खिलअत वह बहुमूल्य वस्त्र जिसे बादशाह प्रसन्न होकर किसी को प्रदान किया है। यह शुद्ध अथवा अन्य प्रकार के रेशम का होता था। कभी कभी इसके ताने बाने में ही कलाबत्तू से सुल्तानों के नाम अथवा उनके विशेष चिह्नों को बुन दिया जाता था। खिलअत देते समय पुरस्कृत किए जानेवाले व्यक्ति की योग्यता, पद एवं जिस कार्य के लिए खिलअत प्रदान होती थी, उसका भी विशेष रूप से ध्यान रक्खा जाता था। इस्लाम के पूर्व अजम के सुल्तानों के समय में बादशाहों के चित्र अथवा अन्य चित्र भी खिलअत में काढ़े अथवा बुने जाते थे किंतु इस्लाम में चित्र के प्रयोग का निषेध होने पर इसमें कमी आ गई फिर भी वह प्रथा पूर्णत: बंद न हो सकी। सुल्तान फीरोजशाह तुगलक के अधिनियम के ग्रंथ फतूहाते फीरोजशाही से पता चलता है कि उसके राज्यकाल से पूर्व खिलअतों पर चित्र बनाने की प्रथा प्रचलित थी। फिर भी उसने उसका निषेध किया।
बनी उमय्या तथा बनी अब्बास के राज्यकाल में खिलअतों की प्राप्ति बड़े गर्व का विषय समझी जाती थी। खिलअतों के बनाने के लिए राजप्रासाद में एक कारखाना होता था जो दारुत्तिराज अथवा कपड़ा बनाने का कारखाना कहलाता था। इसके लिए एक अधिकारी होता था जो साहिबुत्तिराज कहलाता था। कारखाने के अधिकारी का पद राज्य के किसी बड़े सम्मानित व्यक्ति को दिया जाता था। स्पेन में बनी उमय्या की सल्तनत एवं उसके उपरांत मुलूकुत्तवायफ में यही प्रथा रही। मिस्र में उबैदीईन के राज्यकाल अथवा उनके समकालीन पूर्वी अजम के बादशाहों के यहाँ भी यही प्रथा रही। दिल्ली के सुल्तानों के इतिहास में इन कारखानों का उल्लेख बड़े ही विस्तार से किया गया है। सुल्तान फीरोजशाह के राज्यकाल में दासों की बहुत बड़ी संख्या इन कारखानों में काम किया करती थी। आईने अकबरी में भी खिलअतों की चर्चा की गई है। मुगलों के इतिहास में खिलअत के स्थान पर सरोपा शब्द का प्रयोग हुआ है।
सं. ग्रं.-फीरोजशाह : फतूहाते फीरोजशाही, आईन अकबरी; रिजवी : इब्ने खलदून का मुकद्दमा, तुगलक कालीन भारत, भाग २, मुगलकालीन भारत-बाबर मुगल कालीन भारत-हुमायूँ। (सैयद अतहर अब्बास रिज़वी)