गजपति उड़ीसा का एक प्रख्यात राजवंश। इस वंश की स्थापना १४३४-३५ ई. में कपिलेंद्र नामक व्यक्ति ने की थी। गंगवंश के नरेश भानुदेव की अनुपस्थिति में वह राज्य हस्तगत कर स्वयं शासक बन बैठा था। वह अपने समय का सबसे शक्तिशाली हिंदू राजा था। उसके शासनकाल में उड़ीसा में गंगा से लेकर दक्षिण में कावेरी तक अपना राज्य फैला लिया था। किंतु वह महान् सैनिक ही था, उसमें राजनीतिक चातुरी का अभाव था। वह समय की राजनीतिक आश्यकताओं का परख न सका। वह कृष्णा नदी को पार कर कोंडविद्रु तक बढ़ता गया। बंगाल के सुलतानों के विरुद्ध भी उसने सफल अभियान किए और पश्चिमी बंगाल की कुछ भूमि और हुगली जिले में स्थित मांदारन दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसके शासनकाल में जौनपुर के सुलतानों ने उड़ीसा को दो बार लूटने का प्रयास किया। कहा जाता है कि १४४४-४५ ई. में सुलतान महमूद शाह उड़ीसा के मंदिरों को नष्ट कर उनका बहुत सा धन लूटकर ले गया। इसी प्रकार शासक होते ही सुलतान हुसेन शाह ने भी उड़ीसा के विरुद्ध अपनी सेना भेजी। कपिलेंद्र उसका मुकाबिला न कर सका और उसे वैसा धन देकर संतुष्ट किया। बहमनी सुलतानों के साथ भी तेलंगाना गंधर्वदेश कपिलेंद्र की निरंतर झड़प होती रही पर बहमनी सेना उसकी विशेष क्षति न था कर पाई। बहमनी सुलतान के साथ वास्तविक गंभीर युद्ध १४५६ देश हुआ। उस समय बहमनी सुलतान से विद्रोह कर उसके दो सरदार तैंलगाना के राजा वेलम की शरण में आए। बहमली सुलतान की सेना ने बहुत निकट के दुर्ग देवरकोंड को घेर लिया। कपिलेंद्र ने वेलम की सहायता की थी अपने पुत्र हंवीर के नेतृत्व में सेना भेजी। बहमनी सेना के ६-७ घुड़सवार मारे गए। हंवीर ने आगे बढ़कर वारंगल पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पुन: बहमनी नरेश हुमायूँ शाह के मरने पर आठ वर्ष की अवस्था में निजाम शाह गद्दी पर बैठा तब कपिलेंद्र ने बहमनी राज्य में राजधानी से दस मील तक घुसकर उसके राज्य को खूब लूटा। किंतु इस बार बहमनी सेना उसे भगाने में सफल रही। तदनंतर कपिलेंद्र की सेना ने तमिल देश के तटवर्ती प्रदेश पर अधिकर करने का प्रयास किया। उसका पुत्र हंवीर उदयगिरि, चंद्रागिरि और कांची पर अधिकार करते हुए कावेरी तट तक पहुँच गया। उसने इन प्रदेशों पर स्थायी अधिकार करने की चेष्टा की पर इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। १४६७ में कपिलेंद्र की मृत्यु हो गई।

मरने के पूर्व कपिलेंद्र ने अपने दूसरे बेटे पूरुषोत्तम को राज्याधिकारी घोषित कर दिया था। इससे उसका भाई हंवीर बहुत क्षुब्ध हुआ। वह बहमनी सुलतान से जा मिला और उनसे राज्य वापस पाने का आश्वासन पाकर उनकी ओर से राजमहेंद्री और कोंडविड के प्रांत विजित किए। किंतु इस विजय के बाद ही बहमनी सुलतान हंवीर की ओर से उदासीन हो गए। तब हंवीर ने पुरुषोत्तम से संधि करने की चेष्टा की और उसकी ओर से राजमहेंद्री पर अधिकार करने की चेष्टा की। बहमनी सेना ने उसके प्रयत्न को न केवल विफल कर दिया वरन् वह उसे खदेड़ती हुई उड़ीसा में घुस आई। विवश होकर पुरुषोत्तम को बहमनी सुलतान से संधि करनी पड़ी और अनेक बहुमूल्य हाथी भेंट करने पड़े। किंतु शीघ्र ही बहमनी वंश को ्ह्रासोन्मुख पाकर पुरुषोत्तम ने उदयगिरि हस्तगत कर लिया। १४९७ ई. में उसकी मृत्यु हुई।

पुरुषोत्तम के बाद उसका बेटा प्रतापरुद्र राजा बना। राजा होने के पश्चात् उसने दक्षिण विजय करने की चेष्टा की। जब अपने इस अभियान में १५०९-१० ई. में वह दक्षिण की ओर गया हुआ था, बंगाल सुलतान हुसेन शाह ने उड़ीसा पर धावा किया और जगन्नाथपुरी की मूर्तियाँ नष्टभ्रष्ट कर डालीं। खबर पाकर पुरुषोत्तम दौड़ा आया और हुसेन शाह की सेना को मांदरान के किले में जा घेरा। किंतु अपने ही सेनापति गोविंद विद्याधर के विश्वासघात के कारण उसे हुसेन शाह से संधि कर लेनी पड़ी।

१५१३ ई. में विजयनगर नरेश ने गजपति राज्य पर आक्रमण किया। निदान पुरुषोत्तम और कृष्णदेव राय के बीच निरंतर युद्ध होता रहा। १५१५ ई. में विजयनगर की सेना ने उड़ीसा के कई राजकुमारों तथा पुरुषोत्तम की एक पत्नी और एक पुत्र को बंदी बना लिया। फिर भी युद्ध कई बरसों तक चला। अंत में १५१९ ई. में बार बार की पराजय और सेना के ्ह्रास के साथ साथ अन्य अनेक कारणों से पुरुषोत्तम को संधि करने पर विवश होना पड़ा। इस संधि के फलस्वरूप पुरुषोत्तम को कृष्णा नदी के दक्षिण का सारा भूभाग छोड़ना पड़ा तथा अपनी बेटी का विवाह कृष्णदेव राय के साथ करना पड़ा। यह विवाह सुखकर न हो सका। गजपति राजकुमारी की कृष्णदेव राय ने बहुत उपेक्षा की। अत: कृष्णदेव राय के मरने पर पुरुषोत्तम ने विजयनगर पर आक्रमण कर प्रतिशोध लेने का प्रयास किया पर सफल न हो सका। विजयनगर के साथ अपमानजनक संधि के बाद ही बहमनी नरेश की ओर से कुतुब-उल-मुल्क ने कृष्णा-गोदावरी का सारा भूभाग हस्तगत कर लिया। १५४० ई. में प्रतापरुद्र की मृत्यु हुई।

इस प्रकार प्रतापरुद्र का शासन काल, सैनिक और राजनीतिक दोनों ही दृष्टि से, बड़ा ही दयनीय रहा तथापि उसका राज्य विस्तार उतना तो अवश्य बना रहा जितना कि उसके पूर्वजों ने गंगों से हस्तगत किया था। किंतु उसके मरते ही गजपति वंश का सूर्यास्त होने लगा। उसके बेटे कालुआ देव की, एक वर्ष के शासन के पश्चात् ही, गोविंद विद्याधर ने, जिसके विश्वासघात का पहले उल्लेख हो चुका है, हत्या कर दी। तब उसका भाई करवारुआ देव गद्दी पर बैठा किंतु तीन मास बाद वह भी गोविंद विद्याधर के हाथों मारा गया और गजपति वंश का अंत हो गया।

प्रतापरुद्ध के राजनीतिक जीवन के संबंध में चाहें जो भी कहा जाए, भारत के धार्मिक इतिहास में उसका अपना एक विशेष महत्व है। चैतन्य महाप्रभु के साथ उसकी निकट घनिष्ठता थी और महाप्रभु ने पुरी में सत्तर वर्ष व्यतीत किए थे। (परमेश्वरीलाल गुप्त)