खिलजी, खलजी अति प्राचीन काल से तुर्क-मुगल जातियों के दल मध्य एशिया के उत्तरी सूखे मैदानों (जिन्हें स्टेपीज कहते हैं), दक्खिन-पच्छिम और दक्खिन-पूरब के प्रदेशों पर धावे करते रहते थे। उन्हें प्राय: तुर्क कहा गया है। वे २४ वंशों में बँटे थे जिनमें इसलाम के इतिहास में तीन अति प्रसिद्ध हुए। आठवीं सदी के मध्य में इसलाम मध्य एशिया में पहुँचा था; उत्तरी जातियों ने बहुत दिनों तक उसका विरोध किया था। यहाँ तक कि चिंगेजखानी मंगोलों ने तो १२५८ में अब्बासी खिलाफत को ही नष्ट कर डाला। पर अंत में मंगोल भी मुसलमान हो गए।

इन्हीं तीन वंशों में एक वंश खलीज या खलजी कहलाया था, जो पूर्वी अफगानिस्तान में पहुँचकर पश्तो भाषा में गलजी या खलजी बना रहा और उसका फारसी रूपांतर गिल्जई हो गया। इस बात को अनेक इतिहासकार नहीं मानते। गिल्जई प्राचीन खल्जी वंश का ही नाम था किंतु इतना निश्चय है कि गिल्जई भी अपने को तुर्क कहते हैं और उसी प्रदेश में बसे हैं जहाँ खलजी बसे थे। यह भी सर्वमान्य है कि खलजी का फारसी रूपांतर गिलजई है।

खल्जी कब अफगानिस्तान में आकर बसे यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। बहुत काल तक उस प्रदेश में रहने के कारण उनका चरित्र भी बहुत कुछ अफगानों का सा ही हो गया था और उन्हें प्राय: अफगानवंशीय ही समझा जाता था।

१३ वीं सदी ई. के आरंभ में जब इल्बरी तुर्को ने दिल्ली की विजय कर अपनी सल्तनत कायम की तो बहुत से खल्जी सैनिक भी उनके साथ भारत चले आए। थोड़े दिन बाद मंगोलों के प्रलयंकर आक्रमणों से जान बचाने के भी कुछ और खल्जी भारत में आ बसे। इनमें कई बड़े वीर अपने सैनिक गुणों के कारण ऊँचे पदों पर नियुक्त हुए। (परमात्माशरण)