गणनायंत्र गणना के सरल और महत्वपूर्ण सर्वप्रथम उपकरण गणनागोलक (abacus) में गणना और सांख्यिक अभिगणना का विकास निहित है। कुशल व्यक्ति के हाथों में इस उपकरण की दक्षता प्राचीन काल से ही मानी गई है और अब भी कुछ देशों में इसका प्रचार है।

सन् १६१७ में जान नेपियर ने गणनोपयोगी अपनी संख्याछड़ों का वर्णन प्रकाशित किया। तब से ये छड़ें नेपियर की अस्थियों के नाम से विख्यात हैं। १७वीं शताब्दी में इनका विस्तृत प्रचार था और इनमें कई एक संशोधन भी हुए। साउथ केंसिंगटन के विज्ञान संग्रहोलय में चार्ल्स वैबेजवाला दंडकु लक रखा है। इसकी पत्तियों पर सामान्य पहाड़े की संख्याएँ लिखी हैं। प्रत्येक गुणनफल एक वर्ग के भीतर लिखा है-उसका इकाई अंक विकर्ण द्वारा समद्विभाजित वर्गार्ध में और हर दहाई अंक ऊपरवाले में। उदाहरणत:, ७ वाली पत्ती पहाड़ा इस प्रकार है :

............इसकी प्रयोगविधि यह है। मान लें ७,६५,४७९ को ६ से गुणा करना है, तो गुण्य के अंकोंवाली पंक्तियाँ पहले क्रम में रखी जाएगी। इनकी बाईं ओर सूचिका पत्ती पर २ से ९ तक के अंक लिखे रहते हैं। इस पत्ती पर ६ की पंक्ति में हर जोड़ी विकर्ण के बीच के अंक जोड़ने पर गुणनफल ४५,९२,८७४ मिल जाता है। यदि गुणक में कई अंक हैं तो सामान्य गुणनविधि के अनुसार प्रत्येक अंक का गुणनफल एक दूसरे के नीचे लिखकर जोड़ने से अभीष्ट गुणनफल मिल जाता है। मोरलैंड ने सन् १६६६ में एक ऐसे गुणन उपकरण का आविष्कार किया जिसमें नेपियर दंडों के स्थान में घूर्णनशील मंडलकों का प्रयोग था और गुणनफल के अंक इन मंडलकों के व्यासों के सिरों पर लिखे थे।

प्रथम वास्तविक गणनायंत्र-ब्लेस पास्काल ने सन् १६४२ में पहली बार उस प्रकार का संकलनयंत्र बनाया जिसे सामान्यतया गणनायंत्र की संज्ञा दी जाती है। इसने कई एक यंत्र बनाए जिनमें से कुछ पेरिस के सुरक्षालय, कंज़र्वेटॉयर डि आर्त ए मैटियर (Conservatoire des Arts et Meteirs) में रखे हैं। एक मंजूषा में कुछ अंकचक्र समांतर अक्षों पर चढ़े होते हैं, जिनपर ० से ९ तक के अंक लिखे रहते हैं। यंत्र के ढक्कन से लगे हरेक अंकचक्र के ऊपर सामने की ओर एक क्षैतिज चक्र रहता है, जो एक चक्कर के १/१० भाग से लेकर ९/१० भाग तक एक डंडी अथवा सूचिका द्वारा आगेवाली दिशा में घुमाया जा सकता है। यह संचालनसूची (पिन) चक्र के योक्तण द्वारा संगत अंकचक्र में प्रेषित हो जाता है। प्रत्येक अंकचक्र का सर्वोच्च अंक ढक्कन में लगे एक दृष्टिछिद्र से दिखाई देता है। किसी भी अंकचक्र के ९ से ० तक के संचलन में, हाथ लगे अंक को जोड़ने के लिये एक नीति-युक्ति द्वारा, उसके बाएँ हाथवाला अकचक्र १/१० चक्कर घूम जाता है। सन् १६६६ में मॉर्लैंड ने इसी ध्येय से ३x४ के क्षेत्रफल का और १/४ इंच से भी कम ऊँचा एक सुगठित लघु उपकरण बनाया। यह सूचिका द्वारा चलता था, किंतु इसमें दहाई को नीत करने की युक्ति नहीं थी। नीत किए जानेवाले अंकों का अभिलेखन छोटे प्रतिमंडलकों (counters) पर होता था। आगे चलकर सन् १७८० में वाहकाउंट चार्ल्स माहून (Mahon) ने इस उपकरण में दहाई नीत-युक्ति का समावेश कर दिया। इसमें इकाई के चक्र से अन्य कोटियोंवाले चक्र तक एक साथ संचलन होता था, किंतु अधिक चक्रों को एक साथ चलाने में यथेष्ट बल की आवश्यकता थी। इस कारण इसके द्वारा छह अंकों की संख्याओं का जोड़ना भी दुर्लभ था। रॉथ (Roth) ने सन् १८४२ में इस सूचिकाचालित उपकरण में यह सुधार किया कि नीत अंक एक एक करके जोड़े जो सकें। इस प्रकार के अल्पमूल्य उपकरणों का अब भी बाजार में प्रचुर रूप से प्रचलन है।

गुणनयंत्र-----गुणन वास्तव में पुनरागत संकलन है। उदाहरणत: ३६८७x२१४=(३६८७+३६८७+३६८७+३६८७) + ३६८७० +(३६८७००+३६८७००)। अतएव पास्काल प्रकार के सभी संकलनसंत्रों से गुणन किया जा सकता है, किंतु समय लगभग उतना ही लगेगा जितना कागज पर लिखकर सामान्य विधि से गुणा करने में। उदाहरणत:, पूर्वोक्त गुणन में हाथ से अलग अलग २८ क्रियाएँ करनी होगी। हर क्रिया में सूचिका को समूचित छिद्र में रखकर उसके द्वारा अंकचक्र को समुचित कोण तक घुमाना होगा। सन् १६७१ में लाइब्निट्स (Leibnitz) को यह विचार सूझा कि ऐसा यंत्र बनाया जाए जिसमें द्रुत गति से पुनरागत संकलन की क्रिया द्वारा गुणन हो जाए। ऐसा पूर्ण यंत्र सन् १६९४ में बन पाया। इस यंत्र में खिसकनेवाले खंड में गुण्य की स्थापना की जाती थी और यह खंड एक एक स्थान करके बाईं ओर खिसकाया जा सकता था, जिसका अर्थ है १०,१००,.... इत्यादि से क्रमानुसार गुणा करना। यंत्र के स्थिर भाग मे अंकचक्रों पर गुण्य को नौ बार तक द्रुतगति से जोड़ने के परिणामों का अभिलेखन होता जाता था। यह यंत्र हैनोवर के राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित था। परीक्षा से ज्ञात हुआ कि दहाईप्रेषण का तंत्र पूर्णत: विश्वसनीय नहीं था। ऐसी एक मशीन सन् १७०४ में बनी, किंतु यह अब लुप्त हो गई है। इस यंत्र का एक महत्वपूर्ण अवयव वर्धितपग (stepped) चक्र था, जिसमें एक बेलनाकार चक्र या बेलन (drum) के बाह्य पृष्ठ पर वर्धमान लंबाई के नौ दाँत थे। इस अवयव की योजना बाद के ऐसे अनेक यंत्रों में की गई है जिनमें पुनरागत संकलन द्वारा गुणन होता है। वर्तमान युग में इसका बहुत प्रचार है। १८वीं शताब्दी में विभिन्न गणितज्ञों और यंत्रकलाविदों ने वाणिज्योपयोगी यंत्र बनाने का प्रयत्न किया। इसके निर्माण में मुख्य कठिनाई चक्रों के दाँत जैसे अवयवों को उच्च कोटि की यथार्थता तक बनाने में थी।

प्रथम वाणिज्योपयोगी गणनायंत्र------इसका आविष्कार सन् १८२० में चार्ल्स ज़ेवियर टॉमस ने किया। मूल रूप से यह प्रतिमान (मॉडल) आज तक प्रचलित है, यद्यपि विस्तार की गौण बातों में निरंतर संशोधन और सुधार होते चले आ रहे हैं। एक ऐसा संशोधित यंत्र सन् १८६६ के लगभग बना था।

इस यंत्रतंत्र के क्रमानुसार स्थापन, गणन और अभिलेखन से संबंधित तीन पृथक् खंड किए जा सकते हैं। ये खंड क्रमपूर्वक यंत्र में आगे से पीछे की ओर व्यवस्थित रहते हैं। स्थिर आवरणपट्टिका (plate) में छह खाँचे हैं। प्रत्येक में एक संकेतक है जो ० से ९ तक की अंकोंवाली स्थितियों में से किसी एक में लाया जा सकता है। ये अंक हर खाँचे की बाईं ओर खुदे हैं। इन संकेतकों को चलाकर ९,९९,९९९ तक किसी भी संख्या की स्थापना की जा सकती है। प्रत्येक संकेतक के संचलन से दस दाँतों का एक छोटा दंतिकाचक्र (pinion) एक वर्ग धुरी के अनुदिश खिसकता है। इस दंतिकाचक्र के नीचे और बाईं ओर लाइब्निट्स के ढंग का एक पगवर्धित चक्र रहता है, जो एक प्रवणचक्र (bevel wheel) द्वारा प्रधान ईषा (shaft) से हट जाता है और छोटा दंतिकाचक्र उतने दाँत घूमता है जितने बेलन के स्थापित अंक वाले अनुप्रस्थ समतल में होते है। उसी अक्षवाले परिक (sleeve) पर स्थित प्रवणचक्र की जोड़ी में से एक के द्वारा यह घूर्णन कीलित (कब्जे से कसी) पट्टिका के पीछे की पंक्ति में लगे परिणामसूचक अंकचक्र को प्रेषित हो जाता है। इस पट्टिका में वह अंकचक्र भी लगा रहता है जिससे (कीलित पट्टिका की प्रत्येक स्थिति के लिये) चालक हत्थे (कूर्पर crank) के चक्करों की संख्या का अभिलेखन होता है। स्थिर पट्टिका के ऊपरी बाएँ कोने पर एक उत्तोलक लगा रहता है जिसकी दो स्थितियाँ हैं-एक संकलन और गुणन के लिए तथा दूसरी व्यवकलन और भाजन के लिए। इन स्थितियों में प्रवण (bevel) चक्रों की जोड़ी में से एक एक परिणामस्वरूप अंकचक्र के नीचेवाले प्रवणचक्र से युक्त हो जाता है। इससे यह परिणामचक्र पहली दशा में वामावर्त और दूसरी दशा में दक्षिणावर्त ० से ९ तक घूम जाता है। उदाहरणत: ३,०४२ को ५३६ से गुणन की क्रिया इस प्रकर होगी : पहले कीलित पट्टिका को उठाएँ; दोनों आक्षरित मुंडो (Milled knobs) को घुमाकर छोड़ दें जिससे सभी अंकचक्रों पर शून्य दिखाई दे। कीलित पट्टिका को नीचे दबाकर चरम बाईं स्थिति में लाएँ; अब स्थिर पट्टिका के चार खाँचों में संख्या ३,०४२ की स्थापना करें; बाईं ओर के उत्तोलक को गुणनवाली स्थिति में लाएँ और हत्थे को छह बार दक्षिणवर्त घुमाएँ (हत्था वामावर्त नहीं घूमेगा); कीलित पट्टिका को उठाकर उसे एक पग दाहिनी ओर खिसकाएँ और फिर नीचेवाली स्थिति में ले आएँ; हत्थे को तीन बार घुमाएँ; एक पग फिर पट्टिका को खिसकार पाँच बार हत्थे को घुमाएँ। गुणनफल १६,३०,५१२ चोटी की पंक्ति पर और गुणक ५३६ अंकों की दूसरी पंक्ति में दिखाई देगा। सन् १८७८ में आधुनिक जर्मन गणना-यंत्र-उद्योग की स्थापना आर्थर बुर्खार्ट (Burkhardt) ने की और बुर्खार्ट अंकगणितमापी (एरिथमोमीटर Arithmometer) के नाम से इस गणनायंत्र का निर्माण आरंभ हुआ। इस प्रकार के यंत्र अन्य व्यावसायिक निर्माताओं ने भी बनाए।

ऑढनर (Odhner) प्रकार के यंत्र----सन् १८७५ में फ्रैंक स्टिफेन बाल्ड्विन ने एक ऐसे यंत्र का पेटेंट कराया जिसमें लाइब्निट्स के वर्धितापगचक्र के स्थान पर ऐसा चक्र प्रयुक्त था जिसकी परिमा (periphery) से बाहर १ से ९ तक कितने ही दाँत निकल आते थे। लगभग उसी समय डब्ल्यू. टी. ऑढनर (Odhner) ने इसी युक्ति पर आधारित यंत्र बनाया जिसका विकास और निर्माण सन् १८९२ से ब्रुंसबिगा (Brunsviga) के नाम से जर्मनी में होता रहा है। सन् १९१२ तक इस प्रकार के २०,००० यंत्र बने।

यद्यपि इस यंत्र में भी टॉमस के यंत्र की भाँति गुणन पुनरागत संकलन द्वारा होता है, तथापि लाइब्निट्स चक्र के स्थान में पतले ऑढनर चक्र के प्रयोग से यह प्ररचना (design) अत्यंत सुगठित हो गई है। ऑढनर चक्र पीछे की ओर धुरी पर बहुत कस के बैठते है। प्रत्येक चक्र का अंग स्थापक उत्तोलक है, जिसका सिरा आवरण पट्टिका के बेलनाकार भाग में खाँचे से बाहर निकला रहता है। जब कोई उत्तोलक अपने खाँचे के किसी अंक (१ से ९ तक) पर ला दिया जाता है तो उतने ही दाँत उसके चक्र से बाहर निकल आते हैं। जब चालक हत्था घुमाया जाता है तो ये दाँत गुणनफल पंजित्र (Product register) के छोटे दाँतेदार चक्रों से युक्त हो जाते हैं और ये चक्र सामने के संख्याचक्रों से युक्त हो जाते हैं। गुणनफल पंजित्र यंत्र में सामने की ओर लंबाई की दिशा में चलनशील वाहक पर चढ़ा रहता है। इस वाहक पर एक गणक (counter) और लगा रहता है, जिसमें गुणनक्रिया का गुणक और लगा रहता है, जिसमें गुणनक्रिया का गुणक और भाजनक्रिया का भागफल आलेखित होता रहता है। संकलन तथा गुणन के लिए हत्था दक्षिणावर्त घुमाया जाता है, व्यवकलन तथा भाजन के लिए वामावर्त और टॉमस के यंत्रों की भाँति योक्त्र (gear) परिवर्तन की आवश्यकता नहीं रहती। वाहक (Carriage) एक पद दाहिनी या बाईं ओर सामने निकली हुई दो खंडिकोओं (पुरजों) में से एक को दबाकर खिसकाया जा सकता है। गुणनफल और गुणक पंजित्रों (रजिस्टरों) के शून्यीकरण के लिये वाहक के सिरों के बिंबनहों (Butterfly nuts) को एक पूरा चक्कर घुमाना पड़ता है।

मौलिक ऑढनर एकस्वों (पेटेंटों) के अंतर्गत, और जब से इन एकस्वों की अवधि समाप्त हुई तब से विभिन्न देशों में अनेक निर्माताओं ने विभिन्न नामों से इस प्रकार के यंत्र बनाए हैं।

ये यंत्र कई मापों और क्षमताओं के बनाए गए हैं। वर्तमान काल तक इसके गौण पुरजों के निर्माण में निरंतर संशोणन और सुधार होते रहे हैं। मौलिक जर्मन निर्माता के बाद के नमूने में, जो सन् १९२७ में नोवा ब्रंसविगा (Nova Brunsviga) के नाम से चला, प्रतिरूप ही परिवर्तित है। नई युक्तियों में से एक युक्ति गुणनफल अंकानीक (Dial) पर पंजीकृत परिणाम को एक बार में ही नियोजक उत्तोलकों पर प्रेषित करने की है। इससे पूर्व प्रचलित २० अंकों के परिणाम देनेवाले प्रतिरूप ट्रिप्लेक्स (Triplex) में परिणामपंजित्र के दो खंड किए जा सकते हैं। इसके फलस्वरूप दो भिन्न संख्याओं का एक ही गुणक से गुणन केवल एक क्रिया में किया जा सकता है। ट्विन (ब्रुंसविगा, मार्चेट) नामक प्रकार में वस्तुत: दो यंत्र जुड़े हैं जो एक ही हत्थे (crank) से चलते हैं।

कुंजीचालित यंत्र----कुंजीपट्ट प्रकार के गणनायंत्र का आविष्कार और विकास प्रधानत: संयुक्त राज्य (अमरीका) में हुआ। इसके दो वर्ग स्पष्ट है। कुंजीचालित और कुंजीनियोजित। कुंजीचालित में यंत्र को चलाने के लिए आवश्यक ऊर्जा केवल कुंजियों को दबाने से मिल जाती है। ऐसा पहला यंत्र सन् १८४० में बना, किंतु उससे एक बार में अंकों का केवल एक स्तंभ जोड़ा जा सकता था। सन् १८८७ में फ़ेल्ट ने अपने गणनमापी (Comptometer) का पेटेंट कराया। यह पहला कुंजीचालित गणनयंत्र था जिससे कई अंकोवाली संख्याएँ एक साथ जोड़ी जा सकती थीं। आरंभ के प्रतिमानों (माडलों) में दहाई वाले नीतांकों के कारण प्रत्येक कुंजी को अलग अलग चलाना पड़ता था। बाद के प्रतिमानों में बहुत सुधार किए जाने के फलस्वरूप उनके प्रयोग में द्रुति, सुविधा और शुद्धता बढ़ गई। सन् १९०३ में आविष्कृत डुप्ले (Duplex) प्रतिमान में पहली बार कुंजियों को एक साथ दबाकर संकलन क्रिया करना संभव हुआ। इससे बड़ी प्रगति हुई और गणना बड़ी तीव्रता से होने लगी। आगे चलकर दोष पूर्ण प्रयोग के कारण गणना में कोई त्रुटि न आने पाए, इसका निश्चय करने के लिए नियंत्रित कुंजीप्रतिरूप का आविष्कार हुआ। प्रत्येक कुंजी से लगी एक व्यतिकरण रक्षी (Interfence guard) लगा देने से जिस कुंजी का दबाना अभीष्ट है उसके पासवाली का आकस्मिक दबना रुक गया। यदि कुंजी पूरी न दबे तो अन्य स्तंभ की सभी कुंजियाँ अटक जाती हैं और चलती नही। साथ ही, जिस स्तंभ में त्रुटि होती है उसमें उत्तरसूचक पंजित्र (रजिस्टर) का अंक विक्षिप्त स्थिति में दिखाई पड़ता है। तब उस कुंजी को पूरा दबाकर त्रुटि दूर की जा सकती है। एक अन्य स्वत:चालित अटकाव युक्ति के कारण दवाई हुई कुंजी जब तक पूरी नहीं उठती तब तक दूसरी कुंजी नहीं दबाई जा सकती। कुछ प्रतिमानों में लंबे द्विराघात (double stroke) उत्तोलक के स्थान में शून्यकारी उत्तोलक लगा रहता है, जिसे थोड़ा ही खींचना पड़ता है, और प्रत्येक बार नई गणना के आरंभ में यंत्रचालक को पंजित्र (रजिस्टर) के मुक्त होने का पता दृश्य, श्रव्य अथवा स्पर्शानुभूत संकेतों से मिल जाता है। कुछ प्रतिमानों में संकलनमात्र को चलाने के लिए आवश्यक ऊर्जा कुंजी को दबाते ही विद्युत् द्वारा मिल जाती है।

संकलन (Adding) और सूचीकरण ( Listing) यंत्र----वैसे तो सन् १८७२ से संकलनयुक्ति के साथ मुद्रणयुक्ति का संयोजन हो गया था, किंतु प्रथम प्रायोगिक यंत्र फ़ेस्ट ने सन् १८८९ में और बरोज़ (Burroughs) ने सन् १८९२ में बनाए। अब तक बरोज़ यंत्र के सौ से अधिक विभिन्न प्रतिमान और दस लाख से अधिक यंत्र बन चुके हैं। इन यंत्रों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : (क) एकल गुणक (काउंटर) संकलन यंत्र-ऐसे कुछ यंत्रों में व्यवकलन का भी आयोजन होता है। वियोजक की स्थापना कुंजीपट्ट पर उसी प्रकार की जाती है जिस प्रकार किसी जोड़ी जानेवाली संख्या की और व्यवकलन-नियंत्रक-कुंजी के दबाने पर व्यवकलन क्रिया हो जाती है। (ख) डुप्ले और बहुगणक संकलनयंत्र-इनमें दो या अधिक गणनायंत्रों का समावेश होने के कारण कई एक ऐसी क्रियाएँ, जो एकल गणकवाले यंत्र पर अलग अलग करती पड़ती हैं, एक साथ की जा सकती हैं। (ग) बिल, लेखा, बहीखाता इत्यादि तैयार करनेवाले यंत्र-इनसे बीजक, रिपोर्ट, व्यापारप्रपत्र आदि बन जाते हैं। कुछ में संख्यात्मक गणन और अभिलेखन के साथ साथ टंकण भी होता जाता है। इस वर्ग के यंत्र अत्यंत ही परिपूर्ण और जटिल बने हैं, जिनसे स्वत: विस्तृत क्रियाओं का संपादन हो जाता है। कुछ प्रतिमानों में एक सहायक कुंजीपट्ट लगा रहता है, जिसमें नई संख्याओं को उस समय भी स्थापित किया जा सकता है जब पूर्वसंख्याओं पर क्रियाएँ की जाती हों। उपर्युक्त विशेष वर्गीरकण के अनुसार संयुक्त राज्य में निर्मित यंत्रों को निम्नलिखित समूहों में विभाजित कर सकते हैं (बड़े निर्माता, हस्तचालित और विद्युच्चालित दोनों प्रकार के, विभिन्न क्षमताओं के यंत्र बनाते हैं) : आर. सी. ऐलेन (क, ग) ; ऐलेन-वेल्स (क, ख, ग); बैरेट (क); बरोज़ (क, ख, ग); कॉरोना (क); मॉनरो (क, ख, ग); नैशनल (क, ख, ग) रेमिंग्टन (क, ग); स्विफ्ट (क); अंडरवुड संडर्स्ट्रैंड (क, ख, ग) तथा विक्टर (क) ।

सर्वाधिक सामान्य प्रकार का कुंजीपट्ट वह है जिसमें प्रत्येक कोटि के प्रत्येक अंक के लिये एक कुंजी है। इसे पूरा कुंजीपट्ट कहते हैं। एक दूसरे प्रकार के कुंजीपट्ट में कुल १० कुंजियाँ होती हैं, जो स्वत: क्रमपूर्वक विभिन्न कोटियों में अंक स्थापित करती हैं। इस कुंजीपट्ट का प्रयोग डाल्टन ने सन् १९०२ में और संडर्स्टैंड ने सन् १९१४ में किया। यदि इसमें पुनरावृत्ति की भी विशेषता हो तो दस कुंजीवाले संकलनयंत्र से गुणन भी पुनरावृत्ति संकलन के रूप में किया जा सकता है, क्योंकि प्रतिबद्ध संख्या में शून्य बढ़ाने पर संख्या एक स्थान बाईं ओर खिसक जाती है। इस प्रकार के कुछ विशेष यंत्र ऐसे विशेष नियंत्रणों से सज्जित रहते हैं, जिनसे गुणन और भाजन की क्रियाओं में सुविधा रहती हैं। दस कुंजीवाले साज का प्रयोग कुछ चलनशील वाहकवाले गणनायंत्रों में भी होता है। जैसे फ्रडेन (Friden), मैथेमैटन (Mathematon), ऐलेन, फैसिट (Facit),। सन् १९१६ में अमरीकी प्रकार के यंत्रों का निर्माण जर्मनी में भी आरंभ हुआ और वहाँ इनका बहुत विकास हुआ। संकलन यंत्रों का अन्य अनेक वाणिज्य उपकरणों में प्रयोग होता है, जैसे पतालेखक (Addressograph) में, जिससे आँकड़े छपते जाते और उनका प्रगामी योग पतालेख में बढ़ता जाता है।

रोकपंजी (Cash Register)-----सामान्य जनता के संकलनयंत्रोंवाले विभिन्न उपकरणों में सबसे अधिक सुविदित रोकपंजी है, जो प्राय: फुटकर बिक्री करनेवाले बड़े भांडारों (स्टोर्स) में प्रयुक्त होती है। ऐसे लाखों यंत्र सन् १८८४ से अब तक नैशनल कैश रजिस्टर कं., बरोज़ और ओमर (Ohmer) कॉरपोरेशन आदि निर्माताओं ने बनाए हैं। इस यंत्र के बनाने का मौलिक ध्येय फुटकर बिक्री वाले भांडारों में बेईमानी रोकना था, किंतु अब इसमें इतना विकास हो गया है कि इससे सभी प्रकार के फुटकर सौदों का स्वत: अभिलेखन हो जाता है, ग्राहकों की रसीदें बन जाती है और भांडारप्रबंध के निमित्त विविध प्रकार की विवरणात्मक सूचनाएँ मिल जाती हैं। इस यंत्र के एक संवर्धित रूप से हिसाब और लेखा-बहीखाता भी हो जाता है। सन् १९१९ से नगद रजिस्टर और संकलन तथा सूचीकरण यंत्र के संयोजनवाले यंत्र का भी निर्माण होता है, जिसमें हर सौदे पर नकद दराज खुल जाता है और संकलन तथा सूचीकरण क्रियाएँ भी साथ साथ होती रहती हैं। आवश्यकता पड़ने पर यंत्र के केवल एक भाग से भी किया जा सकता है।

सीधे (अनाश्रित) गुणनायंत्र-लेआैं बॉले (Leon Bollee) को सन् १८८७ में ऐसे यंत्र का निर्माण करने में सफलता मिली, जिसमें बिना पुनरावृत्त-संकलन-क्रिया के गुणन हो जाता है। किंतु ऐसे यंत्र कम बने, क्योंकि इसमें स्वत:चालन की बड़ी विकट समस्या उपस्थित हो जाती है। ऑटो स्टाइगर (Otto Steiger) ने सन् १८९३ में मिलियनेयर यंत्र बनाया। इसमें बॉले द्वारा आविष्कृत यांत्रिक गुणनसारणी का उपयोग होता है, जिसके चलाने से गुणक के प्रत्येक अंक के लिए चालक हत्थे का केवल एक चक्कर लगाना पड़ता है। अभिलेखक (Recorder) या वाहक को दाहिनी ओर चरम स्थिति तक हटा, गुणनोत्तोलक को गुणक के सर्वोच्च कोटि के अंक से आरंभ कर उसके एक एक अंक पर क्रमपूर्वक स्थापित किया जाता है। गुणनोत्तोलक के प्रत्येक स्थापन के उपरांत चालक हत्थे (Crank) को एक बार घुमाया जाता है और हर चक्कर के दूसरे चतुर्थांश में वाहक स्वत: बाईं ओर एक एक पग खिसक जाता है।

अन्य गुणन और भाजन मशीनें----सन् १९०० से अनेक परिष्कृत यंत्र बनने लगे हैं, जिनमें गुणन पुनरावृत्त संकलन से और भाजन पुनरावृत्त व्यवकलन से होता है। सन् १९०५ में बोस्टन नगर में बने एनसाइन नामक यंत्र में ऐसी कई विशेषताएँ थी जो आगे चलकर सामान्यता सभी यंत्रों में ग्रहण की गई--मोटरचालन, कुंजीपट्ट आयोजन, गुणन कुंजियों और स्वत: पग-वर्धित-वाहक (Automatic stepping-carriage)। इसमें नौ गुणन कुंजियाँ थीं और इनमें से एक को दबाने से कुंजीपट्ट पर स्थापित गुण्य उतनी बार जुड़ जाता था जितना अंक उस कुंजी पर होता था। मर्सेडेस युक्लिड का प्रारूप हामान (Hamann) ने सन् १९१० में बनाया। मैंडेस नामक यंत्र सन् १९०८ में एगली (Egli) ने बनाया। यह टॉमस के यंत्र से मिलता जुलता है। संकलन, व्यवकलन और गुणन सामान्य विधि के किए जाने के अतिरिक्त, इसमें ऐसी यंत्ररचना है कि भाज्य और भाजक की स्थापना करने पर स्वत भाजनक्रिया हो जाती है और घंटी बजने की भागफल और शेष के अभिलेखन की सूचना मिल जाती है। सन् १९११ में मॉनरो यंत्र का प्रचार हुआ जो कुंजीपट्टवाला प्रथम घूर्णनशील (rotary) यंत्र था। ऑढनर जैसे (जैसे १९११ वाले माचैंट के यंत्र के अतिरिक्त) अनेक प्रकार के कुंजीपट्टवाले विद्युत्संचालित प्रतिमान, जिनमें स्वत:चालित विविध विशेषताएँ भी होती हैं, बन गए हैं। ये प्रति मिनट १,३५० चक्कर तक लगा लेनेवाले हैं। यूनाइटेड लिस्टिंग माल्टिप्लायर ऐंड कैल्क्युलेटर से, जो सन् १९२६ में बना, दो संख्याओं का गुणनफल ज्ञात हो जाता था और दोनों संख्याएँ छप जाती थीं। इसी प्रकार का सन् १९३२ में बना इंटरनैशनल मल्टिप्लायर था।

रिले (Relay) और इलेक्ट्रनीय गणक----अब तक के वर्णित यंत्रों के आधार ऐसे संकलनकारी यंत्र हैं जिनमें जोड़नेवाले चक्र रहते हैं। किंतु इन चक्रों के स्थान में इलेक्ट्रो-यांत्रिकीय योजन और इलेक्ट्रान नली का भी प्रयोग किया जा सकता है। इंटरनैशनल और बेल टेलिफोन लेबॉरेटरीज़ ने बृहत् रूप से योजनायंत्रों के जालों का प्रयोग किया है। उनके एक यंत्र में २०० योजनायंत्र हैं और उससे प्रति घंटे छह अंकवाले १२,००० गुणनफल ज्ञात किए जा सकते है। इलेक्ट्रान नली का क्रिया काल का सेकेंड का दस लाखवाँ भाग होने के कारण यह तीव्र गति गणकों के लिए अत्यंत उपादेय है। इस प्रकार के यंत्र द्वितीय विश्वयुद्ध में बने और उनके रहस्य अभी जनता को उपलब्ध नहीं है।

छिद्रित पत्रक (Punched card) यंत्र-----सन् १८९० की संयुक्त राज्य (अमरीका) की जनगणना से संबंधित विपुल सामग्री का सांख्यिकीय विश्लेषण करने के लिये होलेरिथ (Hollerith) नामक प्रणाली का आविष्कार हुआ। इसका उपयोग सन् १९११ की ब्रिटिश जनगणना में होने के कारण, इसमें कई वाणिज्योपयोगी सुधार भी हो गए। इस प्रणाली का आधार ८x३ का जैकार्ड (Jacquard) पत्रक है, जिसपर छिद्रों द्वारा सूचना का अभिलेखन होता है। इस पत्रक पर लंबाई के अनुदिश बारह बारह छिद्रों के स्तंभ होते हैं। पहले दस छिद्र शून्य से नौ तक के अंकों के लिये और शेष परिचालन (operational) नियंत्रणों, जैसे धन और ऋण के लिए रहते हैं। एक स्तंभ के दो छिद्रों के संयोजन से एक अक्षर निरूपित होता है। पहले न्यास (data) का पत्रकों पर अभिलेखन होता है। ये पत्रक जब विभिन्न यंत्रों में होकर जाते है तो अभीष्ट क्रियाएँ प्रत्येक पत्रक पर स्वत: होती हैं और बड़े वेग के साथ, लगभग ४०० पत्रक प्रति मिनट का चयन होता जाता है। इंटरनैशनल यंत्रों में छिद्रों द्वारा किए गए विद्युत् संपर्कों की सहायता से पत्रक पढ़े जाते हैं और यंत्र के संकलन पहिए, मुद्रणदंड आदि, विविध अंग विद्युच्चुंबकों द्वारा नियंत्रित होते हैं।

अंतर और वैश्लेषिक यंत्र (Difference and Analytical Engines)-----सन् १८१२ में चार्ल्स बैवेज (सन् १७९२-१८७१) ने ऐसा गणनायंत्र बनाने का विचार किया जिससे लघुगणक जैसी गणितीय सारणियाँ बनकर छप सकें। इस यंत्र का सिद्धांत अंतरविधि पर आश्रित था और इस कारण इसे अंनियंत्र कहा गया। प्रत्येक बाहुपद के किसी न किसी कोटिवाले अंतर अचल हो जाते हैं (कलन, परिमित अंतरों का नामक लेख देखें)। अत: इन अचर अंतरों के क्रमिक संकलन से अभीष्ट सारणीयन किया जा सकता है। इस यंत्र को बनाने के लिए ब्रिटिश शासन से इन्हें आर्थिक सहायता भी मिली और सन् १८३३ में उसका कुछ अंश संयोजित कर प्रदर्शित भी किया गया, किंतु अंत में वैश्लेषिक यंत्र की सूझ के कारण अंतरयंत्र बनाने का विचार छोड़ देना पड़ा। विश्लेषी यंत्र का उद्देश्य किसी भी गणितीय सूत्र का स्वत: गणना करना था और जैकार्ड के छिद्रित पत्रकों का प्रयोग कने का विचार भी बैवेज का था, किंतु इसमें भी उसे असफलता मिली। सन् १८३४ से १८५३ तक स्टॉकहोम (Stockholm) के श्यूज़ (Scheutz) और उसके पुत्र एडवर्ड ने एक अन्य अंतरयंत्र का प्रतिमान (model) बनाया। ऐसे प्रतिमान अन्य व्यक्तियों ने भी बनाए, किंतु वाणिज्य के कार्यों के लिए विश्वसनीय गणनायंत्रों का निर्माण हो जाने के कारण ध्यान उन्हीं की ओर आकर्षित रहा। कई देशों में बैवेज के विचारों का उपयोग कर भीमकाय स्वत:चालित गणक यंत्र बन गए हैं, जिनसे अवकल समीकरण तक हल हो जाते हैं।

अनांकी (Non-digital) यंत्र-----पूर्वोक्त यंत्रों में आधारभूत क्रिया असतत (discreet) एककों के गिनने की थी। इसलिए इन्हें अंकी यंत्र कहते हैं। गणक यंत्रों का बड़ा वर्ग ऐसा है जिसका कार्य गिनती के स्थान में मापों से संबंधित है, जैसे लंबाई, कोण, विद्युतद्वारा, द्रवस्थितीय दाब इत्यादि को सम्मिलित करना या नापना। जितनी यथार्थता से मापन किया जाता है उतना ही यथार्थ परिणाम इन यंत्रों से मिलता है। इनमें से कई का वर्णन गणितीय उपकर्णिकाएँ नामक लेख में दिया है। अधिकांश में ये उपकर्णिकाएँ किसी समस्याविशेष, या समस्यावर्ग, के हल के निमित्त बनाई गई हैं। इनमें सृप रेखनी (Slide rule) सामान्य अभिगणना के लिए अंकगणितीय उपकर्णिका है।

स्लाइड रूल (Slide rule, सृप रेखक)-परिमित यथार्थता की गणना करने के लिये एक सुगठित युक्ति लघुगणक स्लाइड रूल है। सन् १६१४ में जॉन नेपियर द्वारा लघुगणकों के आविष्कार ने और लघुगणक सारणियों की अभिगणना तथा उनके प्रकाशन ने, सरलतर संकलन और व्यवकलन की क्रियाओं द्वारा, गुणन और भाजन की क्रियाओं को संभव कर दिया (लघुगणक शीर्षक लेख देखें)। इस विधि का उपयोग कर एडमंड गुंटर (Edmund Guntur) ने दो फुट लंबे ऋजु रेखक (Rule) पर लघुगणक अंकित किए और इसपर घटाकर लंबाइयों को एक विभागिनी (a pair of dividers) द्वारा जोड़ और घटाकर गुणन और भाजन की क्रियाएँ संपन्न कीं। विलियम आटरेड (Oughtred) ने सन् १६२१ में ही दो गुंटर रेखाओं को एक दूसरे पर सरकने योग्य बनाकर विभागिनी की आवश्यकता न रहने दी। ये रेखाएँ ऋजु और वृत्तीय दोनों आकारों से प्रयुक्त होने लगीं। तब से निरंतर इसकी प्ररचना (डिज़ाइन) में अभिगणना की यथार्थता, द्रुति, उपयोग की सुविधा आदि के दृष्टिकोण से सुधार होते रहे। इसमें सृप लेखक (Cursor) का प्रयोग सन् १८५० से होने लगा और सन् १८८६ से पारदर्शी सेल्यूलाइड पर अंक बनाए जाने लगे, जिससे पढ़ने में अत्यंत सुविधा हो गई। वर्तमान युग में बनाए जानेवाले अधिकांश स्लाइड रूलों में मापनी व्यवस्था मैनहैम (Mannheim) के रेखक (Rule) की भाँति होती है। सर्पी भाग (Slider) की पीठ पर ज्या, स्पर्श और समान भागों की मापनियाँ रहती हैं। स्कंध (Stock) के मुखपृष्ठवाली मापनी के साथ इन्हें प्रयुक्त करने से क्रमानुसार ज्याएँ, स्पर्शियाँ और लघुगुणक पढ़े जा सकते हैं।

संगणना में एक और सार्थक अंक की यथार्थता लाने के लिए लघुगणकीय मापनी की लंबाई १० गुनी बढ़ानी होगी। ऐसी मापनियों की लंबाई अत्यधिक न बढ़ने देने के उद्देश्य से चार विभिन्न प्रकार की रचनाओं का उद्विकास हुआ है : (क) चपटा सर्पिल रूप (Flat spiral form), (ख) बेलनाकार कुंडलिनी (Cylinderical helix), (ग) चपटी झँझरी (Gridiron) के आकार की तथा (घ) बेलनाकार झँझरी सदृश। अंतिम दो प्रकारों में समांतर पट्टियाँ रहती हैं। सन् १८१५ में रोजे (Roget) ने लघु-लघु (log-log) स्लाइड रूल बनाया। जिससे संख्याओं का मूलन (evolution) और घातन (involution) दोनों हो सकते हैं। इसमें स्थिर मापनी पर अंकित लंबाइयाँ लघुगणक के लघुगणक की समानुपाती होती हैं और सृप मापनी लघुगणकीयत: विभाजित होती है। इस नए अंकन द्वारा सदृश पद (expression) का मान उसी यांत्रिक प्रक्रिया द्वारा प्राप्त किया जा सकता है जिससे साधारण सृप रेखनी पर रय का। चूँकि लघु र य या र, लघु (लघु र) =लघु य +लघु लघु रय। अत: यदि सर्पी (Slider) पर विभाजन अंक स्थिर मापनी अंक र से सटा दिया जाए, तो सर्पीवाले अंक य से सटा हुआ र का मान स्थिर भाग पर पढ़ा जा सकता है। इस प्रकार चक्रवृद्धि ब्याज, जनसंख्यावृद्धि, आदि के प्रश्न केवल निरीक्षण से हल हो जाते हैं। लघु-लघु-मापनियाँ भी विविध प्रकार की और अनेक सुविधाओंवाली बनी हैं।

विज्ञान, इंजीनियरी और वाणिज्य के अनेक क्षेत्रों के लिए विशेषोपयुक्त सर्पी मापनियाँ प्रचलित हैं। इनमें से कुछ वणिग्वर्ग, विद्युत्कारों, वैद्युत् इंजीनियरों, रेडियो इंजीनियरों, सर्वेक्षकों आदि के लिये भी है। सब से अधिक प्रचलित, विशेषोपयुक्त मापनी नौपरिवहन अभिगणना के लिए वृत्तीय प्रकारवाली है जिससे ताप के अनुसार निर्देशित पवनवेग में संशोधन किया जा सकता है। यह उड़ाकों के लिए अत्यंत उपयोगी होती है और सुलभ भी है।

सं. ग्र.-एच. पी. बैवेज : बैवेजेज़ कैल्क्युलेटिंग एंजिन्स (१८८९); एफ. केजोरी : ए हिस्ट्री ऑव द लोगैरिथ्मिक स्लाइड रूल; ई. एम. होर्सबर्ग : हैंडबुक ऑव द एग्ज़िबिशन ऐट द नेपियर टरसेंटिनरी सेलिब्रेशन (१९१४); जे. ए. वी. टर्क : ओरिजिन ऑव माडर्न कैल्क्युलेटिंग मशीन्स (शिकैगो, १९२१), ई. एम. होर्सबर्ग : कैल्क्युलेटिंग मशीन्स; ग्लेजब्रुक्स डिक्शनरी ऑव ऐप्लाइड फिज़िक्स (१९२३); डी. वैक्सैंडॉल : मैथेमैटिक्स १म, कैल्क्युलेटिंग मशीन्स ऐंड इंस्ट्रुमेंट्स (एच. एम. स्टेशनरी ऑफिस, १९२६); एल. जे. कॉमरी : ऑन दि ऐप्लिकेशन ऑव दे ब्रुंसविगाडुप्ले कैल्क्युलेटिंग मशीन टु डबल समेशन विद फाइनाइट डिफ़रेंसेज़; मंथली नोटिसेज़ ऑव द रायल ऐस्ट्रोनॉमिकल सोसा., खंड ८८ (१९२८), पृ० ४४७-४५९। (हरिशचंद्र गुप्त)