गणितीय सारणियाँ गणित निदर्शनात्मक विज्ञान है। फलस्वरूप इसकी विस्तृत प्रयोज्यता के कारण बहुत समय पूर्व सारणीकृत मानों के कुलकों, अर्थात् गणितीय सारणियों, की आवश्यकता अनुभव की गई, जिससे संगणना कम क रनी पड़े। इसका मुख्य श्रेय आर्थर केली (Arthur Cayley, सन् १८८१-१८९५) को मिला, जिसने विज्ञान के उत्कर्ष के लिए ब्रिटिश ऐसोसिएशन द्वारा सन १८७३ में प्रकाशित, जेम्स डब्ल्यू. ए. ग्लेशर (Glaisher) द्वारा लिखित, गणितीय सारणियों पर विस्तृत विवरण के आधार पर इनका निर्माण किया। किंतु विज्ञान का उत्तरोत्तर विकास होने से उपुर्यक्त सारणी की उपादेयता क्रमश: कम होने लगी थी। अतएव सन् १९४० में अमरीका की राष्ट्रीय अनुसंधान समिति ने रेमंड सी. आर्चिबाल्ड (Archibald) की अध्यक्षता में संगणना की नई प्रणाली तथा नए साधनों की उदभावना की जिनसे सारणियाँ अधिक सूक्ष्म तथा उपयोगी हो सकें। समिति ने निम्नलिखित वर्गीकरण स्वीकार किया: (क) अंकगणितीय सारणियाँ, गणितीय स्थिरांक, (ख) घात, (ग) लघुगणक, (घ) वृत्तीय फलन, (ड) अतिपरवलयिक तथा घातीय फलन, (च) संख्यासिद्धांत, (छ)उच्चतर बीजगणित, (ज) समीकरणों के संख्यात्मक हल, (झ)परिमित अंतर, (ञ) श्रेणी संकलन, (ट) सांख्यिकी, (ठ) उच्चतर गणितीय फलन, (ड)समाकल, (ढ)ब्याज तथा निवेश, (ण) बीमा विज्ञान, (त) इंजिनीयरी, (थ) ज्योतिष, (द) भूगणित, (घ) भौतिकी, (न) रसायन, (प) नाविकविद्या और (फ) गणनायंत्र तथा यांत्रिक संगणना।

अधिकांश गणितीय सारणियाँ एक मानीय फलन फ (य) के स्वतंत्र चर य के एक कुलक के लिये बनाई जाती हैं, यथा लघु य स्पर्शज्या य इत्यादि। सारणी में अंकित संख्याएँ प्रविष्टियाँ तथा सारणीकृत मान कोणांक कहलाते हैं। इस प्रकार की सारणी (array)अर्थात य के कुलक के लिये फ (य) के मान इकहरी प्रविष्टिसारणी कहलाती है। तदनुसार यदि फ (य) र गुणज फलन अर्थात् यह प्रत्येक य के संगत र मान ग्रहण करे तो इसे हम र प्रविष्टिसारणी कहेंगे। प्राय: हमें दो चरों की सारणी की आवयश्कता होती है, जिसे हम दोहरी प्रविष्टिसारणी कहते हैं। सारणी की लंबाई तथा आकार तीन अभिलक्षणों से निश्चित किए जाते हैं: सारणीकृत फलन की प्रकृति, अभीष्ट सन्निकटन का क्रम तथा प्रयोग जिनके लिये सारणी अभीष्ट है। उदाहरणार्थ, त्रिकोणमितीय ज्या य कोज्या य आदि के लिए जहाँ य अंश कला विकला में नापा जाता है, यह पर्याप्त है कि य को तथा ९० के उपयुक्त अंतराल में ले लिया जाए, क्योंकि संख्यात्मक मन एक वृत्तपाद से दूसरे वृत्तपाद तक पुनरावृत्त होते हैं। दूसरी ओर यदि य रेडियन माप में दिया गया है तो की असंमेयता के कारण य को से लेकर तक पूर्ण सारणी की अपेक्षा होगी। १०० रेडियन तक सारणियाँ बन सकती हैं। कोणांकों के परिकलन के अंतराल के सीमांतर तथा कोणांक प्रविष्टियों के बीच के अंतराल को सारणीय अंतराल कहते हैं। दशमलव के स्थानों की संख्या को, जहाँ तक फैलने की संगणना की जाती है, सारणी का स्थानमान कहते हैं। इस प्रकार दशमलव के पाँच स्थानों तक संगणित लघुगणक सारणी (Logarithm table) को हम पंचस्थान सारणी एवं दशमलव के र स्थानों तक संगणित सारणी को र स्थान सारणी कहते हैं। कभी कभी दशमलव स्थानों की अपेक्षा सार्थक अंकों की संख्या को निर्देश करना अधिक महत्वपूर्ण होता है। उदाहरणार्थ चार दशमलव स्थानों का उदाहरण है, यद्यपि इसमें पाँच सार्थक अंक हैं। जिन सारणियों में सार्थक अंकों पर बल दिया रहता है, वे प्राय: उन अंकों की सारणी के नाम से निर्दिष्ट रहती हैं।

यह स्पष्ट है कि सारणी का आकार तीन घटकों, अर्थात सीमांतर, सारणीय अंतराल तथा स्थानमान, पर निर्भर करता है। सामान्यत: हमें दशमलव के पाँच स्थानों तक की सारणी की आवश्यकता पड़ती है। दस स्थानों तक की सारणी की बहुत कम तथा दस से अधिक स्थानों की तो अपवादात्मक दशाओं में ही अपेक्षा होती है।

यदि सारणीय अंतराल काफी कम चुना जाय, जिससे एकघाती अंतर्वेशन (Interpolation) सारणी के स्थान मान का संनिकटन प्राप्त करने के लिये पर्याप्त हो, तो उस सारणी को एकघाती सारणी कहते हैं। एकघाती सारणी के दो मुख्य लाभ हैं : एक तो यह सरलता से संगणित हो जाती है, दूसरे यह सारणीकृत

फलन के प्रतिलोम फलन की सारणी के रूप में भी काम देती है। इस प्रकार लघुगणक, ज्या य तथा वर्गों की एकघाती सारणियाँ क्रमश: प्रतिलघुगणक,

चाप ज्या य तथा वर्गमूल की सारणियों का भी काम देती हैं। उस दशा में जब लंबे सीमांतर के मानों की आवश्यकता हो और तदनुसार एकघाती अंतर्वेशन अपर्याप्त हो तो हम द्वितीय या उच्चतर क्रम के अंतरों का अंतर्वेशन के लिये प्रयोग करते हैं। प्राचीनतर सारणियों में न्यूटन ग्रेगरी अंतर्वेशन अर्थात फ (य+ पह) =फ (य) +प फ (य) +प (प १) फ (य) फ (य प ह) फ (य) प ह फ (य) प ह फ (य) क प्रयोग कि या गया था, जहाँ पर ह सारणीय अंतर, य क ोणांक तथा प भिन्न है। सामान्यत: सारणियाँ भी दो बनाई जाती हैं, एक फलन के लिये तथा दूसरी फलन के लिये तथा दूसरी फलन के प्रतिलोम के लिए, यथा लघुगणक सारणी तथा प्रति लघुगणक सारणी इत्यादि, क्योंकि प्रतिलोम फलन के लिये मानों का अंतर्वेशन क्लिष्ट हो जाता है।

संकेतन-----(१) यदि फ (य) को र दशमलव के स्थानों तक अ से ब सीमांतर तक स के अंतरालों में सारणीबद्ध करना हो तो हम संकेत रूप से व्यक्त करते हैं कि फ (य) का मान य अ (स) ब र द. ल. के लिए दिया गया है। (२) यदि फ (य) को य अ से ब तक स के अंतरालों में और ब१ से द तक इ के अंतरालों में सारणी बद्ध करना हो तो य अ (स) ब (इ) द; र द. ल. द्वारा फ (य) के मानों को व्यक्त करते हें। यदि सन्निकटन दशमलव स्थान की अपेक्षा सार्थक स्थानों मे अभीष्ट हो तो द. ल. के स्थान पर सा. रख दिया जाता है। उदाहरण के लिए यदि स्पज्या य के से ९० तक १० के अंतराल में दशमलव के ५ स्थानों के लिए मानों को परिकलित करना है तो हम लिखते हैं य (१०) ९० ५ द. ल. । यदि यही ०से ४५ तक १० के अंतरालों तथा ४५ से ९० तक १५ के अंतरालों पर ३ सार्थक स्थानों तक अभीष्ट हो तो हम लिखते हैं (१०) ४५ (१५’’) ९० ३ सा.।

सारणियों की संगणना के लिए ये तीन विशेष सूचक हैं : सीमांतर, संनिकटन और सारणीय अंतराल, जिसमें फलन को सारणीबद्ध करना है। प्रथम दो मुख्यतया सारणी के उद्देश्य पर निर्भर करते हैं और अंतिम सोचे हुए सीमांतर से क्रम पर। सारणीय अंतराल के निश्चित हो जाने पर फलन का लंबे सीमांतर तक मान निकालना क्लिष्ट क्रिया थी। आधुनिक समय में फलनों, घात श्रेणियों, अनंतस्पर्शी श्रेणियों तथा वितत भिन्नों के गुणों, पुनरु क्त प्रक्रिया, समकोणीय श्रेणियों, प्रतिलोम फलन श्रेणियों तथा अन्य प्रकार की श्रेणियों में विस्तार द्वारा यह कार्य सरल हो गया है। इसके अतिरक्ति परिमित अंतरकलन के सूत्रों को भी अंतर्वेशन, संख्यात्मक समाकलन, अवकलन आदि के उपयुक्त बना लिया जाता है। विस्तृत सीमांतरवाले फलनों, उदाहरणार्थ य इ इत्यादि को सारणी बद्ध करने के लिए क्रमश: + १य य और इ = + गुणों का प्रयोग करते हैं। अन्यथा फ (य ह) फ (य) ह फ (य) + � ह फ (य) श्रेणी का प्रयोग करते हैं। विलियम शैंक्स (सन १८१२-१८८२) ने १५७३ ई. में मैशिन के सूत्र p/4= चाप स्पज्या 1/5+ चाप स्पज्या 1/139 के प्रयोग से के मान को दशमलव के ७०७ स्थानों तक (जिनमें से ५२७ के शुद्ध होने का निश्चय है) प्रकाशित किया। ऐसे चरम सीमागत मानों का संगणना के अतिरिक्त कोई निजी महत्व नहीं है।

संगणक के लिए इसके बाद का तथा अंतिम महत्वपूर्ण कार्य है सारणी की परिशुद्धि का निश्चय करना। निस्संदेह पूर्ण परिशुद्धि प्राप्त करना बहुत कठिन है, क्योंकि एक अति प्रसिद्ध प्रमाणिक सारणी के ८२वें संस्करण में एक अशुद्धि रह गई थी। इस प्रकार सारणी की परिशुद्धि की जाँच के लिए पूर्वप्रयुक्त विधि से भिन्न विधि द्वारा सारणी का पुनर्निर्माण उत्तम माना जाता है। कुछ सारणियों की सामान्य अशुद्धि सन्निकटन के लिए दशमलव के अंतिम स्थान की अपरिशुद्धि होती है।

अंतिम कार्य यह देखना है कि सारणी अच्छी तरह तथा परिशुद्धत: छपी हो। प्रामाणिक सारणियों की परिशुद्धि को नष्ट करने के लिये छपाई की अशुद्धियाँ समान रूप से उत्तरदायी होती हैं, जिससे वे तथ्य मिथ्या सिद्ध होते हैं जिन्होंने छपाई को मूल मान निर्धारण जैसा महत्व दिया है। (ग. च. शु.)