खिलजी, अलाउद्दीन आलउद्दीन दिल्ली तुर्की सल्तनत के खिलजी वंश का दूसरा सुलतान था। वह सुलतान जलालुद्दीन के भाई शहाबुद्दीन मसूद के चार बेटों में सबसे बड़ा था। शिहाबुद्दीन के बारे में केवल इतना ज्ञात है कि जलालुद्दीन की तरह वह भी बलबन की नौकरी में था। अलाउद्दीन के आरंभिक जीवन के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। १७वीं सदी के लेखक हाजी उद्दबीर से ज्ञात होता है कि रणथंभोर की चढ़ाई के समय अर्थात् १३०२ में वह ३४ बरस का था।

१२९१ में अलाउद्दीन को कड़ा का मुक्तअ नियुक्त किया गया था। एक बरस में सेना की पूरी तैयारी करके उसने सुलतान को सूचना दिए बिना ही भेलसा (प्राचीन विदिशा) पर आक्रमण कर दिया और उसके मंदिरों को नष्ट करके बहुत सा धन लूटा। इस सफलता से उसका साहस बढ़ गया और उसने फिर ८००० सेना तैयार करके १२९४ में मालवे के मार्ग से दक्षिण के देवगिरि राज पर हमला किया। वहाँ के यादव राजा रामचंद्र की असावधानी एवं कायरता के कारण अलाउद्दीन को पूरी सफलता मिली और वह नगर की जनता को अत्यंत निर्दयता से लूटकर तथा राजा रामचंद्र से अतुल धन संपत्ति लेकर कड़ा वापस आया। कड़ा पहुँचकर उसने १२९६ में बूढ़े सुलतान जलालुद्दीन को घोर निर्दयता तथा विश्वासघात से मरवा डाला और उसके बेटों का वध करके स्वयं सुलतान बन बैठा।

इस समय अलाउद्दीन के चार विश्वसनीय मित्र थे। इतिहासकर बरनी कहता है कि उसने सोचा कि जिस प्रकार मुहम्मद साहब ने चार मित्रों की सहायता से एक नए मत (मजहब) की स्थापना की थी उसी प्रकार मैं भी कर सकता हूँ और अतुल धन संपत्ति के बल से सेना बनाकर सिकंदर महान् के समान समस्त संसार को जीत सकता हूँ। परंतु उसके मंत्रियों में एकमात्र विचारशील काजी अलाउल्मुल्क ने उसकी मूर्खता का ज्ञान उसे कराया और उसे समझाया कि वह निराधार स्वप्नों को छोड़ दे। तथापि उसे अपनी सैनिक शक्ति पर इतना विश्वास था कि मुगलों के बराबर भयानक हमलों की कोई चिंता न करके उसने गुजरात, रणथंभौर चित्तौड़ आदि पर चढ़ाइयाँ कीं। इन्हीं दिनों कई आंतरिक विद्रोह तथा बाहर के मुगलों के हमले हुए। अंत में १३०३ के भयानक हमले से वह अधिक सजग हो गया और इस संकट से अपनी रक्षा करने के लिए अपने मंत्रियों से परामर्श से उसने दो उपाय किए। करों को अधिक उपजवाले क्षेत्रों में उपज का पचास प्रतिशत तक बढ़ा दिया, और अपना एक बड़ा कड़ा गुप्तचर विभाग बनाया। तथा बहुत बड़ी सेना का निर्माण किया और उसके व्यय को पूरा करने कि लिए उत्तरी प्रदेश के किसानों, व्यवसायियों तथा व्यापारियों से जबर्दस्ती कम मूल्य पर सामान खरीदा। उसने बाजार की हर एक वस्तु के मूल्य का नियंत्रण कर दिया और इस बात का प्रयत्न किया कि हर आवश्यक वस्तु बाजार में आ जाए। इसके लिए उसने लोगों को अग्रिम धन तक दिया परंतु बाजार संबधी कानून कठोर बनाया। इस प्रकार हर प्रकार की सामग्री एकत्रित करने का उद्देश्य थोड़े वेतन पानेवाले सैनिकों को सब प्रकार की आवश्यक वस्तुएँ सस्ते दामों में उपलब्ध कराना था। उसकी इस व्यवस्था को कुछ आधुनिक लेखकों ने उसके सैनिक तथा आर्थिक सुधारों का नाम दे दिया है। निस्संदेह सेना की संख्या में बढ़ोतरी एवं उसकी उपयोगिता में काफी सुधार किया गया था, किंतु जो आर्थिक उपाय इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किए गए वे अवश्य चिंत्य थे। सर्वसामान्य का कोई विशेष हित इन उपायों से नहीं हुआ।

उपर्युक्त साधनों से सिंहासन को अधिक स्थायी करके अलाउद्दीन ने साम्राज्य का विस्तार करना आरंभ किया। गुजरात की चढ़ाई में सन् १२९७ में उसके सेनापति नसरत खाँ ने खंबात से काफूर नामक गुलाम मोल लाकर दिया। वह हिंदू था जो मुसलमान बन गया था। काफूर बड़ा चतुर था, थोड़े दिनों में वह अलाउद्दीन का इतना प्रिय तथा विश्वासपात्र बन गया कि उसने उसे मालिक नायब (उपराजा) के सर्वोच्च पद पर नियुक्त कर दिया। १३०६ के अंतिम दिनों में अलाउद्दीन ने काफूर का दक्षिण के राज्यों पर आक्रमण करने के लिए एक बड़ी सेना के साथ भेजा और गुजरात के शासक अल्पखाँ को आज्ञा दी कि काफूर के साथ चढ़ाई में शामिल हो। अल्पखाँ ने गुजरात से भागे हुए राजा करण को, जो यादव राजा का करद बनकर नजरबाग में रहता था, बड़ी कठिनाई से हराया, और उसकी छोटी बेटी देवलदेवी को पकड़कर उसकी माता कमला देवी के पास, जो कि सुल्तान के अंत:पुर में १२९७ में ही पहुँचाई जा चुकी थी, भेजा।

जब मालिक नायब देवगिरि के निकट पहुँचा तो राजा रामचंद्र यादव ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया और पूरे तौर से दिल्ली सुलतान का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। तदंनतर सुलतान के आदेशानुसार काफूर ने १३०८ में बारंगल के राजा प्रताप रूद्रसेन को तथा १३१० में होयशल वंश के राजा को परास्त करके करद बनाया। इन चढ़ाइयों के समय उसने दक्षिण के हिंदू धर्मस्थानों को बड़ी निर्दयता से लूटा और ध्वस्त किया।

अलाउद्दीन पहला तुर्क मुसलमान बादशाह था जिसने दक्षिण भारत पर आक्रमण किए और उसके अधिकतर प्रदेशों को अपना करद बनाया। उसकी यह साम्राज्यवादी नीति उसके पूर्वगामी सुलतानों की नीति की पूर्ति मात्र थी ही। अलाउद्दीन पढ़ा लिखा नहीं था तथापि वह राजपूतों के सदृश बड़ा वीर था। उसकी सैनिक सफलताएँ कुछ तो सौभाग्य के कारण प्राप्त हुई, और अधिकतर जफरखाँ तथा गियास तुगलक सरीखे सुयोग्य सेनानायकों के कारण। अलाउद्दीन ने भूमि नापकर कर और वसूली की पद्धति चलाई, किंतु करों की मात्रा जितनी उसके शासन में बढ़ाई गई उतनी उससे पहले या पीछे किसी शासन में नही हुई। उसकी आर्थिक व्यवस्था से प्रजा आहत हो गई और देश की स्थिति इतनी बिगड़ी कि उसके बाद आनेवाले सुलतानों को प्रजा की स्थिति सुधारने के लिए विशेष यत्न करने पड़े। अलाउद्दीन चाहता था कि यथासंभव इस्लाम के नियमों का पालन करें किंतु अपने बल के मद में अंधा होकर मनमानी करता था और उसे राज्य के हित के लिए आवश्यक समझता था। उसके समय में वास्तुकला की महती उन्नति हुई। इसका सर्वोत्तम उदाहरण उसका बनवाया हुआ अतीव सुंदर अलाई दर्वाजा है जो कुतुबमीनार के उत्तर में स्थित है।

उसके समकालीन गुणी विद्वानों में कवि अमीर खुसरो तथा ख्वाजा हसन निजामी सबसे प्रसिद्ध हैं। सुप्रसिद्ध सूफी संत शेख निजामुद्दीन औलिया उसका समकालीन था। इतिहास लेखकों में जियाउद्दीन बरनी सुविख्यात हैं। दक्षिण का विश्वविख्यात संगीतज्ञ गोपाल नायक भी उसके दरबार में आमंत्रित किया गया था।

२ जनवरी, १३१६ को जलोदर के रोग से उसकी मृत्यु हुई।

सं. ग्र.-जियाउद्दीन बरनी : तारीख -ए-फीरोजशाही, प्रका. ए. सा. बं., मुख्य मुख्य स्थलों का हिंदी अनुवाद, सै. अ. अ. रिजवी (अलीगढ़); इलियट ऐंड डाउसन, खंड ३। (परमात्माशरण)