गणेश पौराणिक हिंदू धर्म के शिव परिवार में बुद्धि के अधिदेवता हैं और मंगलकारी माने जाते हैं। विघ्नों को दूर करने के लिए गणेश की पूजा विवाहादि प्रत्येक मांगलिक कार्य के आरंभ में की जाती है। तुलसीदास जी ने इन्हें बुद्धिरासि सुभ-गुण-सदन एवं मंगलों का कर्ता कहा है। इनकी संज्ञा विनायक भी है क्योंकि ये समस्त देवगणें में अग्रणी हैं। इन्हें रु द्र का पुत्र माना जाता है। किंतु इन्हें रु द्र या शिव से अभिन्न भी कहा गया है। कोशों के अनुसार इनके विध्नश्वेर, परशुपाणि, गजानन, एकदंत, द्वैमातुर, लंबोदर, आखुग आदि अनेक नाम हैं। इन नामों से इनका स्वरूप प्रकट होता है। लोक में गणेश का जो स्वरूप प्रचलित हैं उसमें इनका मस्तक हाथी का है। हाथ में फरसा और पाश लिए रहते हैं। इनका पेट तुंदिल दिखाया जाता है और प्राय: ये नागयज्ञोपवीत पहने रहते हैं। अपने वक्र सूँड से मोदक या लड्डुओं का भोग लगाते हुए गणेश की अनेक मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। मोदकप्रिय होने के कारण इनकी एक संज्ञा ढुंढिराज भी है। सिद्धि और बुद्धि इनकी दो स्त्रियाँ हैं। कहीं पुष्टि को भी इनकी पत्नी कहा है। वामांग में सिद्धि और दक्षिण भाग में बुद्धि की कल्पना की गई है। इनकी चूहे की सवारी प्रसिद्ध है।

गणेश की पूजा का आरंभ कब से हुआ इस विषय में कई कल्पनाएँ हैं। लोकवार्ताशास्त्र के विज्ञ कहते हैं कि आदिम युग में किसी यक्ष राक्षस में लोगों का विश्वास था जो विघ्न बनकर उन्हें दुखी करता था, वही यक्ष गणेश रूप में पूजा जाने लगा। उसे अनुकूल करना कार्यों को विघ्न से बचाने के लिए आवश्यक था। इसीलिए गणेश का नाम विघ्नश्वेर या विघ्नविनायक हुआ। एक अन्य धारणा है कि किन्हीं आर्येतर गण अथवा समूह में हाथी की पूजा प्रचलित रही होगी। उसी से गणेशपूजा का विकास हुआ है। एक तीसरी धारणा यह भी है कि ये आर्येतर ग्रामदेव थे। उन्हें नरबलि दी जाती थी और उसके रक्त से उनका अभिषेक होता था। आज गणेश को जो सिंदूर दिया जाता है वह इसी रक्ताभिषेक का परिवर्तित रूप है जो आर्यदेव माने जाने पर गृहीत हुआ। वस्तुस्थिति जो भी हो, गणेश की गणना सर्वप्रथम शिव के गण के रूप में होने लगी। लोक में जितने यक्ष राक्षस थे, वे सब शिव के गण माने गए हैं, फिर उन्हें गणों के बीच प्रमुखता प्राप्त हुई और वे गणपति या गणेश कहे गए। नृतत्वशास्त्र की दृष्टि से, संभव है, यह भी कहा जा सके कि लोकमान्यता में जो गण या प्रमथ या यक्ष था उसका रूप हाथी के मस्तकवाला रहा हो।

किंतु भारतीय धर्मपद्धति और धर्मतत्व स्थूल के साथ सूक्ष्म को लेकर अर्थात बाह्य रूप और अध्यात्म अर्थ इन दोनों के मिलने से बनता है। अतएव पुराणों में बाह्य रूपों को आंतरिक अर्थों का प्रतीक मानकर व्याख्या की गई है। इस दृष्टि से गणपित तत्व पर विचार करें तो कई तथ्य सामने आते हैं और गणेश के बाह्य रूप की व्याख्या भी हो जाती है। गणेश को शिव पार्वती का पुत्र माना गया है। वे विश्व के आदि से हैं। क्योंकि, जैसा गोसाई जी ने लिखा है स्वयं शिव पार्वती ने अपने विवाह में गणेश का पूजन किया। वस्तुत: शिव और पार्वती अर्धनारीश्वर देवता हैं, दक्षिणांग नर और वामांग नारी। यही नर नारी रूप शिव पार्वती हैं। शिव पिता पार्वती माता हैं। शिव अग्नि और पार्वती सोम के रूप हैं। अर्धनारीश्वररूप में मानों अग्नि और सोम ये दोनों तत्व मिल जाते हैं जिनसे मैथुनी सृष्टि या यज्ञ का आरंभ होता है। अग्नि में सोम की आहुति ही यज्ञ है। शिव के इस स्वरूप में जो दो शक्तियाँ हैं उनसे दो पुत्र जन्म लेते हैं। अग्नि के पुत्र स्कंद और सोम के प्रतिनिधि गणेश हैं। कई स्तोत्रों में गणेश को ब्राह्मणस्पति और ज्येष्ठराज कहा गया है। ज्येष्ठराज का वही अर्थ है जो महायज्ञ का।

गणेश की पूजा घर घर होती है। प्रत्येक शुभ कार्य में पहले उनका पूजन और स्मरण किया जाता है। श्री गोपीनाथ राव ने कई प्रकार की मूर्तियों का उल्लेख किया है, जेसे बालगणपति, तरु णगणपति, भक्तिविघ्नेश्वर, शक्तिगणेश, उच्छिष्टगणपति, नृत्तगणपति, हेरंबगणपति, प्रसन्नगणपति आदि। इसके रूपभेद आगमों और शिल्पग्रंथों में पाए जाते हैं। (वा. श. अ.)

गणेश को शिव पार्वती का पुत्र कहा जाता है पर पुराणों में इस संबंध में घोर मतभेद है। ब्रह्मवैवर्त और लिंगपुराण के अनुसार गणेश का जन्म अयोनिज है। एक अनुश्रुति के अनुसार गणेश का जन्म शिव से है। उन्होंने अपने तप सामर्थ्य से एक तेजस्वी बालक का निर्माण किया और पार्वती ने उसका पालन पोषण किया। बाद में उनमें उस बालक के प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया और उन्होंने शाप देकर उसे कुरूप बना दिया। अनुश्रुति है कि एक दिन पार्वती स्नान करने जा रही थी। अपने शरीर से मल निकालकर उससे एक बालक का निर्माण किया और उसे द्वार पर बैठा दिया कि कोई भीतर न जाने पाए। इतने में शिव आए। वे अंदर जाने लगे। गणेश ने उन्हें रोका। शिव ने क्रुद्ध होकर उनका सर धड़ से उड़ा दिया। गणेश मस्तकविहीन हो गए। यह देख पार्वती बहुत दुखी हुई। उनके सांत्वनार्थ शिव ने इंद्र के हाथी का सिर काटकर गणेश के धड़ से जोड़ दिया। तब से वे गजानन हो गए। ब्रह्मवैवर्त पुराण में गजानन संबंधी सर्वथा भिन्न कथा है। उनके अनुसार शनि की दृष्टि से गणेश का सिर गल गया। पार्वती शोकाकुल होकर ब्रह्मा के पास पहुँची। ब्रह्मा ने कहा, तुम्हें जो पहला प्राणी दिखाई पड़े उसका सिर लाओ। उसे मैं गणेश के धड़ से लगाकर सजीव कर दूँगा। तदनुसार पार्वती मस्तक की खोज में निकली और उन्हें गजमस्तक ही पहले मिला। उसे ही वे ले आई और उसे ब्रह्मा ने गणेश के धड़ से जोड़ दिया। गणेश के योनिज जन्म की भी कथा प्राप्त होती है। ऐसी एक कथा के अनुसार एक दिन जब शिव पार्वती हिमालय में विहार कर रहे थे, उन्होंने एक गज-दंपति के रीति क्रीड़ा में रत देखा। उन दोनों की भी इच्छा गज के समान ही रति करने की हुई। इस प्रकार की रतिक्रिया के कारण उन्हें गज मुख पुत्र उत्पन्न हुआ।

गणेश के गज-मुख की लौकिक मीमांसा करने का प्रयास वेदमर्मज्ञ सातवलेकर ने किया है। इसके संबंध में उनकी दो तीन कल्पनाएँ हैं। उनकी धारणा है कि शवि अति प्राचीन काल में भूतान (भूटान) के प्रबल प्रशासक थे। (इस कल्पना का आधार शिव का भूतपति कहा जाना है। वे भूटान (भूतान) की व्याख्या में कहते हैं वह प्रदेश जहाँ भूत लोग बसते हों।) कैलाश उनकी राजधानी थी। ये भूत लोग हाथी के मुखौटे का प्रयोग करते थे, उसी से गणेश को गजमुख प्राप्त हुआ है। इसी कल्पना के समान उनकी एक और कल्पना है। शिव पार्वती दोनों ही गजचर्म धारण करते हैं। रु द्र और उनके विनायक आदि जिस अरण्य में निवास करते थे वह हाथी के लिए प्रख्यात रहा होगा। इस कारण गणेश ने गजानन नाम प्राप्त किया होगा।

गणेश की वंदना नमो व्रतापतये को लेकर एक कल्पना और भी की गई है। जब क्रमश: आर्य संस्कृति में आर्येतर संस्कृति का प्रवेश होने लगा उस समय आर्यों ने जब व्रात्य नामक आर्येतर लोगों को अपने समाज में ग्रहण किया तभी उनके देवता व्रातपति (गणेश) का प्रवेश आर्य संस्कृति में हुआ। गृत्समद नामक एक वैदिक ऋषि सर्वश्रेष्ठ गणेशभक्त कहे जाते है। वे वर्णसंकर थे। रु द्राध्याय में गृत्स, व्रातगण शब्द प्राप्त होते हैं और वे अपने साथ गणेश के नैकट्य का बोध कराते हैं।

यद्यपि गणेश के आर्येतर समाज से आर्यों के समाज में प्रवेश की बात अनेक विद्वानों ने नाना प्रकार से प्रतिपादित की है तथापि कुछ लोग उन्हें विशुद्ध आर्य देवता मानते हैं और उसके लिये प्रमाण उपस्थित करते हैं। ऐसे लोगों की धारणा है कि शिव और गणेश मूलत: एक हैं। जो शिव हैं वही गणेश हैं, जो गणेश हैं वही शिव हैं। इसके प्रमाणस्वरूप वे भालचंद्र, तृतीय नेत्र और नागभूषण की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। ये तीनों शिव से संबद्ध तो हैं ही, गणेश से भी उनका संबंध है। भालचंद्र तो गणेश का नाम है ही। गणेश संबंधी स्तोत्र गजवदनम चिन्त्यम् में जो गणेश का ध्यान श्लोक है उसमें त्रिनेत्र का उल्लेख हुआ है और गणेश की कमर में नागबंध होता है। अनुश्रुति है कि शंकर ने हलाहल पान करने के पश्चात उसके दाह को शांत करने के निमित्त सर्पभूषण और मस्तक में चंद्र धारण किया। ठीक यही कथा गणेश के संबंध में गणेशपुराण में प्राप्त होती है। अनलासुर ने अग्नि के रूप में जग को जलाना चाहा तब गणेश ने उसका भक्षण कर लिया। उसके दाह तो शांत करने के लिये देवताओं ने गणेश के सर्प, चंद्र आदि शीतोपचार किए।

संपूर्णानंद ने शिव और गणेश की अभिन्नता की चर्चा करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में रु द्रगायत्री तथा गणेशगायत्री संबंधी एक मंत्र के साम्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। यह मंत्र है : तत्पुरु षाय विदमहेवक्रतुंडाय घीमहि। तन्न दंति: प्रचोदयात। इस मंत्र में तत्पुरु ष नाम रु द्र का है और बवुतुंड और दंती ये नाम गणेश के ही कहे जाते हैं।

रु द्र और गणेश की अभिन्नता की धारणा की प्राचीनता के प्रसंग में तैत्तिरीय संहिता के एक मंत्र की ओर ध्यान जाता है जिसमें कहा गया है कि हे रु द्र, मूषक तुम्हारा पशु हैं (१।८।६) जबकि हम सब को यही ज्ञात है कि वह गणेश का वाहन है। लगता है, जिस समय तत्पुरु ष रु द्र से वक्रतुंड और दंती रूपी गणेश भिन्न माने लगे उसी समय मूषक रु द्र के स्थान पर गणेश का वाहन बन गया।

पुराणों में शिव और गणेश की अभिन्नता के अनेक संकेत मिलते हैं। अग्निपुराण में गणेश को त्रिपुरांतक कहा गया है और वायुपुराण में शिव लंबोदर और गजकर्ण हैं। सौर पुराण का कहना तो यह है कि गणेश ही वास्तविक शिव हैं।

गणेश के गजमुख के समान ही उनके एकदंत के संबंध में भी अनेक प्रकार की अनुश्रुतियाँ हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार परशुराम क्षत्रियों का विनाश करने के उपरांत शिव-पार्वती का दर्शन करने गए। उस समय गणेश द्वार पर पहरा दे रहे थे ताकि उनकी निद्रा में कोई बाधक न हो। गणेश ने परशुराम को भीतर जाने से रोका और थोड़ी देर प्रतीक्षा करने का अनुरोध किया। परशुराम उतावली में थे। वे गणेश की उपेक्षा कर भीतर जाने लगे। इस पर गणेश ने उन्हें पकड़कर त्रिभुवन में घुमा दिया। इस पर परशुराम ने अपने परशु से उनपर प्रहार किया। परशु के आघात से उनका एक दाँत उखड़ गया। तब से वे एकदंत कहलाने लगे। दूसरी अनुश्रुति के अनुसार शिव ने क्रुद्ध होकर गणेश का एक दाँत उखाड़ लिया। यह भी अनुश्रुति है कि एक बार गणेश को चंद्र देखकर हँस पड़े तब गणेश जी ने क्षुब्ध होकर अपना दाँत उखाड़कर उसे फेंक मारा। इसी प्रकार की और भी कथाएँ हैं।

इन पौराणिक कथाओं से सर्वथा भिन्न कुछ नृतत्वविदों की धारणा है कि गणेश कृषिदेवता हैं। वे कृमि कीट आदि के उपद्रव से खेती की रक्षा करते हैं। शूर्पकर्ण और एकदंत दोनों इसी ओर संकेत करते हैं। शूर्प (सूप) अन्न पछोरने का साधन है और एकदंत हल का प्रतीक है।

मूषक वाहन----गणेश को मूषकवाह और मूषकध्वज कहते हैं। मूषक जैसे लघु प्राणी को लंबोदर महाकाय गणेश ने अपना वाहन क्यों बनाया इस संबंध में गणेशपुराण की कथा है कि क्रौंच नामक एक गंधर्व था। वह इंद्रसभा में बैठा गा रहा था। उसने गाते गाते ही थूका। उसका थूक वामदेव पर आ गिरा। तब वामदेव ने क्रुद्ध होकर उसे मूषक होने का शाप दिया। और वह मूषक बन कर पराशर के आश्रम में आकर रहने और आश्रम की चीजें खाने लगा। वामदेव ने मूषक के उपद्रव से परेशान होकर गणेश से प्रार्थना की। गणेश ने उस मूषक को पकड़ लिया। मूषक ने अनुनय विनय कर गणेश को प्रसन्न कर लिया और उन्होंने उसे अपना वाहन बनाकर अपने पास रख लिया।

गणेश की ख्याति त्वरा लेखक के लिये है। महाभारत में कहा गया है कि महामुनि व्यास को अपने महाभारत को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता हुई। उन्होंने हिरण्गर्भ के सुझाव पर गणेश से अपना लेखक बनने का अनुरोध किया। गणेश ने कहा कि लेखक होना मैं स्वीकार करता हूँ किंतु शर्त यह है कि आप बिना रूके निरंतर बोलते जाएँगे। जहाँ आप रूके, मै लिखना बंद कर दूँगा और आगे फिर नही लिखूँगा। शर्त टेढ़ी था। कुछ सोचकर व्यास ने कहा कि शर्त मंजूर है पर मेरी भी शर्त यह है कि आप जो कुछ लिखेंगे वह सोच समझकर ही लिखेंगे। गणेश ने लिखना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार व्यास महाभारत की रचना करते और बोलते जाते थे और गणेश लिखते जाते थे। कभी व्यास की रूकने की आवश्यकता होती तथी वे एक दो कूट श्लोक कह देते और गणेश उसे समझने में लग जाते । इस प्रकार व्यास को आगे सोचने और रचना करने का अवसर मिल जाता।

शैव-वैष्णव सभी मतावलंबियों के बीच गणेश की विघ्नेश के रूप में पूजा होती है। इसी रूप में उनकी प्रतिष्ठा तंत्रमार्गियों के बीच भी है। समस्त मंगलकार्य में नवग्रह और मातृका के साथ गणेश की पूजा की जाती है। वाममार्गी अपनी विधि के अनुसार गणेश की पूजा करते है और उनके यहाँ गणेश के अनेक रूप माने जाते है। तांत्रिक बौद्ध धर्म मे भी गणेश गृहीत हुए है। उत्तरवर्ती काल की जो बौद्ध देवियों की मूर्तियाँ प्राप्त होती है उनमें गणेश देवी द्वारा पददलित होते पाए जाते हैं। कदाचित् यह हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति का रूप है, ऐसा कुछ विद्वानों का अनुमान है।

मूर्तिकला में गणेश----भारतीय मूर्तिकला में (और चित्रकला में भी) गणपति की मूर्ति दो, तीन, चार और पाँच सिरवाली अंकित पाई जाती है। इसी प्रकार उनके एक से तीन दाँत हैं। सामान्यत: उनके दो आँखें पाई जाती हैं किन्तु तंत्र मार्ग सम्बंधी मूर्तियों में उनके एक तीसरा नेत्र भी पाया जाता है। आरंभिक मूर्तियाँ में उनके एक हाथ में परशु और दूसरे में मूली होती है। पीछे उनकी चार, आठ और सोलह भुजाओवाली मूर्तियाँ बनने लगीं। पूजा में गणेश की एक दसभुजी मूर्ति है। वहीं अन्यत्र उनकी त्रिशुंड मूर्ति भी है। त्रिमुख मूर्ति जापान और चतुर्मुख मूर्ति कंबोडिया में देखने में आती है। त्रिमुख मूर्ति जापान और चतुर्मुख मूर्ति कंबोडिया में देखने में आती है। सामान्यत: उनका वाहन मूषक है पर वे कभी कदा सिंह अथवा मयूर पर बैठे भी पाए जाते है। उनकी मूर्तियाँ सामान्यत: समभंग खड़ी अथवा पद्मासन स्थित पाई जाती हैं। किंतु कुछ में वे नृत्यु मुद्रा में भी अकित किए गए है। भारत के बाहर भी कई देशों में गणेश की बहुविध मूर्तियाँ पाई जाती हैं, कहीं कहीं तो वह पाजामा तथा जूता पहने भी देख पड़ते हैं। (परमेश्वरीलाल गुप्त)