गणेश चतुर्थी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से आरंभ होनेवाला एक धार्मिक समारोह। गणेश देवता और खेती के समय से इसका घनिष्ठ संबंध है क्योंकि समय पर पानी न बरसने से फसल की अनिश्चितता का सकंट दूर करने के लिये विघ्नहर्ता के रूप में इनकी पूजा की जाती है। गणेश चौथ का चंद्रमा देखना अशुभ माना जाता है। यदि भूल से उसको देख लिया तो लोगों के घरों पर ईटं पत्थर फेंकर, उससे गालीगलौज खाकर शुद्ध की जाती है। १८ वीं सदी में महाराष्ट्र में पेशवाओं के राजमहल में प्रति वर्ष भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से दशमी तक बड़े धूमधाम से गणेशोत्सव बनाया जाता था। रंगमहल में गणपति की स्थापना करके वहाँ पर सब कार्यक्रम होते थे। सुंदर सुंदर चित्र, रंगबिरंगे दीपकों का प्रकाश, मूल्यवान कालीन आदि से रंगमहल भरा रहता था। गाना, नाच कथा, कीर्तन आदि हुआ करते थे। इस समारोह में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। विसर्जन के दिन पुष्पों से सजाई हुई पालकी में गणेश का जुलूस निकालते थे। इस अवसर पर पेशवा स्वयं विराजमान रहते थे। इस प्रकार महाराष्ट्र में शासन की ओर से हजारों रु पए इस समारोह के लिए खर्च किए जाते थे। पेशवाओं का शासन समाप्त होते ही (१८१८) इसका राजकीय स्वरूप जाता रहा और घरेलू धार्मिक समारोह बनकर रह गया। १८९५ ई. में बाल गंगाधर तिलक ने इस घरेलू एवं व्यक्तिगत धार्मिक समारोह को पुन: सामाजिक रूप दिया। महाराष्ट्र के प्रत्येक नगर के मुहल्ले में मंडलियाँ स्थापित होती हैं जो गणेशपूजा का समारोह बड़ी धूमधाम से करती हैं। इन मंडलियों में दस दिनों तक भाषण, कथा कीर्तन, प्रवचन और मनोविनोद आदि बड़े ही उत्साह से होते हैं। लोकजागरण की दृष्टि से ही तिलक ने इसे सामाजिक रूप दिया और इसी रूप में माहराष्ट्र में आज भी यह समारोह होता है। अनंत चुतर्दशी के दिन रात भर कथा कीर्तन होता है। भोर में श्री गणेश का जुलूस निकालकर, भजन करते हुए किसी तालाब या नदी में गणेश का विसर्जन करते हैं। महाराष्ट्र में इस समारोह का वही महत्व है जो बंगाल में दुर्गापुजा का। (भीमराव गोपाल देशपांडे)