गंगवंश (पूर्वी) यह राजवंश उड़ीसा में शासन करता था। अनुमान है कि यह वंश गंगवाड़ी (कर्णाटक) के राजवंश की ही कोई शाखा होगी पर इस अनुमान के लिए कोई स्पष्ट आधार नहीं है। इस वंश का संस्थापक महाराज इंद्रवर्मन (प्रथम) था। वह अपने को त्रिकलिंगाधिपति कहता है। इसने अपने शासन पत्रों में अपने राजवर्ष का प्रयोग किया है। उसी क्रम में उसके उत्तराधिकारियों ने भी अपने शासन पत्रों में तिथि अंकन किया; फलस्वरूप उनमें अंकित वर्ष को गंग संवत् के नाम से अभिहित किया जाने लगा। इस संवत् का प्रथम वर्ष ४९६-४९ ई. के बीच अनुमान किया जाता है। महाराज इंद्रवर्मन के शासन पत्र ३९वें वर्ष तक के प्राप्त होते हैं। उसके ६४वें वर्ष का महासामंतवर्मन का शासन पत्र मिलता है। अत: यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि महासामंतवर्मन इंद्रवर्मन का तत्कालिक उत्तराधिकारी था अथवा उसके पूर्व इंद्रवर्मन के बाद कोई अन्य शासक भी रहा।
तदनंतर ७९वें वर्ष का महाराज हस्तिवर्मन का शासन पत्र उपलब्ध है। वह राजसिंह और रणजीत कहा जाता था। उसके बाद महाराज इंद्रवर्मन (द्वितीय) राजसिंह के ८७वें और ९१वें वर्ष के बीच के शासन प्राप्त होते हैं। इंद्रवर्मन द्वितीय के बाद कदाचित इंद्रवर्मन (तृतीय) हुआ। उसका अद्यतन ज्ञात शासन १२८वें वर्ष का है। समझा जाता है कि यही मित्रवर्मन का पुत्र इंद्राधिराज है जिसने विष्णु कुंडिन वंश के इंद्र भट्टारक को पराजित किया था। किंतु यह अनुमान विवादास्पद है।
इंद्रवर्मन तृतीय के बाद दानार्णवपुत्र महाराज इंद्रवर्मन चतुर्थ हुआ। इसकी अंतिम ज्ञात तिथि १४५६५० ई. है। तनदंतर गुणार्णव पुत्र परममाहेश्वर महाराज देवेंद्रवर्मन का नाम ज्ञात होता है। उसका कहना था कि उसने समस्त कलिंग का अधिकार अपनी शक्ति से प्राप्त किया। इसके बाद दसवीं सदी तक इस वंश में क्रमश: महाराज अनंतवर्मन, महाराज नंदवर्मन, देवेंद्रवर्मन द्वितीय, अनंतवर्मन द्वितीय, देवेंद्रवर्मन तृतीय, राजेंद्रवर्मन द्वितीय, सत्यवर्मन, अनंतवर्मन तृतीय, भूपेंद्रवर्मन मारसिंह, देवेंद्रवर्मन चतुर्थ शासक हुए। इन सबके शासन पत्र उपलब्ध होते हैं। और उनसे उत्तराधिकार परंपरा का परिचय मिलता है।
नवीं शती में पूर्वी चालुक्य नरेश विजयादित्य तृतीय (८४४-८९२) ने इन गंग राजाओं का ऐश्वर्य बलात् छीन कर उन्हें अपना करद बना लिया था। दसवीं शती में कदाचित यह वंश खंडित होकर पाँच भागों में बँट गया था। तदनंतर गंगवंश का पुनरुत्थान ग्यारहवीं शती (१०३८ ई.) में वज्रहस्त अनंतवर्मन के समय में हुआ। उसने खंडित पाँचों शाखाओं का पुन: एकीकरण किया। उनके इस उत्थान के मूल में कदाचित राजराज चोल (९८५-१०१६ ई.) का कलिंग के विरु द्ध अभियान है। उसने १००३ ई. के लगभग कलिंग विजय किया था। उस समय लगता है गंगवंशीय शासक चोलों के मित्र बन गए और चोल नरेश के संरक्षण में उन्होंने शक्ति प्राप्त की तथा चोलों के साथ विवाह संबंध स्थापित किए। वज्रहस्त के समय कलचुरि नरेश कर्ण ने कलिंग पर आक्रमण किया था।
वज्रहस्त के बाद उसका पुत्र राजराज प्रथम देवेंद्रवर्मन शासक हुआ। उसने आंध्र के पदच्युत नरेश विजयादित्य (सप्तम) को शरण देकर कोलुत्तुंग चोल प्रथम को रुष्ट कर दिया जिसने तत्काल अपने पुत्र मुम्मणि चोल को सेना सहित गंग नरेश को सबक सिखाने भेजा। राजराज ने इस चोल आक्रमण को असफल कर दिया और सोमवंशियों की गंभीर राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर अपने राज्य के विस्तार का प्रयास किया। राजराज (प्रथम) के पश्चात अनंतवर्मन चोलगंग १०७८ ई. में शासक हुआ। वह महादेवी राजसुंदरी के गर्भ से, जो कोलुत्तुंग प्रथम की पुत्री थी, उत्पन्न राजराज का पुत्र था।
अनंत वर्मन चोलगंग के शासन के प्रथम चरण में कोलुत्तुंग चोल प्रथम ने अपने सेनापति करु णाकर के नेतृत्व में कलिंग के विरु द्ध एक घड़ी सेना भेजी। अनंतवर्मन चोल सेना का प्रतिरोध न कर सका और उसकी स्थिति अत्यंत विषम हो गई किंतु उसने साहस नहीं खोया और कुछ ही दिनों के भीतर उसने न केवल अपना खोया राज्य ही प्राप्त कर लिया वरन् चोलों से विशाखापत्तन का भूभाग भी छीन लिया। तदनंतर उसने आंध्र देश पर आक्रमण कर गोदावरी तट तक अपने राज्य की सीमा बढ़ा ली। उसने पूर्व में भी अपनी सीमा का विस्तार किया और कुछ ही दिनों में सारा उत्कल उसके अधीन हो गया। तब वह दक्षिण बंगाल की ओर बढ़ा और उसके राज्य का विस्तार गंगा तट से गोदावरी तट तक फैल गया। उसने उत्तर की ओर भी बढ़ने का प्रयास किया पर उस और वह सफल न हो सका। अनंतवर्मन ने पुरी में जगन्नाथ का मंदिर बनाया था। उसके शासन काल में शतानंद ने ज्योतिष ग्रंथ भास्वती की रचना की थी।
अनंतवर्मन के पश्चात कामार्णव और फिर उसका सौतेला भाई राघव (११५७-११७० ई.) शासक हुआ। राघव के शासन काल में दक्षिण बंगाल से गंगों का प्रभुत्व समाप्त हो गया। राघव के पश्चात क्रम से उसके दो सौतले भाई राजराज द्वितीय (११७१-११९२) और अनंग भीम द्वितीय फिर अनंगभीम का पुत्र राजराज तृतीय (१२०५-१२०६ ई.) शासक हुए। राजराज के समय उड़ीसा पर आक्रमण होना आरंभ हुआ। पर उसने तथा उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अनंगभीम तृतीय ने सफलतापूर्वक उनका प्रतिरोध किया। अनंगभीम के बाद नरसिंह प्रथम १२३८ ई. में शासक बना। उसका शासन काल उड़ीसा के इतिहास का गौरवशाली अध्याय है। उसने मुसलमान शासकों के आक्रमणों के प्रतिरोध की अपेक्षा उन पर सीधे आक्रमण करने की नीति अपनाई। उसने १२४३ ई. में सेना भेजकर लखनावती को विध्वंस किया और लखनौर पर अधिकार कर राढ़ (दक्षिण बंगाल) में मुस्लिम शासन का अंत कर दिया। फिर वारेंद्र (उत्तरी बंगाल) की ओर बढ़ा। पर दिल्ली सुल्तान की ओर से सेना आ जाने के कारण वह रु क गया। अंतिम दिनों में वह बंगाल पर अपना अधिकार बनाए रखने में समर्थ न हो सका। तथापि उसकी ख्याति तत्कालीन उत्तर भारतीय राजाओं के बीच मुसलमान शासकों से जमकर मोर्चा लेते रहने के कारण सर्वदा स्मरणीय रहेगी। उसकी ख्याति का एक अन्य कारण है कोणार्क स्थित सूर्यमंदिर (द्र. कोणार्क)।
उसके पुत्र भानुदेव प्रथम तथा उसके पौत्र नरसिंह द्वितीय का काल राजनीति की दृष्टि से महत्वहीन है किंतु उसके पुत्र भानुदेव द्वितीय के समय से उड़ीसा के इतिहास का एक नया अध्याय आरंभ होता है। भानुदेव के समय गयासुद्दीन तुगलक के पुत्र उलूग बेग ने उड़ीसा पर आक्रमण किया किंतु भानुदेव ने उसे खदेड़ बाहर किया। ऐसे समय जब एक के बाद एक हिंदू राजे मुसलमानी आक्रमणों के सामने धराशायी हो रहे थे, भानुदेव की इस सफलता का अपना महत्व है। भानुदेव द्वितीय के पश्चात उसके पुत्र नरसिंह तृतीय और फिर उसका पुत्र भानुदेव तृतीय शासक हुए। भानुदेव तृतीय के समय मुस्लिम आक्रमण फिर आरंभ हुए और बंगाल का सुलतान शमसुद्दीन इलिआस शाह उड़ीसा को लूटकर लूट का माल ४४ हाथियों पर लादकर ले गया। तदनंतर फीरोज तुगलक ने उड़ीसा पर आक्रमण किया। भानुदेव तृतीय भाग खड़ा हुआ। फीरोज तुगलक ने राजधानी पर अधिकार कर लिया। खुलकर नरसंहार हुआ और जगन्नाथ मंदिर भ्रष्ट किया गया। कहा जाता है कि भानुदेव ने तुगलक की अधीनता मानकर कर देना स्वीकार किया पर इसका समर्थन किसी ऐतिहासिक सूत्र से नहीं होता।
भानुदेव के बाद नरसिंह चतुर्थ और भानुदेव चतुर्थ शासक हुए। भानुदेव चतुर्थ के समय मालवा सुलतान होशंगशाह को कुछ हाथियों की आवश्यकता हुई और वह घोड़े के व्यापारी के वेश में उड़ीसा आया। भानुदेव घोड़ो का शौकीन था। जब वह अपने थोड़े से आदमियों के साथ होशंगशाह के खेमे में घोड़े देखने आया तब होशंगशाह ने उसे पकड़ लिया और तब तक नहीं छोड़ा जब तक उसे अनेक बहुमूल्य हाथी भेंट नहीं किए गए। इस घटना के अतिरिक्त उसने शासन काल में कोई दूसरी घटना मुसलमान शासकों से संबंधित नहीं घटी किंतु उसे विजय नगर के बढ़ते हुए साम्राज्य का सामना करना पड़ा। जब वह दक्षिण में अपनी स्थिति सँभालने में लगा था तभी राजधानी में उसके विरुद्ध विद्रोह उठ खड़ा हुआ और उसकी अनुपस्थिति में उसके मंत्रियों ने कपिलेंद्र नामक व्यक्ति को शासक बना लिया जिसके वंशज उड़ीसा के गजपति नरेश के नाम से प्रख्यात हुए। इस विद्रोह के फलस्वरूप भानुदेव राजधानी वापस न आ सका। उसका क्या हुआ, यह अज्ञात हैं पर गंगवंश समाप्त हो गया। (विश्वनाथ त्रिपाठी)