गजनी, महमूद गजनी का प्रख्यात शासक जिसने भारत पर सत्तरह बार आक्रमण किए थे। यह गजनी के सुलतान सुबुक्तगीन की एक दासी का पुत्र था और ९१७ ई. में उसके मरने पर गजनी का शासक बना। शासक होते ही उसने अपने राज्य का विस्तार आरंभ किया और खुरासान तक का भू भाग अपने राज्य में मिला लिया। उसकी सत्ता को अब्बासी खलीफा ने भी स्वीकार कर लिया। तदनंतर उसने १००१ ई. से भारत पर आक्रमण करना आरंभ किया और १०३० ई. के बीच निरंतर आक्रमण करता रहा। उसके इन सभी आक्रमणों का उद्देश्य राज्य विस्तार न होकर धन लूटना और कदाचित् इस्लाम धर्म का विस्तार करना था। पहले आक्रमण का सफल प्रतिरांध तत्कालीन साही नरेश जयपाल ने किया। जब भी वह आक्रमण करता जयपाल उसके आड़े आता। जब १००९ ई. में उसने भारत पर आक्रमण किया उस समय जयपाल का पुत्र अनंगपाल शासक था। उसने उसके प्रतिरोध के लिये भारत के अनेक राजाओं को संगठित किया। पेशावर के पास भटिंडा में महमूद की सेना पर उसने अचानक धावा बोल दिया। महमूद के हजारों सिपाही अपनी इस विजय के उन्माद में असावधान हो गए। आनंदपाल के हाथी को एक तीर आकर लगा और वह भाग निकला। इससे भारतीय सेना में भगदड़ मच गई। इस परिस्थिति का लाभ महमूद ने उठाया और बीस हजार भारतीय सैनिक मारे गए। यह महमूद की भारत में पहली विजय थी। उसने नगरकोट पर धावा कर उसे तथा वहाँ के मंदिर को लूटा और उसके हाथ अपार संपति लगी।

उसके बाद तो जब जब महमूद ने भारत पर आक्रमण किया कोई उसके प्रतिकार का साहस न कर सका। १०१८ ई. तक तो उसके आक्रमण पंजाब तक ही सीमित रहे। १०१९ में उसने कन्नौज तक धावा किया और वहाँ भयंकर लूटपाट की। इसी के साथ उसने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया और लाहौर का नामकरण महमूदपुर किया। इस अवसर पर उसने वहाँ से अपने नाम के सिक्के प्रचलित किए जिसमें उसने अपने आक्रमण को जिहाद की संज्ञा दी है।

१०२५ ई. में उसने सोमनाथ पर आक्रमण किया। उस समय वहाँ चालुक्यवंशी भीम (प्रथम) शासक था। वह महमूद का आगमन सुनते ही भाग खड़ा हुआ। सोमनाथ के मंदिर के लूट में उसे इतना धन प्राप्त हुआ जितना उसे सभी लूटों में मिलाकर भी नहीं मिला था। १०३० ई. में महमूद की मृत्यु हुई।

महमूद शूर, साहसी और कुशल सेनानी था। भारत की दृष्टि से वह अत्यंत क्रूर और लूटेरा था किंतु जितना अत्याचार उसने भारतीयों पर किया उससे कम अत्याचार उसने अपने सहधर्मी शत्रुओं पर नहीं किया। इसके साथ ही वह विद्या और काव्य का प्रेमी था। उसने गजनी में एक विशाल विद्यालय की स्थापना की थी। प्रति वर्ष विद्याप्रसार के लिए काफी धन खर्च करता था। प्रख्यात विद्वान् और इतिहासकार अलबेरूनी उसके दरबारी थे। उसने अपने जीवन के अंतिम दिनों में कुछ ऐसे सिक्कों प्रचलित किए जिनपर एक ओर नागरी लिपि और संस्कृत भाषा में कलिमा का अनुवाद अंकित है। इस अनुवाद में ईश्वर की मुस्लिम अवधारण को बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया जाता है। यह उसकी बदली हुई भावना का प्रतीक है।

वह अपने साथ अनेक कुशल शिल्पी गजनी ले गया था। उनसे उसने अनेक सुंदर भवन निर्माण कराए थे।

उसके आक्रमण के कारण जो नरसंहार और अपार संपति का विनाश हुआ उससे भारत पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा किंतु उसके आक्रमण का भयंकर परिणाम यह हुआ कि भारत का द्वार मुस्लिम आक्रामकों के लिए खुल गया। (परमेश्वरीलाल गुप्त)