गज़ल अरबी काव्यशास्र की शैली विशेष का नाम। यह शैली अरबी से फारसी में अपनाई गई और वहाँ से उर्दू में आई। अब तो अन्य भारतीय भाषा के कवि भी इस शैली में कभी कदा अपनी रचना करते हैं। मराठी में यह विशेष रूप से ग्रहण की गई है।

गज़ल वस्तुत: पाँच से स्तर शेरों (छंदों) के संग्रह को कहते हैं। किंतु उर्दू में छंदों की संख्या का कोई प्रतिबंध नहीं है। इसका प्रत्येक शेर (छंद) अपने अर्थ और भाव की दृष्टि से अपने आपमें पूर्ण होता है। इसके प्रत्येक शेर में समान विस्तार की दो पंक्तियाँ या टुकड़े होते हैं जिन्हें मिसरा कहते हैं। गज़ल के प्रत्येक शेर के अंत का शब्द प्राय: एक सा ही होता है और रदीफ कहलाता है और तुक व्यक्त करनेवाला शब्द काफिया कहा जाता है।

गज़ल का शाब्दिक अर्थ प्रेमालाप है। इस प्रकार यह शृंगार प्रधान काव्य शैली है। इसमें मुख्यत: प्रेम भावनाओं का चित्र होता रहा है। किंतु इसमें लौकिक प्रेम के अतिरिक्त तसव्वुफ अर्थात् भक्तिपरक रचनाएँ भी की जाती रही हैं। अनेक सूफी कवियों ने इस रंग में गज़लें लिखी हैं। तसव्वुफ में भगवान् तक पहुँचने के लिए प्रेम के प्रतीक की आवश्यकता होती है किंतु वह ऐसा प्रेम हो जिसमें वासना की गंध न हो अत: उन्होंने प्रेम प्रतीक लड़कों को बनाया। इसी प्रभाव से फारसी और उर्दू गज़लों की परंपरा में प्रेयसी के लिये सर्वदा पुल्लिंग का प्रयोग किया जाता रहा है भले ही अन्य प्रकार से उसके नारीत्व का बोध होता हो। गज़ल में इन दो प्रकार के प्रेम के अतिरिक्त अन्य भाँति के प्रेम से संबंधित रचनाएँ की जाती रही हैं। किंतु इन सभी में शायर प्रतीकों का ही प्रयोग करता है : उदाहरणार्थ, गज़ल में प्रयुक्त चमन शब्द विषयानुसार कहीं अपने देश का बोधक है तो कहीं घर, गाँव आदि का। इसी प्रकार गज़ल में प्रयुक्त होनेवाले अन्य प्रतीकात्मक शब्द हैं---गल, आशियाँ, सैयाद, बागबान, साकी, खंजूर, शमशीर, रकीब अदि। इनका प्रयोग कवि उसके शाब्दिक अर्थ में नहीं करता वरन् उनके भाव कोग्रहण कर जीवन के विविध पहलुओं पर अपना मंतव्य व्यक्त करता है।

उत्तर भारत में ख्वाजा मुईनद्दीन चिश्ती ने पहले पहल फारसी और भारतीय भाषा में गज़ल की रचना की। इसी प्रकार दक्षिण भारत के प्रथम गज़ल रचयिता बीजापुर नरेश इब्राहीम अली आदिलशाह कहे जाते हैं। उनके बाद मुहम्मद कुली कुतुबशाह का नाम लिया जाता है। किंतु उर्दू में इसे सबसे अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इसका मुख्य कारण मुशायरे (कवि सम्मेलनों) के माध्यम से उसका प्रचार है।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद से ही उत्तर भारत में गज़ल मिलने लगता है। फायज़ उत्तर भारत के पहले साहबे-दीवान शायर हैं। साहबे-दीवान शायर वह कवि कहा जाता है जिसके दीवान (काव्यसंग्रह) में कम से कम एक गज़ल प्रत्येक अक्षर की रदीफ में हो। फायज़ के अलावा उस काल के अन्य प्रख्यात गज़ल-गो हैं शाह हातिम, शाह मुबारक आबरू और मुहम्मद शाकिरनाजी। अठारहवीं शती के दूसरे चरण में उर्दू गज़ल ने काफी उन्नति की। मीर तकी मीर इसी काल के गज़ल-गो हैं। इनके अतिरिक्त सौदा और मीर दर्द अन्य प्रख्यात गज़ल लिखनेवाले हुए हैं। इंशा, मुसहफी, नासिख, आतिश उन्हीं की परंपरा के कवि हैं। उनके बाद मौमिन, जौक और गालिब का नाम लिया जाता है। हाली, दाग अमीर मीनाई और जलाल उसी परंपरा में पीछे आते हैं। बीसवीं शती के प्रख्यात गज़ल लेखक हसरत, फानी, असर लखनवी, जिगर, फिराक गोरखपुरी उल्लेखनीय हैं।

हिंदी कवियों में सर्वप्रथम भारतेंदु हरिश्चंद्र ने गज़ल लिखने का प्रयास किया। प्रसाद जी की भूल शीर्षक कविता गज़ल शैली में लिखी गई है। निराला ने भी गज़ल शैली अपनाई थी। अब तो अनेक हिंदी कवि इस शैली में लिखते हैं। (परमेश्वरीलाल गुप्त)