खुरीय (Ungulata) नालोत्पन्न स्तनपोषियों का एक बड़ा वर्ग है, जिसके अंतर्गत खुरवाले शाकाहारी चौपाए आते है। अरस्तूं ने अपने पशुओं के अवयव नामक ग्रंथ में जरायुज चौपायों के अवयवों के छोरों का वर्णन करते हुए कहा है कि कुछ पशुओं के नख के स्थान पर द्विखंडित खुर होते हैं, जैसे भेड़, बकरी, हाथी, दरियाई घोड़ा, इत्यादि के और कुछ पशु अखंडित खुर वाले होते हैं, जैसे घोड़ा और गधा। नवयुग के पश्चात् ई. वॉटन् (E. Wotton) (१५५२) ने जरायुज चौपायों को बहुपादांगुलीय, खुरीय एवं सुमवालों में विभाजित किया। १६९३ में जॉन रे ने इन चौपायों को दो बड़े वर्गों, खुरीय (Ungulata) और नखरिण (Unguiculata) में विभक्त किया। रे के पश्चात् कुछ लुप्त एवं कुछ बाद में पता लगे हुए वर्ग भी खुरीय के अंतर्गत समाविष्ट कर लिए गए। ऑस्बार्न के स्तनपोषियों का युग नामक ग्रंथ में खुरीयों के गणों का उल्लेख मिलता है। अधिकांश खुरीयों के पैर पतले एवं दौड़ने में समर्थ होते हैं तथा उनका शरीर पृथ्वी से पर्याप्त ऊँचा रहता है। वे खुरों के बल चलते हैं। इनके अगले, पिछले पैरों के ऊपरी भाग धड़ से इतने सटे रहते हैं कि दिखलाई नहीं पड़ते।
सामान्यता खुरीय पशु खुले भूभाग में रहने के अभ्यस्त होते हैं। जहाँ वे घास पात पर जीते हैं। इनके बहुत से गण विलुप्त हो चुके हैं। जीवित गणों का वितरण निम्नलिखित है:
(क) अश्व वंश (घोड़ा, गधा तथा चित्रगर्दभ)-इस वंश के पशुओं की मुख्य विशेषता यह है कि इनके प्रत्येक पैर में केवल एक ही अंगुल (अर्थात् तीसरा अंगुल) कार्यशील होता है। दूसरे और चौथे अंगुल के अवशेषमात्र ही रह गए हैं, जिन्हें भग्नास्थिबंध (Splint bones) कहते हैं। इनके पश्चहानव्यो (molars) की रचना बड़ी जटिल होती है। वे उनके जीवनकाल में बराबर घिसते रहते हैं तथा उनके विघर्षण की मात्रा से पशुओं की आयु का पता लगाया जा सकता हैं।
(ख) लुलापवंश (जलतुरग, Tapir)-----इनकी मुख्य विशेषताएँ हैं मझोला आकार एवं नाक तथा उत्तरोष्ठ के आगे बढ़ जाने से बनी हुई सूँड की सी आकृति। इनके अगले पैरों में चार चार तथा पिछले में तीन तीन अंगुल होते हैं। जलतुरग केवल दक्षिणी एवं मध्य अमरीका तथा मलाया प्रायद्वीप में पाए जाते हैं।
(ग) गंडक वंश (गैंडा)-इस वर्ग में कुछ विशालकाय पशुजातियाँ समाविष्ट हैं। इनका वैशिष्ट्य नाक के मध्य में स्थित एक या दो सींगों से सूचित होता है; किंतु वे वास्तव में सींग नहीं हैं, क्योंकि वे नासिका की ऊपरी अस्थियों से जुड़े हुए बाल जैसे रेशों के समूह हैं। इनके अगले पैरों में सामान्यता तीन, या कभी कभी चार तक, अंगुल होते हैं, किंतु तीसरा अंगुल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। पिछले पैरों में सर्वदा तीन ही अंगुल होते हैं। उत्तरोष्ठ लंबा होने के साथ साथ परिग्राही भी होता हैं, किंतु जलतुरगों के समान सूँड का आकार धारण नहीं करता। त्वचा बहुत मोटी होती है और उसपर बाल बहुत छिदरे होते हैं। गैंडे बहुत भयंकर और दुर्दम्य होते हैं तथा शत्रु पर बड़े क्रोध एवं अप्रतिहत वेग से आक्रमण करते हैं। वे भारत तथा अफ्रीका में पाए जाते हैं।
वर्ग १० शूकर (सूअर) : इस वर्ग में तीन वंश उपलब्ध हैं। वे क्रमश: इस प्रकार हैं : जलहस्ती (Hippopotamus), सूअर तथा पोत्री। जलहस्ती विशाल एवं भारी शरीरवाले होते हैं। इनके हरेक अगले पैरों की तुलना में पिछले पैर बड़े होने के कारण इसकी पीठ आगे की ओर झुकी होती है। यह रोमंथी दक्षिणी अमरीका का निवासी है।
पैर में चार चार खुर होते हैं। ये अफ्रीका में पाए जाते हैं। छोटे आकार के जलहस्ती साइबीरिया में मिलते हैं। शूकर वंश में यूरोप के जंगली सूअर, कीलयुक्त चर्मवाले तथा अन्य कई प्रकार के सूअर हैं। पोत्री सूअर जैसे द्रुतगामी प्राणी है, जो सदैव बड़े बड़े समूहों में रहते हैं। इस कारण ये इतने भयंकर होते हैं कि उनका सामना नहीं किया जा सकता।
वर्ग २० रोमंथिन (Ruminantia) : ये खुरीय पशु जुगाली करनेवाले कहे जाते हैं, क्योंकि ये अपने भोज्य पदार्थ को पहले तो बिना चबाए ही निगल जाते हैं, फिर उसमें से थोड़ा थोड़ा मुँह में लाकर चबाते हैं। ये पशु तीन महागणों से विभाजित हैं। प्रथम, मुंडि मकागण, यथा मातृका मृग। द्वितीय, उष्ट्र महागण, यथा ऊँट एवं विकूट (Llama)। तृतीय, प्ररोमंथि महागण जैसे मृग, हरिण, वृषभ, महाग्रीव, अज तथा अवि।
मातृका मृग रोमंथियों में सबसें आद्य है। ऊँट रोमंथियों का एक छोटा समूह है। यह एशिया और अफ्रीका के मरुस्थल मात्र में सीमित है। इसकी दो विशेषताएँ प्रसिद्ध हैं-यह जल के बिना लंबे समय तक रह सकता है एवं भोजन के अभाव में अपने कूबड़ के चर्बीयुक्त अंश से निर्वाह कर लेता है। इन्हीं दोनों विशेषताओं से यह अपना जीवन मरुभूमि में सुचारु रूप से व्यतीत कर सकता है। अतएव यह एशिया तथा अफ्रीका के लंबे मरुमार्गों के लिए नितांत उपयुक्त भारवाहक सिद्ध हुआ है। इसलिये इसे मरुस्थल का जहाज भी कहा गया है। विकूटों में भी ऊँटों जैसे गुण हैं। ये दक्षिण अमरीका के प्राणी हैं।
प्ररोमंथि महागण में (१) मृग वंश अति विशाल है। इसमें ऋष्यहरिण इत्यादि पूर्ण परिचित जीव हैं। सींगों की शाखाओं का नरों में होना इनकी विशेषता है, परंतु वाहमृग (Reindeer) में यह नर और मादा दोनों में पाई जाती है। ये शृंगशाखाएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं। किसी में छोटे तथा बिना शाखाओं के शृंग होते हैं, जैसे क्षुद्र मृग में, तथा कुछ में बहुशाखोपशाखायुक्त विशाल शृंग होते हैं, जैसे ऋष्य में। परंतु ये सभी शृंग ठोस अस्थियों से निर्मित होते हैं। अमरीका के ऋष्य मृगवंश के राजा कहे जाते हैं, क्योंकि ये विशालकाय होते हैं। वाह मृग उत्तर के परध्रुिवीय प्रदेशों में मिलते हैं। कस्तुरी मृग अपवाद-स्वरूप है। इनके सींग नहीं होते, किंतु हाथी के दाँत सरीखे दो लंबे, नुकीले उद्दंत होते हैं, जो आहार के लिये कंद मूलों को उखाड़ने में प्रयुक्त होते हैं।
(२) महाग्रीव वंश रोमंथियों का एक लघु परंतु विशिष्ट समूह है। अधिक ऊँचाई, लंबी गर्दन और पतले पैर इनकी विशेषताएँ हैं। इनके सींग विशेष प्रकार के होते हैं। ये ललाटास्थि से निकलते हैं तथा बालों और चमड़ी से परिपूर्ण होते हैं। यह जीव अफ्रीकावासी हैं। यहाँ पर इसी वंश का एक छोटे आकार का पशु प्रग्रीव (Okapi) मिलता है, जो कुछ कुछ हरिण सा प्रतीत होता है।
ढोर वंश रोमंथियों का विशाल वंश है। इसमें बैल, भैंसा, भेड़ एवं बकरी इत्यादि सम्मिलित हैं। इनके सींगों की अपनी विशेषता है। ये खोखले, बिना हड्डी के एवं शृंगि (Keratine) के निर्मित होते हैं तथा नर एवं मादा दोनों में ही पाए जाते हैं। इस वंश के अधिकांश पशु पालतू हैं।
१. अंत: प्रकोष्ठिका (Ulna); २. स्फानकास्थि (Cuneiform); ३. अंकुशिका (Unciform); ४. महामणि (Magnum); ५. पंचम अंगुल; ६. चतुर्थ अंगुल; ७. बहि:-प्रकोष्ठिका (Radius); ८. अर्धचंद्रक (Lunar); ९. नौकाकार अस्थि; १०. ट्रैपिज़ाइड (Trapezoid); ११. ट्रैपीज़ियम; १२. प्रथम अंगुल; १३. द्वितीय अंगुल तथा १४. तृतीय अंगुल।