गरबा गुजरात, राजस्थान और मालवा प्रदेशों में प्रचलित एक लोकनृत्य जिसका मूल उद्गम गुजरात है। आजकर इसे आधुनिक नृत्यकला में स्थान प्राप्त हो गया है। इस रूप में उसका कुछ परिष्कार हुआ है फिर भी उसका लोकनृत्य का तत्व अक्षुण्ण है।
आरंभ में देवी के निकट सछिद्र घट में दीप ले जाने के क्रम में यह नृत्य होता था। इस प्रकार यह घट दीपगर्भ कहलाता था। वर्णलोप से यही शब्द गरबा बन गया। आजकल गुजरात में नवरात्र के दिनों में लड़कियाँ कच्चे मिट्टी के सछिद्र घड़े को फूलपत्ती से सजाकर उसके चारों ओर नृत्य करती हैं।
गरबा सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है और अश्विन मास की नवरात्र को गरबा नृत्योत्सव के रूप में मनाया जाता है। नवरात्र की पहली रात्रि को गरबा की स्थापना होती है। फिर उसमें चार ज्योतियाँ प्रज्वलित की जाती हें। फिर उसके चारों ओर ताली बजाती फेरे लगाती हैं।
गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खज़री, डंडा, मंजीरा आदि का ताल देने के लिए प्रयोग होता हैं तथा स्रियाँ दो अथवा चार के समूह में मिलकर विभिन्न प्रकार से आवर्तन करती हैं और देवी-के गीत अथवा कृष्णलीला संबंधी गीत गाती हैं। शाक्त-शैव समाज के ये गीत गरबा और वैष्णव अर्थात् राधा कृष्ण के वर्णनवाले गीत गरबा कहे जाते हैं। (परमेश्वरीलाल गुप्त)