खालसा पंजाब स्थित एक सिख पंथ। इस शब्द की व्युत्पत्ति अरबी शब्द खालिस (शुद्ध) शब्द से है। आरंभ में सिख धर्म शांति और सहिष्णुता का प्रतिपादक था। मुगल सम्राट् जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन को, और औरंगजेब द्वारा गुरु तेगबहादुर को प्राणदंड दिए जाने पर सिक्खों में स्वरक्षा की भावना से युद्धवृत्ति जागृत हुई। किंतु, सिक्ख एक ओर शासकीय अधिकारियों के प्रश्न को लेकर कतिपय स्वार्थपरक आंतरिक विग्रह से ग्रसित थे, तथा तीसरी ओर हिंदू भी उनका विरोध कर रहे थे। इस चतुर्दिक् संघर्ष के वातावरण में सिक्खों को एकता के सूत्र में आबद्ध करने, तथा उन्हें नए आदर्शो और मान्यताओं से प्रेरित करने के लिये उनके १० वें तथा अंतिम गुरु गोविंदसिंह ने खालसा की स्थापना की। तत्पश्चात् सिक्ख इतिहास, वास्तव में, खालसा की ही प्रगति का इतिहास बना, भारतीय इतिहास का रोमांचकारी, रक्तरंजित पृष्ठ।
१६९९ ई. में, आनंदपुर में, बैसाखी मेले के दिन सार्वजनिक सभा में गुरु गोविंदसिंह ने तलवार म्यान से निकालकर ऐसे अनुयायी का आह्वान किया जो अपना मस्तक अर्पित करने के लिऐ प्रस्तुत हो। एक के आगे आने पर उसे वे अलग खेमे में ले गए और रक्त से सनी तलवार लेकर अकेले बाहर आए। इसी प्रकार एक एक करके उन्होंने चार ओर अनुयायियों को चरम बलिदान के लिए आमंत्रित किया। वास्तव में, गुरू ने उन पाँच व्यक्तियों के बजाय पाँच बकरों की बलि दी थी जो वहाँ पहले से ही एकत्र कर रखे गए थे। अंतत:, पाँचों को वे सभा के समक्ष फिर ले आए; एक लौहपात्र में जल भरकर उसमें अपनी कृपाण डाली; फिर जपजी के जापमंत्र से जल को अभिसिंचित किया; तत्पश्चात् पहुल विधि द्वारा अमृत जल से पाँचो को अभिषिक्त किया और उन्हें पंज प्यारा की उपाधि प्रदान की। फिर, घोषणा की गुरु का स्थान अब इन पंज प्यारों ने ग्रहण की। इन्होंने बाद, उन्होंने स्वयं भी पहुलविधि से पंज प्यारों से दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार, गोविंदसिंह ने न केवल सिक्ख संगठन को पूर्ण जनसत्तात्मक विधान भेंट किया, बल्कि गुरु पद को लेकर आंतरिक कलह की संभावना का भी निराकरण किया। इस विधि से अभिसिंचित होनेवाले सिक्ख खालसा कहलाए। गुरु ने प्रत्येक खालसा के नाम के साथ सिंह जोड़ना, तथा उनके लिए पाँच ककार- केश, कंघा, कच्छ, कड़ा और कृपाण धारण करना अनिवार्य कर दिया। खालसा के विजयघोष बने वाह गुरु का खालसा, वाह गुरु की फतह। इस प्रकार वस्तुत: एक ही दिन में, एक ही प्रयास में, गोविंदसिंह ने ऊँच नीच, जात पाँत का समूल उच्छेदन कर, सिक्ख विधान और मनोवृत्ति में आमूल परिवर्तन कर, प्रत्येक खालसा सिक्ख को प्राणोत्सर्ग की चरम भावना से उद्वेलित कर दिया। खालसा सिक्ख धर्म का मेरूदंड बना। गोविंदसिंह के नेतृत्व में उसने मुगल शासन से कठोर संघर्ष किया।
गोविंदसिंह की मृत्यु के बाद खालसा का नेतृत्व सेनानी रूप में बंदा ने सम्हाला। मुगल शासन द्वारा उसकी पराजय तथा मृत्युदंड के बाद खालसा पर दीर्घकाल तक निरंतर चारों ओर से कैसे भीषण घातप्रतिघात हुए तथा उनका सिक्खों ने कैसे अदम्य साहस, अपूर्व त्याग तथा अचल दृढ़ता से सामना किया, इसके उदाहरण इतिहास में कम ही मिलते हैं। एक ओर मुगल शासकीय अधिकारियों ने तथा दूसरी ओर उत्तरपश्चिमी सीमाद्वार से अफगान आक्रामकों ने खालसा सिक्खों के साथ वही व्यवहार किया जो आखेटक जंगल के पशुओं से करते हैं। एक एक खालसा मस्तक के लिए इनाम बँधा था और उसके आश्रयदाता के लिए प्राणदंड निश्चित था। फिर भी खालसा की आत्मशक्ति अजेय सिद्ध हुई। वे निरंतर संघर्ष ही नहीं करते रहे, वरन् उन्होंने भारत की उत्तरपश्चिमी सीमा रेखा को भी सुरक्षित रखा। २९ मार्च, १७४८ के दिन अमृतसर में दलखालसा की स्थापना हुई। खालसा ग्यारह दलों में विभाजित हुआ। प्रत्येक दल का एक नेता बना। प्रधान नेता जस्सासिंह अहलूवालिया निर्वाचित हुए। प्रत्येक खालसा का किसी एक दल के साथ संबद्ध होना अनिवार्य था। इस प्रकार ३२ वर्षो के अनवरत मरणांतक संघर्ष के बाद पंजाब में सिक्खों की राजनीतिक तथा सैनिक शक्ति की योजनाबद्ध नींव पड़ी। यद्यपि १७६२ में अहमदशाह के हाथों सिक्खों की भीषण पराजय हुई, जिसे उन्होंने घल्लू घारा (वस्तुत: रक्तस्नान) की संज्ञा दी, फिर भी वे १३ मिस्लों के रूप में सिक्ख राज्य की स्थापना में समर्थ हुए। उसी भित्ति पर खालसा शक्ति का चरमोत्कर्ष राजा रणजीतसिंह द्वारा संपन्न हुआ। किंतु, उनकी मृत्यु के बाद, प्रथम तथा द्वितीय अँगरेज-सिक्ख-युद्धों के फलस्वरूप अँगरेजी साम्राज्य द्वारा उसपर पटाक्षेप भी हो गया। यद्यपि वह सिक्ख राज्य का अस्त था, तथापि धार्मिक पक्ष के रूप में खलसा आज भी सजीव है।
सं. ग्रं.-कनिंघम : हिस्ट्री ऑव द सिक्ख्स ; इंदूभूषण बनर्जी: इवोल्यूशन ऑव द खालसा; गोकुलचंद्र नारंग: ट्रांसफर्मेशन ऑव सिक्खिज्म। (राजेंद्र नागर)