ख़िलाफ़त खलीफ़ा और ख़िलाफ़त का व्यवहार तीन अर्थो में हुआ है-१-कुरान
यह घोषित करता है कि अल्लाताला ने इन्सान को (मुस्लिम कौम को नहीं) इस
जमीन पर अपने खलीफ़ा या प्रतिनिधि के रूप में उत्पन्न किया है क्योंकि
एकमात्र मनुष्य ही अपने कार्यो के लिए नैतिक रूप से उत्तरदायी है। कुरान
खलीफ़ा शब्द का किसी और अर्थ में प्रयोग नहीं करता।
२-चूँकि
रोम और फारस के सम्राट् दैवी माने जाते थे अत: जिन मुस्लिम बादशाहों ने उस
परंपरा का अनुसरण करने का प्रयत्न किया उन्होंने अपने को खुदा की छाया
(प्रतिबिंब, ज़िल्लुल्लाह) होने का दावा किया। उन्होंने यह भी दावा किया कि
उन्हें खुदा ने सीधे अपना खलीफ़ा या प्रतिनिधि चुना है और अपने सिक्कों पर
खिलीफ़ा उपाधि उत्कीर्ण कराई और उसे जुमे (शुक्रवार) के वाज़ (प्रवचन) में
कहलाया। किंतु इस प्रकार के अनर्गल दावे इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों के
नितांत विरुद्ध हैं और मुस्लिम धार्मिक चेतना द्वारा कभी मान्य नहीं हुए।
मुस्लिम बादशाहों के व्यक्तित्व के साथ किसी प्रकार की धार्मिक पवित्रता
संलग्न नहीं, वे कभी दैवी
नहीं माने गए, और अधिसंख्यक (संभवत: ४० के लगभग) मुस्लिम बादशाह गद्दी से
उतार दिए गए, अंधे कर दिए गए और यंत्रणा देकर उनकी हत्या कर दी गई।
३-खलीफ़ा
का तीसरा अर्थ होता है नबी (पैगंबर) का वारिस तथा निष्ठावानों (मुसलमानों)
का समादेशक। खिलाफत वह शासन है जिसका वह नियंत्रण करता है। इसी राजनीतिक
और प्रशासकीय संस्था के रूप में खिलाफ़त प्राय: समझा और माना जाता है।
ख़िलाफ़त के संबंध में
इस्लाम के दोनों महान् संप्रदाय का अपने विचारों में मौलिक रूप से मतभेद
है। शिया लोगों के अनुसार नबी के मनोनीत होने और वंशगत अधिकार के कारण हजरत
अली को (चौथा नहीं) पहला खलीफ़ा होना चाहिए था, और उनके बाद ख़िलाफ़त १२
इमामों को मिलनी चाहिए थी। शियों के अनुसार अन्य समस्त शासकों की ख़िलाफ़त
अवैध रही। ख़लीफ़ाओं द्वारा निष्ठावानों (मुसलमानों) का शासन एकमात्र
सुन्नियों की समस्या रही है।
पैगंबर मुहम्मद बिना किसी
उत्तराधिकारी को मनोनीत किए मरे और कुरान भी सिवा समान कार्यों में परामर्श
के, किसी शासनविधान का निर्देश नहीं करता। सुन्नी विचारकों ने ख़िलाफ़त को
पूर्णतया मुसलमानी इजमा-ए-उम्मत के जनमतैक्य पर आधारित किया।
मुस्लिम इतिहास में निम्नलिखित ख़िलाफ़त का परिचय मिलता है-
- धर्मनिष्ठा
ख़िलाफ़त
(६३२-६६१)-सुन्नी मुसलमानों
का पहले चार
ख़लीफ़ाओं के
प्रति बड़ा स्निग्ध
सम्मान है-ये
ख़लीफ़ा हैं, अबू
बक्र (६३२-६३४), उमर (६३४-६४४), उस्मान
(६४४-६५६) और अली (६५६-६६१)। ये
नबी के चुने
हुए साथी (साहिबा)
थे और उन्होंने
भी उनकी ही तरह
अभाव और दरिद्रता
में जीवन बिताया।
उनके न तो महल
या अंगरक्षक थे
और न समसामायिक
बादशाहों के
से परिच्छद ही
थे। वे नबी की
मस्जिद में उनके
साथियों के
परामर्श से राजकाज
किया करते थे
और मदीना
का प्रत्येक नागरिक
सीधे उन तक बेरोक
पहँुच सकता
था। उन्होंने नबी
द्वारा आरंभ
किए सामाजिक
तथा अन्य सुधारों
को जारी रखने
का यथासंभव
प्रयत्न किया। उन्हें
इज्तिहाद अथवा
व्याख्यात्मक विधिनिर्माण
का अधिकार था
और सुन्नी कुछ
महत्वपूर्ण बातों
में उनके निर्णय
अनुल्लंघनीय मानते
हैं। धर्मनिष्ठ ख़िलाफ़त
को पुष्ट और
उसका प्रसार किया।
अबू बक्र ने उस विद्रोह
का दमन किया
जो मदीना, मक्का
और थाइफ नगरों
को छोड़कर समूचे
अरब में भड़क उठा
था। खलीफ़ा उमर
को, संभवत्
निजी इच्छाओं के
विपरीत, ईराक,
फारस, सीरिया
और मिस्र को
जीतना पड़ा था।
अरबों की भूखमरी
की स्थिति बदलकर
उमर ने उन्हें सुसंपन्न
कर दिया। फिर
भी शासन का ढाँचा
नगरराज्य की
भाँति ही था
और धर्मनिष्ठ
ख़िलाफ़त संक्रमणकालीन
ही सिद्ध हुई, क्योंकि
उसने ऐसी संस्थाओं
की स्थापना नहीं
की जो उमर द्वारा
निर्मित विस्तृत
मुस्लिम साम्राज्य
का शासन कर
सकतीं। इसके अतिरिक्त
दो और कठिनाइयाँ
थीं। धर्मनिष्ठ ख़िलाफ़त
उत्तराधिकर के
लिए कोई व्यवहार
नहीं व्यवस्थित कर
सकी थी। मदीना
की एक अनुशासनहीन
सभा ने अबू बक्र
को चुना था
किंतु यह समुचित
प्रमाण नहीं माना
गया। उमर अबू बक्र
द्वारा मनोनीत
किए गए थे और
लोगों द्वारा
मान्य हुए। उसमान
छह व्यक्तियों की
समिति द्वारा
चुने गए। अपनी मृत्यु
के पहले उमर ने
अपने में से खलीफ़ा
चुनने के लिये
इस समिति को
मनोनीत किया
था। इसके बाद
मदीनावासियों
ने अली को चुना
था किंतु उनमें
बहुत से वे लोग
भी थे जो मदीना
के नहीं थे और
जिनमें उस्मान के
हत्यारे भी थे।
जो भी हो, पूरे
मुस्लिम जगत्
के लिए मदीनावालों
द्वारा शासन
चुने जाने के
अधिकार पर देर
सबेर आपत्ति होना
अनिवार्य था। इसके
अतिरिक्त देश के
बाहर बहुत बड़ी
सेना की अध्यक्षता
करते हुए भी खलीफ़ा
से अपनी रक्षा
की व्यवस्था करने
की अपेक्षा नहीं
की जाती थी। इसक
परिणाम यह
हुआ कि उमर और
अली, दो ख़लीफ़ाओं
की ऐसे समय हत्या
कर दी गयी जब
वे धर्मनिष्ठ लोगों
को नमाज पढ़ा
रहे थे। उस्मान
अपने ही घर में
घेर लिए गए और
कूफा, बसरा
और मिस्र के उन
विद्रोहियों
द्वारा शहीद
किए गए थे जिन्हें
सेना की साधारण
टुकड़ी कुचल दे
सकती थीं। इन समस्याओं
के विशेष तो
नहीं पर आंशिक
हल वंशानुगत
राजतंत्र द्वारा
हुआ।
- उमैयद
ख़िलाफ़त (६६१-७५०)-नवीन
ख़िलाफ़त के संस्थापक
अमीर मुआविया
(६६१-६८०) ने खलीफ़ा की
उपाधि तो कायम
रखी किंतु अपने
पुत्र याजिद को
अपना उत्तराधिकारी
मनोनीत कर
और अपने अफसरों
तथा प्रधान नागरिकों
को उसके प्रति
राजभक्ति की
शपथ लेने पर
विवश कर ख़िलाफ़त
को रोम और
फारस के सम्राटों
के परिच्छद प्रदान
कर उसे वंशानुगत
राजतंत्र में परिवर्तित
कर दिया। उसके
बाद तो निकटतम
संबंधी को
अपना उत्तराधिकारी
मनोनीत कर
उसके प्रति राजशक्ति
की शपथ दिला
देना ख़लीफ़ाओं
के लिये सामान्य
प्रथा बन गई। मुसलमानों
में जब धर्मनिरपेक्ष
राजतंत्र का
आरंभ हुआ तब
उन्होंने या तो
अमीर मुआविया
द्वारा स्थापित
प्रथा का अनुसरण
किया अथवा उत्तराधिकार
के युद्ध द्वारा
झगड़ा निबटाया।
उमैयद काल ख़िलाफ़त
के इतिहास में
बड़े संघर्ष का
रहा। यह समस्त
मुस्लिम जगत्
पर छाया हुआ
था और अपने
उच्चाधिकारियों
को कुलीन अरब
कबीलों से ही
भरती करता
था। किंतु इसके
अधिकार को स्थानीय
और धार्मिक
विद्रोहों द्वारा
निरंतर चुनौती
मिलती रही।
फिर भी इससे
सर्वाधिक शक्तिशाली
शासक वलीद बिन
अब्दुल मलिक (७०५-७१५) विख्यात
हज्जाज बिन यूसुफ
सकफी की सहायता
से एक दशक के लिए
समस्त आंतरिक
विरोधों को
दबाने में सफल
हुए। इस बीच उसके
सेनाध्याक्षों
ने साम्राज्य की
सीमाओं का और
भी विस्तार किया।
मुहम्मद बिन कासिम
सिंध को जीत
रावी तक बढ़
आया, कुतैबा
ने मध्य एशिया के
तुर्की इलाकों
को चीन तक जीत
लिया। उधर मूसा
और उसके अधीनस्थ
सेनाध्यक्ष तारीक
ने पश्चिमी अफ्रीका
में ख़िलाफ़त की
सत्ता स्थापित की
और स्पेन को
जीता। सर विलियम
म्योर का कथन
है कि वलीद का
युग देश विदेश
दोनों में गौरवशाली
था। किसी खलीफ़ा
के शासनकाल
में देश से बाहर
इस्लाम का न इतना
प्रसार हुआ और
न वह इतना दृढ़
ही हुआ, उमर की
ख़िलाफ़त तक में
नहीं। धीरे धीरे
विजित लोगों
ने नया धर्म अपना
लिया और इंडोनेशिया
के समान कुछ
बाद के परिवर्धनों
को और स्पेन
के समान कुछ
हानियोें को
छोड़ आबादियों
की सीमाएँ आज
प्राय: वही हैं जो
वलीद ने ७१५ ई. में
खींच दी थीं।
- महत्तर
अब्बासी (७४९-८४२)-नए
अब्बासी राजवंश
के प्रतिनिधि
अबू मुस्लिम खोरासानी
के नेतृत्व में
फारस में विद्रोह
हुआ जिसने उमैयद
राजवंश और
उसके शासनवर्ग
को उखाड़ फेंका।
संघर्ष रक्तरंजित
था। अबू मुस्लिम
पर आरोप है
कि उसने युद्ध में
मारे गए लोगों
के अतिरिक्त ६,००,००० मुसलमानों
की निर्दयतापूर्वक
हत्या कर दी। और
उमैयद कबीले
के कुरैशी अरबों
का तो कत्लेआम
ही कर दिया
गया, यद्यपि पराजित
राजवंश का
एक शाहजादा, ख़लीफ़ा
हिशाम का पुत्र,
अब्दुर्रहमान निकल
भागा और उसने
कोरोडोवा
में उमैयद राजवंश
(७५६-१०१४) स्थापित किया।
- अब्बासी
ख़िलाफ़त (७५०-१२५८)-मुस्लिम
इतिहास में यह
सबसे लंबा राजवंश
है, किंतु मुस्लिम
जगत् के बृहत्तम
भाग पर शासन
करनेवाले सफाह,
मंसूर, महदी,
हादी, हारूँ अर्रशीद,
अमीर, मुनव्वर
रशीद और मुअतम
नामक आठ महान्
अब्बासी खलीफ़ाओं
(७५०-८४२) और उनके शक्तिहीन
उत्तराधिकारियों
में हमें अंतर करना
होगा। महान्
अब्बासी खलीफ़ाओं
के शासनकाल
में मुस्लिम धर्मशास्र
तथा धर्मनिरपेक्ष
ज्ञान का भी विकास
हुआ। विधान के
चार समुदाय
स्थापित हुए, पैगंबर
के वचनों अथवा
अनुश्रुति (हदीस)
के महान् संकलन
का प्रकाशन हुआ
और यूनानी
क्लासिकी रचनाओं
तथा हिंदू वैज्ञानिक
ग्रंथों के अरबी
में अनुवाद हुए।
इस काल में धर्मशास्र
विषयक विवाद
तो बहुत हुए किंतु
उमैयद के युग
की अपेक्षा विद्रोह
और रक्तपात
कम हुए। शासक वर्ग
अरबों और ऊँची
अरबीयत के फारसी
लोगों में से
चुना जाता था।
कुलीन अरब कबीलों
का अब शासन पर
एकाधिपत्य नहीं
रह गया। कुछ
लेखकों ने इसे
इस्लाम का स्वर्णयुग
माना है।
- गौण
अब्बासी (८४२-१२५८)-प्रांतों
में अब्बासियों
की केंद्रीय शक्ति
या तो उन प्रांतीय
शासकों ने तोड़
दी जिन्होंने
अपने को स्वतंत्र
घोषित कर दिया
अथवा कुछ साहसिकों
ने, जिन्होंने नए
राजवंशों की
स्थापना कर ख़लीफ़ाओं
को उन्हें मानने
पर विवश किया।
बगदाद तक में
खलीफ़ा वास्तव
में स्वतंत्र नहीं
थे। पहले तो
वे अपने ही तुर्की
अंगरक्षकों के
नियंत्रण में रहते
थे और बाद
में शिया बुवैहिदों
के। बुवैहिद
की पराजय के
बाद खलीफ़ा लोग
सेलुजुकों, ख्वारिज्मी
और मंगोल
सम्राटों के आश्रय
में रहने लगे
थे। इस प्रकार के
खलीफ़ाओं का
बगदाद में कोई
सम्मान न था। वसीक
से मुस्तसीम तक
के २९ गौण खलीफ़ाओं
में आठ की हत्या
कर दी गई, दो
अंधे कर दिए यद्यपि
संभवत: उनकी हत्या
नहीं की गई, और
एक को गद्दी से
उतार दिया गया।
किंतु विशाल
मुस्लिम जगत्
ने ख़िलाफ़त
के प्रति तीन प्रकार
से सम्मान प्रकट
किया। प्रत्येक नए
राजवंश को
खलीफ़ा से मान्यता
प्राप्त करना आवश्यक
हो गया, यद्यपि
खलीफ़ा की यह
मान्यता उसकी इच्छा
पर निर्भर नहीं
करती थी और
चाहने पर वह
उसे रोक देने
की स्थिति में न
था। शुक्रवार
(जुम्मे) के खुतबा
में खलीफ़ा का
नाम पढ़ा जाता
था और वह सिक्कों
पर उत्कीर्ण होता
था। किंतु जब अधिष्ठित
खलीफ़ा दूर
देशों में विख्यात
न होता (जैसा
अनेक बार होता
था) तब खुतबा
और सिक्कों के
लिये केवल अमीरुल
मोमिनीन (धर्मनिष्ठों
का समादेशक)
उपाधि का उल्लेख
ही पर्याप्त होता
था।
- काहिरा
की खिलाफ़त-१२५८
में चंगेज खाँ
के पोते हलाकू
ने बगदाद को
घेर लिया और
खलीफ़ा तथा अब्बासी
वंश के सारे
लोगों की हत्या
का आदेश दिया।
किंतु खलीफ़ा
नासिर का बेटा
अब्बासी शाहजादा
अबुल कासिम मुहम्मद
बचकर मिस्र भाग
गया और मिस्र
के मामलूक शासकों
(१२५०-१५१७) ने उसको और
उसके वंशों को
खलीफ़ा मानकर
स्थानीय प्रयोजनों
के लिये उनका
उपयोग किया।
सर हेनरी होवोर्थ
का कहना है कि
उसके काम अधिकारप्राप्त
लोगों को वैधता
और अच्छी उपाधि
देना मात्र था,
अन्यथा उसके अधिकार
नहीं के बराबर
थे।
- उसमानी
ख़िलाफ़त (१५१७-१९२४)-जब
उसमान सुल्तान
सलीम प्रथम ने
मिस्र विजय की
तब उसने काहिरा
के उपाधिकारी
खलीफ़ा को या
तो विवश किया
अथवा समझाकर
सहमत किया कि
वह उसे और उसके
उत्तराधिकारी
को तुर्की के सुलतान
के रूप में ख़िलाफ़त
का निर्वीर्य पद
हस्तांतरित
कर दे। किंतु उसमान
सम्राट् के प्रजाजनों
के अतिरिक्त शेष
मुस्लिम जगत्
ने उसकी ख़िलाफ़त
को नहीं माना।
उनके राज्य के
बाहर के सुन्नी
मुसलमानों
ने पवित्र नगर
मक्का और मदीना
के अभिभावक के
रूप में ही उनका
सम्मान किया। २३
मार्च, १९२४ को तुर्की
की बृहत् राष्ट्रीय
सभा ने ख़िलाफ़त
को समाप्त कर
दिया। काहिरा
की ख़िलाफ़त कांग्रेस
(१९२६) की तीसरी समिति
को विवश होकर
स्वीकार करना
पड़ा कि जिस स्थिति
में मुसलमान
संप्रति हैं, खलीफ़ा
लोग इस्लामी नियम
की शर्तों के अनुसार
कार्य करने में
अक्षम हैं। इनमें सबसे
महत्वपूर्ण शर्त
सारे इस्लामी
देशों में धर्म
की रक्षा करना
और इस्लामी नियम
के धर्मदेशों
को कार्यरूप
में परिणत करना
थी। (मोहम्मद
हबीब)