट्टा मारकर अपने पंजे में दबोच लेता है।
यह सुनहले भूरे रंग का बड़े कद का पक्षी है और आकार में २७ से ३० इंच तक होता है। नर से मादा आकार में बड़ी होती है। डैने कलछौंह भूरे रंग के होते हैं जिनके सिरे पर सफेद पट्टियाँ होती हैं। टाँगें पीली और परों से ढँकी रहती हैं। (प. ला. गु.)
(२) धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु का वाहन। श्ल्पि में इसकी आकृति पुरूष विग्रहवाले पक्षी की दिखाई जाती है। विष्णु की मूर्तियों में प्राय: गरूड़ वाहन अंकित दिखाया जाता है। कभी कभी गरूड़ की मूर्तियाँ अलग भी पाई जाती हैं।
पुराणों के अनुसार गरूड़ का स्थान बैकुंठ है। वे पक्षियों के राजा हैं। नागों से उनका सदा विरोध है। कथा है कि गरूड़ की माता विनता और सर्पों की माता कद्रू दोनों प्रजापति कश्यप की पत्नियाँ थीं। एक बार कद्रू और विनता में होड़ हुई। विनता ने कहा, सूर्य के घोड़े का रंग श्वेत है, कद्रू ने उसे काला बताया। जब सूर्योदय हुआ, कद्रू के पुत्र सूर्य के घोड़ों के अंगों में लिपट गए और घोड़ों का रंग काला दिखई पड़ने लगा। इससे पराजित विनता ने कद्रू का दास्य स्वीकार किया। जब नाग गरूड़ की पीठ पर सवारी करने लगे गरूड़ को बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने माता से इसका उपाय पूछा। उनसे कहा गया कि यदि तुम स्वर्ग लोक से अमृत का घड़ा ले आओ तो तुम दास्य भाव से मुक्त हो सकोगे। गरूड़ महापराक्रमी थे। वे अपने सशक्त पंखों से वायु को धुनते हुए आकाश की ओर उड़े और स्वर्ग में सोम की रक्षा करनेवाले गंधर्वों से घोर संग्राम कर अमृत का घट उठा लाए। फलस्वरूप उनकी माता विनता और वे दास्य से मुक्त हो गए। इस कथा का मूल ऋग्वेद में ही पाया जाता है किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में इसका विस्तार आता है। वहाँ इसे सौपर्ण काद्रवेय आख्यान कहा है। किंतु कथा का उससे भी अधिक विस्तार महाभारत आदिपर्व के सौपर्णाख्यान में है। वेद में जिन गर्तमास पर्ण का उल्लेख आता है, वे ही पुराणों के गरूड़ हैं। गति इनका मुख्य लक्षण है और वह भी छंदयुक्त गति होनी चाहिए। वस्तुत: भागवत में गजेंद्रमोक्ष के प्रसंग में विषणु के वाहन को छंदोमय गरूड़ कहा है।
सूर्य की माता अदिति और गरूड़ की माता विनता दोनों अभिन्न हैं। वैसे ही सर्पों की माता कद्रू और दिति एक हैं। गरूड़ की गति दो पंखों से ही संभव होती है। इसका आशय यह है कि गति एक छंद या तालयुक्त क्रिया है। गति के साथ आगति अवश्य रहती है। इन दोनों को चक्रगति कहते हैं। ये ही गरूड़ के दो पंश हैं जिनके सिकुड़ने फैलने से उठान संभव होती है। इन्हें वैदिक भाषा में समंचन प्रसारण कहते हैं। ऋग्वेद में गरूत्मा सुपर्ण या गरूड़ को अग्नि, इंद्र, मित्र, वरूण आदि महान देवों की कोठि में रखा गया है। वस्तुत: स्वयं विश्वकर्मा प्रजापति ही गरूत्मासुपर्ण है और जो दे. प्रजापति के रूप हैं, वे सब सुपर्ण के ही रूप हैं।
तात्विक दृष्टि से गरुड़ ज्योति के देवता हैं और नाग तम के प्रतीक हैं। ज्योति और तम का संघर्ष ही विश्व का फल है और यही नाग और गरुड़ का संग्राम है जिसका अंकन करनेवाली कई मूर्तियाँ मथुड़ा की कुषाण कला में पाई गई हैं। (वासुदेवशरण अग्रवाल)