खुतबा शुक्रवार की नमाज पर अथवा ईद-उल-फित्र तथा ईदज्ज़ुहा के बड़े त्यौहारों पर एकत्रित हुई प्रार्थना सभा में मुल्ला द्वारा दिया जाने वाला भाषण। किंतु कुरान में इसका इस अर्थ में प्रयोग नहीं मिलता। इस्लाम के पैगंबर खुतबा दिया करते थे किंतु आजकल की भाँति उनके खुतबे विस्तृत नहीं हुआ करते थे। वे अपने भाषणों में सामाजिक, धार्मिक तथा, अन्य विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला करते थे। पैगंबर के जीवन पर लिखित इन्न इसहाक की पुस्तक में पैगंबर द्वारा दिए गए कुछ खुतबों का मूल रूप दिया हुआ है। उनके अंतिम भाषण को खुत्बत-अल-विदा कहते हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसमें उन्होंने उन सारे सिद्धांतों की चर्चा की है जिनपर इस्लाम का सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन आधारित होना था। पैगंबर विस्तृत खुतबा देने के पक्ष में नहीं थे और इस विषय में अपने अनुयायियों को अपनी नमाज (सलात) विस्तीर्ण तथा खुतबा संक्षेप में करने के लिए उत्साहित किया करते थे।

आजकल खुतबा अरबी भाषा में देने का प्रचलन है तथा उसके विषय भी निर्धारित हैं। ईश्वर की स्तुति तथा पैगंबर के आशीर्वचन के अतिरिक्त उसमें मुस्लिम समाज के लिये प्रार्थना, कुरान की एक आयात तथा धर्मनिष्ठ बनने के लिये चेतावनी का होना आवश्यक है। तुर्किस्तान में सुधारों के बाद खुतबे तुर्की भाषा में ही दिए जाने लगे। भारतवर्ष में दिल्ली के प्रसिद्ध चिश्ती संत शाह फखरुद्दीन (१७८४ ई.) ने खुतबा हिंदवी भाषा में दिए जाने के पक्ष में राय दी, परंतु उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

मध्ययुगीन खुतबों में मुस्लिम राजा का नाम भी सम्मिलित कर लेने की प्रथा हो गई थी। किसी शासक का नाम खुतबा में दिया जाना तथा प्रचलित सिक्कों पर उसका नाम आ जाना प्रभुत्व का परिचायक माना जाता था। इस कारण भारत के मुस्लिम सुलतान और मुगल सम्राट् किसी स्थान या प्रदेश पर अधिकार करने के पश्चात् वहाँ से अपने सिक्के चलाते और अपने नाम का खुतबा पढ़वाते थे।

सं. ग्रं.-डिक्शनरी ऑव इस्लाम, मुल्ला निजाम, फताब-ए-आलम-गिरी। (ख़लीक अहमद निजामी)